श्रीकृष्ण की जरासंध आदि से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं थी, श्रीकृष्ण ने पाण्डवों का साथ क्यों दिया.. दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

आज हम चर्चा करेंगे कि द्वापर युग में भगवान् श्रीकृष्ण ने जरासंध और उसके साथियों का विनाश क्यों किया. उनकी इन लोगों से क्या दुश्मनी थी ..

श्रीकृष्ण की जरासंध आदि से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं थी, श्रीकृष्ण ने पाण्डवों का साथ क्यों दिया.. दिनेश मालवीय आज हम चर्चा करेंगे कि द्वापर युग में भगवान् श्रीकृष्ण ने जरासंध और उसके साथियों का विनाश क्यों किया. उनकी इन लोगों से क्या दुश्मनी थी ? उन्होंने पाण्डवों का साथ क्यों दिया ? उन्होंने अनेक अवसरों पर छल का सहारा क्यों लिया ? आधुनिक युग में जिन लोगों ने धर्मग्रंथों का अध्ययन नहीं किया है या आधा-अधूरा अध्ययन किया है, उनके मन में ये सारे प्रश्न हमेशा बने रहते हैं. श्रीकृष्ण सर्वोच्च चेतना से सम्पन्न पूर्ण पुरुष थे. उन्हें पूर्णब्रह्म माना जाता है. उनकी पूर्णता ऎसी है कि वे कभी कुछ गलत या अनुचित कर ही नहीं सकते. जहाँ उनका कोई कृत्य अनीतिपूर्ण या अनुचित लगता है, उसे सही सन्दर्भ में देखने पर वह उचित प्रमाणित होता है. उनकी किसी से दुश्मनी की बात छोडिये, उनके मन में किसी के प्रति बुरा भाव तक नहीं था. जो भी उनसे दुश्मनी रखते थे, वह एकतरफा थी. सहज ही प्रश्न उठता है कि जब उनकी किसीसे दुश्मनी थी ही नहीं, तो उन्होंने बीसियों राक्षसों और अनेक राजा को क्यों मारा और मरवाया ? दरअसल, श्रीकृष्ण का अवतरण धर्म यानी सत्य की प्रतिष्ठा और अधर्म यानी असत्य का विनाश करने के लिए हुआ था. उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य ही यही था. इस परम पवित्र उद्देश्य की पूर्ति में जो भी बाधक बना या बन सकता था, उसे उन्होंने समाप्त कर दिया. इस विषय को पूरी तरह समझने के लिए उस समय की राजनैतिक परस्थितियों को समझना ज़रूरी है. उस समय भारतवर्ष के विभिन्न कोनों में ऐसे राजाओं का वर्चस्व बढ़ गया था, जो पूरी तरह आततायी थे. उन्हें लगता था कि वे ही इस पृथ्वी के स्वामी हैं और सारे सुख-साधन प्राप्त करने का एकमात्र अधिकार उनका ही है. वे जैसा चाहें सभी वैसा ही करें. वे जैसा करना चाहें उसे पूरी आजादी से करने दिया जय. धर्म, नैतिकता, मानवता जैसे महान गुणों से वे पूरी तरह रहित थे. इन सभी में मगध नरेश जरासंध सबसे बलशाली और अजेय योद्धा और विस्तारवादी राजा था. उसका सैन्यबल इतना बड़ा और अविजित था कि उसने काशी, कोसल, चेदि,मालवा, विदेह, अंग, वांग, कलिंग, पांड्य. सौवीर, मद्र,गांधार आदि जैसे विशाल साम्राज्यों को अपनी शक्ति से कुचलकर उन्हें अपने अधीन कर लिया था. मथुरा का बहुत बलवान राजा कंस उसका दामाद था. उसने अपनी दो पुत्रियों का कंस के साथ विवाह किया था. जरासंध के साथियों में मथुरापति कंस, चेदिराज शिशुपाल, कलिंग का प्रबल राजा पोंड्र, कामरूप का राजा दन्तवक्र, भीष्मक पुत्र रुक्मी, आदि प्रमुख थे. ये सभी पूरी तरह आततायी और अधर्म के मार्ग पर चलने वाले थे. जरासंध का वैसे तो हर उस व्यक्ति से बैर था, जो नीति और धर्म की बात करता हो,लेकिन श्रीकृष्ण से उसने व्यक्तिगत दुश्मनी इसलिए पाली, क्योंकि उन्होंने उसके दामाद मथुराधिपति कंस का वध किया था. उसे यह भी लगा कि श्रीकृष्ण के मन में उसका भय क्यों नहीं था.इन सभी राजाओं को हस्तिनापुर के युवराज दुर्योधन और सिन्धु नरेश जयद्रथ जैसे लोगों का भी समर्थन मिल गया, जो कोढ़ में खाज साबित हुआ. जरासंध ने 17 बार मथुरा पर आक्रमण कर श्रीकृष्ण और उनके बड़े भाई बलराम से युद्ध किया. वह पाराजित तो होता रहा, लेकिन श्रीकृष्ण ने उसका वध नहीं किया और न बलराम को करने दिया. इसका कारण यह था कि जरासंध की मृत्यु उनके हाथों होनी ही नहीं थी. उसके आक्रमणों के चलते ही श्रीकृष्ण ने द्वारकापुरी में बसने का कदम उठाया. आगे चलकर श्रीकृष्ण ने महाबली भीमसेन के हाथों उसका वध करवा दिया. जरासंध ने उससे सहमति नहीं रखने वाले राजाओं को युद्ध में परास्त कर बंदी बना लिया. उसकी योजना ऐसे सौ बंदी राजाओं की बलि देकर और अधिक शक्तिशाली बनने की थी. उसके कारागार में 86 राजा बंदी हो चुके थे. बस 14 राजा और मिल जाने पर वह 100 राजाओं की बलि दे देता. लेकिन इसके पहले ही श्रीकृष्ण ने अपनी बुद्धिमत्ता और चतुराई से भीमसेन के हाथों उसे मरवा दिया. यदि ऐसा नहीं होता तो इन्द्रप्रस्थ नरेश युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ नहीं करवा पाते. इसके अलावा जरासंध और उसके साथी राजा कौरवों के पक्ष में युद्ध करते, जिसके कारण पाण्डवों की विजय बहुत मुश्किल होती. श्रीकृष्ण ने धर्म के मार्ग में बहुत बड़े बाधन बने हुए चेदिराज शिशुपाल का भी इन्द्रप्रस्थ की सभा में वध करके पाण्डवों के भविष्य को काफी कुछ सुरक्षित कर दिया. कलिंग का राज स्वयं को असली कृष्ण कहता था और खुद को पुजवाने में विश्वास रखता था. उसका आदेश था कि उसके राज्य में जो भी उसकी पूजा नहीं करेगा, वह मृत्युदंड का भागी होगा. श्रीकृष्ण ने पोंड्र का वध करके धर्म के मार्ग का एक और काँटा निकाल दिया. यदि वह जीवित रहता तो निश्चित ही कौरवों के पक्ष में युद्ध करता. इस प्रकार हम देखते हैं कि उपरोक्त सभी आततायी राजा अपने दुष्कर्मों और अहंकार के कारण ही मारे गए. श्रीकृष्ण की उनसे कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं थी. इसके उलट वे सभी के हितैषी हैं. उनके हाथों मारा जाने वाला कोई भी व्यक्ति उनके लोक को प्राप्त होता है. वह किसीको भी मरते नहीं, तारते हैं. अक्सर प्रश्न उठाया जाता है कि यदि श्रीकृष्ण भगवान् का अवतार थे तो उन्होंने पाण्डवों का पक्ष क्यों लिया ? उन्होंने पाण्डवों को जिताने के लिए अनेक बार छल का सहारा क्यों लिया? इसका उत्तर स्वयं श्री कृष्ण की एक बात से मिल जाता है. उन्होंने एक बार अर्जुन से कहा था कि तुम मेरी बुआ के पुत्र और मित्र अवश्य हो, लेकिन मैंने तुम्हारा साथ इस नाते नहीं दिया. यदि तुम लोग धर्म के मार्ग पर नहीं होते, तो मैं तुम्हारे पक्ष में बिल्कुल खड़ा नहीं होता. मैं वास्तव में धर्म के पक्ष में खडा हुआ, तुम्हारे पक्ष में नहीं. युद्ध के दौरान अनेक ऐसे अवसर आये, जब पाण्डव पराजय की कगार पर पहुँच गए. श्रीकृष्ण ने अपरिहार्य होने पर छल का सहारा लेकर उनकी विजय का मार्ग प्रशस्त किया. भीष्म पितामह के जीवित रहते, पाण्डव किसी भी तरह युद्ध जीत ही नहीं सकते थे. उन्हें मारना असंभव था. श्रीकृष्ण ने युक्ति का सहारा लेकर शिखंडी को अर्जुन के रथ पर आगे खड़ा कर दिया. पितामह का प्रण ठा कि स्त्री के सन्मुख होने पर वह अपने सहस्त्र त्याग देंगे. यही हुआ. शिखंडी को सामने देखकर पितामह ने शस्त्र त्याग दिए. श्रीकृष्ण ने अर्जुन को प्रेरित कर उसके हाथों पितामह का वध करवा दिया. इसी तरह द्रोणाचार्य की अजेय थे. श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से झूठ बुलवाकर गुरु द्रोण का वध करवा दिया. इसी तरह अर्जुन द्वारा जयद्रथ का वध करवाने के लिए उन्होंने कुछ समय के लिए सूर्य को छिपाकर संध्या होने का आभास पैदा किया. और भी अनेक ऐसे प्रसंग आये, जब श्रीकृष्ण ने ऐसे कार्य किये, जिन्हें आमतौर पर छल या अनीति कहा जा सकता है. श्रीकृष्ण को ऐसा क्यों करना पड़ा, यह उन्होंने स्वयं स्पष्ट किया.भीष्म पितामह जब शरशैया पर लेते थे तो उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रश्न किया कि उन्होंने भगवान् होते हुए भी छल का सहारा क्योंलिया? श्रीकृष्ण ने कहा कि,” क्या मैं धर्म को पराजित हो जाने देता? अधर्म को जीत जाने देता? जिस युद्ध में और इसके पहले के घटनाक्रम में कौरवों द्वारा सारी नैतिकता का त्याग कर दिया ज्ञा था. ऎसी स्थिति में उन्हें हर हालत में मारना अनिवार्य था. भले ही इसके लिए कुछ भी करना पड़े. ” इस तरह श्रीकृष्ण ने जब भी जो भी किया सब धर्म की रक्षा और अधर्म के विनाश के लिए किया.