"अंजन" एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक प्रक्रिया: ब्रह्माँड के रहस्य- 49 यज्ञ विधि-7


स्टोरी हाइलाइट्स

ब्रह्माँड के रहस्य- 49................................यज्ञ विधि-7 secrets-of-brahmand-49-yajna-vidhi-7

ब्रह्माँड के रहस्य-49 यज्ञ विधि-7 रमेश तिवरी मित्रो, नवनीत लेपान्तर यजमान के दोनों नेत्रों में अंजन लगाया जाता है। यह अंजन किस चीज का बना होता है। और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात है कि अंजन लगाया ही क्यों जाता है? हम इस तथ्य पर गंभीरता पूर्वक प्रकाश डालते हैं। "अंजन" एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक प्रक्रिया है। अंजन का सीधा संबंध भी सूर्य से है। सूर्य किरणों से है। अंजन के महत्व को आगे इतनी सूक्ष्मता से बतायेंगे कि आप के आश्चर्य का ठिकाना न रहेगा। आप को अनूभूति होगी कि ऋषिगण यज्ञ स्थल पर ही जजमान के नेत्रों में दूसरे नेत्र कैसे डाल देते थे। वह भी बिना आपरेशन के। वे नेत्रों के आसपास पत्थरों का अवशत (किला) बना देते थे। उनके इसी चमत्कारिक विज्ञान का दर्शन हम करेंगे। परन्तु धैर्यपूर्वक ही। क्योंकि कहा भी है- "धैर्यवान लभते ज्ञानं"। मनुष्य की आंख में गंदगी भरी है। यह भी समझ लो कि आंख एक जख्म है। तो यज्ञ जैसे पवित्र कर्म का हिस्सा बनने जा रहे यजमान के इस अंग को भी पवित्र करना है। अंजन डालने को "अथाक्षयावनक्ति" क्रिया कहते हैं। मनुष्य की आंख अरु है। अर्थात् घाव वाली है। इसमें हमेशा पानी चूता रहता है। गीदड़ (कीचड़) आती रहती है। अतः यह घाव की तरह है। "अरुर्वेपुरुस्याक्षि। याज्ञवल्क्यक कहते हैं- मेरी आंखों में शांति हो जाये। आंखों का घाव मिट जाये। आंखों में ठंडक आ जाये। बस यही अंजन डालने का कारण है। "प्रशान मम्"-इति ह स्याह याज्ञवल्क्यः। याज्ञवल्क्यक इसी का स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं- यह आंखें दुरक्ष की तरह ही हैं। अर्थात बिना अंजन के आंखें खराब ही रहतीं हैं। इसीलिए आंखों का मल और दुर्गंध पूय (अपवित्र) अपवित्र है- उसको निकालना है- पूयो हैवास्य दूषिका इसीलिए "दूषिका नेत्रयोर्मलम"। पूय असुर भाव है। यजमान देवताओं में मिलने जा रहा है, अतः इस अरू भाव को नष्ट करके ही दीक्षा लेना चाहिए। "ते एवैतदनरुषकरोति यदक्षयावानक्ति"। अंजन लगाने का प्रयम कारण तो यही है। किंतु इसका वैज्ञानिक गूढ़ रहस्य कुछ और ही है। हमारे मुख भाग में, बाईं ओर जो कि परमेष्टि मंडल है, में असुर रहते हैं। देव प्राण भी रहते हैं। परमेष्टि का जो प्राण है, वह असुर है और सूर्य का जो प्राण है वह देव है। सूर्य कहते हैं विष्णु हरि को और असुर कहते हैं वरुण को। वरुण रात्रि है। विष्णु दिन हैं। आती हुई श्वास विष्णु या मित्र है और जाती हुई श्वांस वरुण है। प्रकाश के धक्के से अंधकार भाग जाता है। सूर्य के निकलते ही रात्रि की विदाई हो जाती है। उसी प्रकार हमारे शरीर में जो अंधकार रूपी असुर घुसे हुए हैं, उनको नष्ट करने के लिए ही अंजन लगाया जाता है। प्रकाश का नाम देवता है| हम बता चुके हैं। छाया (परछाई) जो हमारे चारों ओर रहती है शुष्ण (असुर) है। परछाईं से भी तो डर जाते हैं। तो असुर ही तो डर है। किंतु इस परछाई को जब प्रकाश धक्के मारता है, तो वह छाया भाग जाती है। नेत्र और सूर्य में सीधा सामन्जस्य है। सूर्य की किरणें सीधी पड़ती हैं। नेत्रों की रोशनी भी सीधी पड़ती है। नेत्र का निर्माता प्राण इंद्र है। और अक्षि (नेत्र) को वृत्र (वृत्रासुर) कहा गया है। इंद्र ने वृत्र को मारा। अथवा गिराया। केवल नेत्र में ही नहीं इंद्र प्राण तो गर्भावस्था की प्रथम अवस्था में भी है। सोना, चांदी, तांबा और शहत (शहद) इत्यादि जितने भी पदार्थ हैं, वे सारे के सारे सूर्य इंद्र से ही निसृत होते हैं। हमारी कनीनिका (पुतली) किस प्रकार से काम करती है। संक्षेप में देखें- हमारे सामने यदि कोई मनुष्य खडा़ होता है, तो उसकी जो कृष्ण कनीनिका है, उसमें हमारा पाम्मा (परछाईं) छाया पुरूष छोटे से छोटे बच्चे के आकार में घुस जाता है। यह परछाई (काला असुर), प्रकाश (देवता) का धक्का खाकर कृष्ण कनीनिका में जा घुसता है। मित्रो, यज्ञ स्थल पर आंख के आपरेशन के विज्ञान पर हम आगे विस्तार से चर्चा करेंगे। यज्ञ में मृग चर्म बिछाने और आंखों में डाभ (दूर्वा) लगाने का क्या विज्ञान है, उस पर भी प्रामाणिक जानकारी साझा करेंगे। किंतु आज बस यहीं तक। तब तक विदा। धन्यवाद।