बंगाल के संत -दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

बंगाल के संत -दिनेश मालवीय बंगाल को वैसे तो भारत का मस्तिष्क कहा जाता है. भारत के इस प्रान्त में बड़े-बड़े शूरवीरों के साथ ही इतने अधिक बुद्धिमान महापुरुषों और कलाकारों  को जन्म दिया कि उनकी गिनती करना भी आसान नहीं है. लेकिन बुद्धि और मस्तिष्क के साथ ह्रदय के स्तर पर भी यह प्रदेश किसी से पीछे नहीं रहा. ईश-भक्ति के क्षेत्र में बंगाल का विशिष्ट स्थान रहा है. यहीं जन्में स्वामी विवेकानंद ने विश्व भर में भारतीय अध्यात्म की श्रेष्ठता की पताका फहराई. उनके गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस तो बहुत उच्च कोटि के ऐसे महात्मा हुए हैं, जिन्होंने चेतना के उच्चतम स्तर को प्राप्त किया. इसके अलावा यहाँ  नाथ पंथ काबहुत प्रभाव रहा. इसी भूमि पर महाप्रभु चैतन्य ने भक्ति के आह्लाद का प्रसार किया. बाउल संतों की भूमिका भी बहुती महत्वपूर्ण रही. चैतन्य महाप्रभु-जिस समय कबीर, गुरुनानकदेव और अन्य भक्त भक्ति और समरसता की अलख जगा रहे थे, उसी समय भगवत भक्त श्री चैतन्य महाप्रभु ने हरिस्मरण आन्दोलन चलाया. बंगाल के नदिया जिले में जन्में महाप्रभु ने भक्ति को नये आयाम दिए. समाज के हर वर्ग में उनके लाखों अनुयायी रहे हैं. वह किसी भी प्रकार के भेदभाव के विरोधी थे और उन्होंने सामाजिक एकता को मजबूत किया. वह “हरि बोल” नाम से भजन-संकीर्तन करते और करवाते थे. उन्होंने वृन्दावन, जगन्नाथपुरी तथा देश के अन्य भागों में भक्ति की गंगा प्रवाहित की.उनके जीवन के अंतिम वर्ष जगन्नाथपुरी में व्यतीत हुये. कहते हैं कि उनका भगवान जगन्नाथ की प्रतिमा में विलय हो गया. चैतन्य महाप्रभु महाप्रभु ने पुरी की रथयात्रा को नये सामाजिक और सांस्कृतिक आयाम देकर उसे विश्व भर में प्रसिद्ध कर दिया.भगवान के विग्रहों को भक्त शूद्र बहुत भक्तिभाव से गर्भगृह से लाकर रथों में स्थापित करते हैं और वे ही प्रभु को नैवेद्य अर्पित करते हैं. चैतन्य महाप्रभु सभी जाति और वर्णों के भक्तों के साथ एक ही पंगत में भोजन करते थे. उनके द्वारा शुरू किये गये “नाम संकीर्तन” का प्रभाव पूरे भारत में हुआ. आज पश्चिमी देशों में जो ISKON आन्दोलन चल रहा है, उसकी प्रेरणा के मूल में चैतन्य प्रभु ही हैं. श्रीरामकृष्ण परमहंस- यह बंगाल के ऐसे महासंत हुए हैं, जिन्होंने स्वयं तो ईश्वर का साक्षात्कार किया ही, साथ ही लाखों लोगों को भक्ति के मार्ग पर प्रवर्तित कराया. उनके सुयोग्य शिष्य स्वामी विवेकानंद ने विश्वभर में भारत की आध्यात्मिक श्रेष्ठता का डंका बजाया और दीन-हीन लोगों की सेवा की दिशा में अनुकरणीय कार्य किये. श्रीरामकृष्ण परमहंस बचपन में परमहंस का नाम गदाधर था. वह बहुत कम उम्र से ही भक्ति भाव में डूबे रहते थे. रानी रासमणि शूद्र जाति की थीं और उन्होंने उस समय करोड़ों रूपये लगत से कलकत्ता के पास दक्षिणेश्वर में एक भव्य मंदिर बनवाया. वहाँ कोई ब्राह्मण वहाँ पुजारी बनने को तैयार नहीं हुआ. श्रीरामकृष्ण ने पुजारी बनना स्वीकार किया. उन्होंने माँ काली की उपासना से चेतना के सर्वोच्च शिखर को प्राप्त किया. उन्होंने सभी धर्मों की एकता प्रतिपादित की. स्वयं सभी धर्मों की साधना पद्धतियों का अभ्यास कर उन्होंने कहा कि सच्चे मन से किसी भी धर्म की साधना पद्धति का पालन किया जाए, तो ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं. स्वामी विवेकानंद को तो बहुत ख्याति प्राप्त है, लेकिन उनके अनेक ऐसे शिष्य थे, जिन्होंने उनकी कृपा से आत्मसाक्षात्कार किया. इनमें अद्भुतानंद, ब्रह्मानंद, शिवानन्द, प्रेमानंद, योगानंद, सारदानंद, रामकृष्णानंद, तुरीयानन्द, अखंडानंद, विज्ञानानंद, अभेदानंद, सुबोधानन्द, त्रिगुणातीतानंद और निरंजनानंद आदि प्रमुख रूप से शामिल हैं. इन सभी ने अपनी आध्यात्मिक साथना के साथ ही गरीबों और कमजोरों की बहुत सेवा की. स्वामी विवेकानंद- स्वामीजी द्वारा भारतीय आध्यात्म का प्रसार विश्वभर में किया गया. उन्होंने अपने गुरु के आदेश के अनुसार दीन-दुखी लोगों की सेवा को अपना आदर्श बनाया. इसी उद्देश्य से उन्होंने श्रीरामकृष्ण मिशन और वेलूर मठ की स्थापना की. उनके द्वारा शुरू किये मानवसेवा के इस कार्य से आज भी देशभर में बहुत बड़ी संख्या में गरीब और बेसहारा लोग लाभान्वित हो रहे हैं. उन्होंने कहा कि-“ सेवा करके तुम किस पर उपकार कर रहे हो? यह तो तुम्हारा भाग्य है कि तुमको सेवा का अवसर मिल रहा है. उस ईश्वर को प्रणाम करो, जिसने तुम्हें यह सुअवसर प्रदान किया.” स्वामी विवेकानंद स्वामी प्रणवानंद- यह भी बंगाल के बहुत प्रसिद्ध संत हुए हैं. उन्होंने गोरखपुर के स्वामी गंभीरानंद से दीक्षा लेकर आध्यात्मिक उपलब्धियाँ अर्जित कीं और सामाजिक समरसता बढ़ाने का कार्य किया.उन्होंने 1923 में आयी विकराल बाढ़ के समय “भारत सेवाश्रम संघ” की स्थापन कर लाखों युवकों को इससे जोड़कर ज़रूरतमंदों की सहायता की. वह जातिगत भेदभाव को नहीं मानते थे. उन्होंने शूद्रों के बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था की. विधर्मियों द्वारा हिन्दुओं पर किये जाने वाले अत्याचारों का उन्होंने प्रबल विरोध किया और हिन्दुओं को आत्मरक्षा के लिए संगठित किया. उन्होंने अपने शिष्यों को गुरु गोविन्दसिंह को आदर्श मानने के लिए प्रेरित किया. स्वामी प्रणवानंद कृतिवास- यह बंगाल के प्रसिद्ध भक्त कवि थे. उन्होंने “कृतिवास रामायण” की रचना की. संस्कृत का अभिमान रखने वाले लोगों ने उनका बहुत उपहास किया, लेकिन उन्होंने स्थानीय बंगाली भाषा में इसकी रचना की. रामायण साहित्य में इस रचना का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है. इसकी भाषा बहुत प्रांजल और सरल होते हुए भी यह बहुत विद्वतापूर्ण रचना है. कृतिवास बाउल संत- बंगाल में बाउल संतों का बहुत बोलबाला रहा. उन्होंने मानवतावादी दृष्टिकोण सामने रखकर ईस्वर भक्ति का प्रसार किया. ये लोग निर्गुण परम्परा के थे. बाउल संत श्री चैतन्य महाप्रभु के समकालीन नित्यानद के पुत्र वीरभद्र को अपनने संप्रदाय का आदि प्रवर्तक मानते हैं. आगे चलकर इसका प्रसार पूरे भारत में हो गया. ये लोग भी जातिगत भेदभाव से ऊपर उठकर समाज में एकता का सन्देश देते हैं. इस पंथ के संत गीत गाते हैं, नाचते हैं और हर प्रकार की आसक्ति से दूर रहते हैं. उनकी सबसे बड़ी अवधारणा “मनेर मानुष” की है. इसका अर्थ है कि विद्यमान पुरुष की उनका ईश्वर है. प्रभु जगत्बंधु- यह भी बंगाल के बहुत प्रतिष्ठित संत हुए हैं.  उस समय पाश्चात्य शिक्षा के कारणबंगाली युवक सनातन धर्म को हेय दृष्टि से देखने लगे थे और अपनी संस्कृति के प्रति तिरस्कार का भाव रखने लगे थे. वे तेजी से दूसरे धर्मों की ओर जा रहे थे. ऐसे कठिन समय में जगत्बंधु ने श्रीचैतन्य को अपना आदर्श मानकर युवाओं को अपनी संस्कृति और धर्म के प्रति जाग्रत किया. कोलकाता में हारी और डोम जाति के सैंकड़ों परिवार उनके शिष्य हो गये. यह संत समाज में समरसता लाने के उद्देश्य से ब्राह्मण औए शूद्रों को एकसाथ भोजन करवाने के लिए सहभोज का आयोजन करते थे. उन्होंने बहुत पिछड़ी माने जानेवाली बागदी जाति के श्री रजनी बागदी को महंत हरिदास नाम देकर मंदिर का प्रसाद बनाना का कार्य सौंपा. उन्होंने अपने ग्रंथ “त्रिकाल ग्रंथ” में डोम जाति के लोगों को “पीताम्बर डोम” नाम देकर सम्मानित किया. प्रभु जगत्बंधु इसके अलावा बंगाल में क्रियायोग के महान योगी युक्तेश्वर गिरि, योगी श्यामाचरण लाहिड़ी और स्वामी योगानंद ने “क्रियायोग” के माध्यम से योग के द्वारा आत्मज्ञान के मार्ग का व्यापक रूप से प्रसार किया. स्वामी योगानंद ने तो अमेरिका और अनेक देशों में भी “क्रिया योग” का प्रसार किया. उनके द्वारा लिखित पुस्तक “Autobiography of A Yogi” का आध्यामिक साहित्य में बहुत विशिष्ट स्थान है. अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद हो चूका है. हिन्दी में यह “योगीकथामृत” के नाम से उपलब्ध है.