ब्रह्माँड के रहस्य- 47 यज्ञ विधि- 5
रमेश तिवारी
आत्मा को परमात्मा से मिलाने की जो प्रक्रिया है, वह बहुत ही गंभीर और वैज्ञानिक है। आधुनिक विज्ञान अभी तक तो परमात्मा (सूर्य) तक पहुंचने की कल्पना भी नहीं कर सका है किंतु सनातनी ऋषि गण लाखों साल पहले ही आत्मा जैसी सूक्ष्म अनुभूति के माध्यम से सूर्य तक पहुंच चुके थे। यज्ञ की जिस पद्धति से ऋषियों ने यह काम किया, उसकी उपविधियां, अर्थात् नियमों के प्रारंभ की कहानी भी बडी़ रोचक है। यज्ञ में यजमान को इसलिए दीक्षित किया जाता है, या कहें कि प्रशिक्षित किया जाता है, ताकि मृत्योपरांत आत्मा भटके नहीं। सीधे और निर्दिष्ट मार्ग से ईश्वर में लीन हो जाये। जैसे किसी को विदेश जाने के लिये वीजा लेना पड़ता है! बस उसी प्रकार से यह दीक्षा भी वीजा ही समझो।
जैसे बिना वीजा लिये, आप विदेश नहीं जा सकते, वकील साहब काला कोट पहने बिना अदालत में खडे़ नहीं हो सकते अथवा बिना एम बी बी एस किये आप डाक्टरी नहीं कर सकते हैं।अतः बिना दीक्षा लिये आप विष्णु जी के धाम में भी नहीं घुस सकते। वीजा बनवाने के लिए कितनी जगह भागना पड़ता है। कहाँ, कहां से एन ओ सी लेना पड़तीं हैं, बस ठीक उसी तर्ज पर यजमान को भी विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। कुछ प्रक्रियायें तो हम बता ही चुके हैं, परन्तु अभी तो बहुत सी प्रक्रियायें बाकी हैं।
ईश्वर तक पहुंचने का विज्ञान मनुष्य के शरीर में ही छिपा है। नाभि के नीचे से लेकर सिर के तलुवे तक। यह जो सात लोक हैं- भुः भुवः, स्वः महः, जनः तपः और सत्यम, बस इनहीं में। यही ब्रह्मांँड है, और यही ज्ञह्माँड का लघु रूप है पिंड (शरीर)। मनुष्य कहां कहां भी क्यों न भटके| किंतु उसको यदि ईश्वर से मिलना है तो मात्र स्वयं को ही सिद्ध करना होगा।
हमारे महान ऋषियों और ब्राह्मण वैज्ञानिकों ने इसी विज्ञान को खोज निकाला था। हमारे शरीर में सभी ग्रह मौजूद हैं। विज्ञान आज जिन ग्रहों पर पहुंचने की प्रतियोगिता में निमग्न है, वहां तो हमारा सनातन विज्ञान आथ्यात्मिक रूप से लाखों वर्ष पूर्व ही पहुंच चुका था। यहां तक कि सूर्य तक भी। आज क्या कोई भी सूर्य तक पहुंच सकता है और तो और ऋषिगणों ने तो आग उगलते सूर्यदेव की परिधि से ऊपर भी आक्सीजन और हाईड्रोजन का पता लगा लिया था। हमारे मष्तिक के माध्यम से यह सब शोध किये गये थे। मनुष्य के मुख क्षेत्र पर केन्द्रित होकर विचार करें। इसी क्षेत्र में सूर्य है, चंद्रमा है। मन और प्राण हैं। चेतना है और अत्रि, भृगु और अंगिरा के रुप में हाइड्रोजन और आक्सीजन है। मष्तिष्क में जल है, उसी से तो जलचर, नभचर और थलचर जीवों की उत्पत्ति होती है।
यूं ही समझ लें| हम जो जल पीते हैं, तो क्या वह जल पेट में से पलट कर हमारी नाक से निकलने आंसू के रूप में टपकने या कि कंठ को गीला करने आता है। कदापि नहीं! यह पानी तो मष्तिष्क में स्थित इन्हीं पदार्थों अत्रि, भृगु और अंगिरा से आता है। शीर्ष से। मष्तिष्क में विशुद्ध आक्सीजन है। हाइड्रोजन है। तभी तो विश्व की सभी सरिताओं में गंगा का जल सर्वोत्तम माना जाता है। गंगा 25,000 फीट की ऊंचाई वाले हिमालय से गिरती है। हिमालय (मष्तिष्क की तरह) विश्व की सबसे ऊंचा पर्वत है। जबकि ईरान का देमामंद पर्वत, 18,934 फीट या कि 5771 मीटर ऊंचा है। तो गंगा के जल में उत्कृष्ट और शुद्ध आक्सीजन (पवमान वायु) आती है। इसी को प्राण वायु कहते हैं। यह पवमान वायु ऊषा काल से सवा घंटा पूर्व से बहती है। ऋषियों ने इसी विज्ञान को पकडा़। और इसी समय को योग और प्राणायाम के लिए मुकर्रर कर दिया।
अर्थात् प्रातः उठकर, योग, प्राणायाम करने अथवा घूमने और दौड़ने से शुद्ध वायु आपके फेंफडों को ताजा वायु दे और आपका रक्त संचार ठीक रह सके। किंतु नहीं! हम स्वस्थ रहना ही नहीं चाहते। योग शास्त्र कहता है कि रात्रि में जो जितनी जल्दी सोता है, और प्रातः जितनी जल्दी जागता है, उसकी आयु उतनी ही अधिक होती है।
परमात्मा ने हमारा शरीर सौ वर्ष के लिए बनाया है। वेद में साफ लिखा है। "जीवेम् शरदः शतं,श्रृणुयाम् शरदः शतं, पश्यामि शरदः शतं। अर्थात हम सौ साल तक जीवित रहें, सुनें और देखें। हमारा पौरूष सौ वर्ष तक कायम रहे। किंतु परमात्मा द्वारा उपहार स्वरूप प्रदत्त यह शरीर हम स्वयं ही ठीक से नहीं रखना चाहते। प्राकृतिक अंगों का संरक्षण ही ईश्वर की कामना है।
आज बस यहीं तक| धन्यवाद|
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