आत्म संतुष्टि : हमारा हर काम आत्म संतुष्टि के लिए होता है| P अतुल विनोद 


स्टोरी हाइलाइट्स

Whatever we do in this world, we do it for self gratification. Our interest lies behind everything that is done in the interest of others.

आत्म संतुष्टि : हमारा हर काम आत्म संतुष्टि के लिए होता है| P अतुल विनोद  इस संसार में हम जब भी जो भी कुछ करते हैं वो आत्म संतुष्टि के लिए करते हैं|  दूसरों के हित में किए जाने वाले हर काम के पीछे हमारा ही हित छुपा रहता है|  यदि हम किसी की सहायता करते हैं तब भी वह हमारी ही आत्म संतुष्टि के लिए होता है|  क्योंकि हमें लगता है कि दूसरों की सहायता से हमें पुण्य का लाभ मिलेगा|  लाभ ही हमारे हर एक काम के पीछे की वजह है|  बिना लाभ के हम कोई कदम नहीं उठाते| एक व्यक्ति समाज सेवी है तो वह इसलिए समाजसेवी है क्योंकि उसे इससे आत्म संतुष्टि मिलती है|  समाजसेवी बनकर  उसका अहंकार संतुष्ट होता है|  किसी को जन कल्याण से संतुष्टि मिलती है|  कोई दूसरों को सुखी करके संतुष्ट होता है तो कोई दूसरों को दुखी करके|  हमारा भला और बुरा करने का व्यवहार हमारी आत्म संतुष्टि से जुड़ा हुआ है| आत्म संतुष्टि क्या है?   “सेल्फ सेटिस्फेक्शन”   जिसके पीछे पूरी दुनिया भाग रही है|  यह एक तरह का फल है जिसकी कामना हर एक कार्य के पीछे होती है| फल के बिना परिश्रम कैसा?  किसी के छोटे-मोटे काम करके हम उस पर एहसान थोपते हैं| लेकिन एहसान किस बात का? क्या हम तब भी उसका भला करते जब हमें आत्म संतुष्टि नहीं मिलती? यह बात अलग है कि किसी के भले से मिलने वाली आत्म संतुष्टि किसी के बुरे करने से  मिलने वाली तृप्ति से बेहतर होती है| इस सच्चाई को यदि हम स्वीकार कर ले कि हमारे हर कर्म के पीछे आत्म संतुष्टि छिपी हुई है तो हम कभी भी किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखेंगे| क्योंकि हम भला करके उसके फल के रूप में आत्म संतुष्टि प्राप्त कर चुके हैं|  इसलिए उससे दूसरी अपेक्षा क्यों पाली जाए? हमने किसी की किसी भी रूप में मदद की| हमें उससे आत्म संतुष्टि मिल गई  हिसाब बराबर हुआ| इसके बाद हमारे मन में यह भाव नहीं आना चाहिए कि हमने  कोई महान काम कर दिया|  हमने उसका कल्याण और भलाई कर दी| हमने  मुफ्त में उसकी सहायता कर दी| किसी की भलाई के पीछे यदि हमारी आत्म संतुष्टि नहीं है तो निश्चित रूप से यह दूसरे के ऊपर उपकार हो गया|  तब हम उससे बदले में कुछ अपेक्षा कर सकते हैं|  हालांकि ऐसा बहुत कम होता है कि हम बिना आत्म संतुष्टि की कामना किए किसी की किसी भी तरह से सहायता करें|  हमारे उपदेश किसी का भला करें या ना करें, लेकिन उससे हमें आत्म संतुष्टि मिलती है, इसलिए उपदेशक कभी यह न सोचे कि उसने मुफ्त में ही दूसरों को ज्ञान दिया| यदि हम किसी की प्रशंसा करते हैं, तो भी हम आत्म संतुष्टि ही चाहते हैं, किसी दूसरे की खुशी में हमें संतुष्टि मिलती है| आत्म संतुष्टि  की कामना कोई गुनाह नहीं, हम मनुष्य है इसलिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमारी कोई न कोई कामना जरूर होती है| हम संतुष्ट होने के लिए चाहे जो भी कुछ करें, उसमें पहली भावना तो दूसरों के कल्याण और सहायता की हो, और दूसरी भावना, उसके बदले सिर्फ और सिर्फ आत्म संतुष्टि पाना ही हो| यदि हम आत्म संतुष्टि पाने के बावजूद भी दूसरों से और ज्यादा उम्मीद रखते हैं तो यह अपने ऊपर एक नया ऋण चढ़ाने की तरह है|  होता ऐसा ही ही किसी का भला करके आत्म संतुष्ट होने के बाद भी हम उससे धन्यवाद प्रशंसा की अपेक्षा रखते हैं हम यह भी उम्मीद करते हैं कि वह ठीक उसी तरह से हमारी मदद भी करे|  जब वह ऐसा नहीं करता तो हम उसकी बुराई करने लग जाते हैं और  उस पर एहसान जताते हैं|