सोलह आने खरे श्रीकृष्ण का सोलह के आंकड़े से सम्बन्ध -दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

सोलह आने खरे श्रीकृष्ण का सोलह के आंकड़े से सम्बन्ध -दिनेश मालवीय भगवान श्रीकृष्ण को भगवान का पूर्ण अवतार माना जाता है. इसीलिए उनको पूर्ण ब्रह्म और पूर्ण परमेश्वर भी कहा जाता है. उनमें सोलह कलाएं यानी दुर्लभतम विशेषताएं थीं, उनकी सोलह हजार रानियाँ थीं, गोकुल में उनके साथ सोलह हज़ार गोपियाँ थीं. साथ ही उनके सोलह प्रमुख सखा थे. इस प्रकार सोलह का आंकड़ा उनके साथ विशेष रूप से जुड़ा है.यह बात भी उल्लेखनीय है कि भगवान विष्णु के पार्षद भी सोलह ही हैं. श्रीकृष्ण हर दृष्टि से सोलह आने खरे हैं. श्रीकृष्ण जब गोकुल में बाल लीलाएं कर कर रहे थे, तो सारा गोकुलधाम ही उन्हें अपना सबसे प्रिय मानता थाश्रीकृष्ण के साथ अपनेपन का सबसे बड़ा कारण यह था कि वह ब्रजमंडल के मुखिया के पुत्र होने के बावजूद किसीके साथ भेदभाव नहीं करते थे.सभी लड़के और गोप उनके मित्र थे. लेकिन उनके सबसे ख़ास मित्र सोलह थे. इनमें मनसुखा आदि का नाम तो अधिकतर लोगों ने सुना है. लेकिन उसके सभी सखाओं के नाम बहुत कम लोग जानते हैं. उनके सोलह प्रमुख सखाओं के नाम हैं- मधुकांत, मधुवर्त, रसाल, विशाल, प्रेमकंद, मकरंद, सदानंद, चंद्रहास, पयद, वकुल, रसदान, शारद और बुद्धिप्रकाश,रक्तक,पत्रक और पत्री. ये सभी बहुत बुद्धिमान और चतुर थे और श्रीकृष्ण पर जान छिडकते थे. उनकी आज्ञा का पालन करते थे और उनकी सेवा का कोई अवसर नहीं चूकते थे. ये सभी सखा श्रीकृष्ण को मित्रवत मानते हुए भी उनकी अलौकिक कार्यों के कारण उन्हें पाना नेता मानते थे, हालाकि श्रीकृष्ण ने कभी उनपर कोई रौब गाँठने की कोशिश नहीं की. इसी प्रकार श्रीकृष्ण को सोलह कलाओं से युक्त माना जाता है. वस्तुत: ये सभी वे गुण हैं, जो एक ही व्यक्ति में होना प्राय: असंभव होता है. उनकी सोलह सम्पदाएँ हैं- 1. श्री यानि समृद्धि. श्रीकृष्ण के पास सुख-समृधि के अपार साधन थे. 2. भूमि यानी बड़े भू-भाग पर अधिकार. वह द्वारिकाधीश थे. उस समय द्वारिका पूरे आर्यावर्त में सबसे सशक्त्रतऔर समृद्ध राज्य था. 3. कीर्ति यानी प्रसिद्धि. श्रीकृष्ण के कर्म इतने अलौकिक थे कि उनकी ख्याति दूर-दूर तक व्याप्त थी. यह हजारों वर्ष बाद भी उतनी ही है. 4. वाणी सम्मोहन. इस कला में तो उनके बराबर कोई था ही नहीं. उनकी वाणी में ऐसा सम्मोहन था कि उसे सुनकर कोई भी सम्मोहित हुए बिना नहीं रह सकता था. 5. लीला. श्रीकृष्ण को लीलापुरुष ही कहा जाता है. लीला का अर्थ दरअसल यह है कि वह जो कुछ भी करते थे, उसमें कर्तापन का भाव होता था. पूरे जगत और जीवन को वह लीला मानते थे और यही शिक्षा उन्होंने हमें भी दी है.   6.कांति अर्थात तेज. उनके मुखमंडल पर इतना दिव्य तेज था कि उसकी आभा दूर-दूर तक व्याप्त रहती थी. 7. विद्या. श्रीकृष्ण सभी 14 विद्याओं में निपुण थे, जो उन्होंने उज्जैन में गुरु संदीपनी से सीखी थीं.   8. विमलता यानी किसीको हानि पहुँचाने के लिए छल-कपट का न होना. अनेक बार उन्हें सत्य की रक्षा के लिए छल का सहारा लेना पड़ा, लेकिन उनका उद्देश्य कभी किसीको हानि पहुँचाना नहीं रहा. वस्तुत: वह पूरी तरह छ्लरहित थे. 9. उत्कर्षणी शक्ति यानी दूसरों को प्रेरित करने की क्षमता. उनमें दूसरों को प्रेरित करने की क्षमता बचपन से ही थी. अपने कर्तव्य से विमुख हुए अर्जुन को उन्होंने कर्म के लिए प्रेरित किया. 10. नीर-क्षीर विवेक यानी बात को सही सन्दर्भ और परिप्रेक्ष्य में समझने की क्षमता. उनमें हर विषय को सही-सही समझने की अद्भुत क्षमता थी. जिस बात को समझने में बड़े-बड़े ज्ञानी बहुत समय लगाते थे, वह उसे एक पल में समझ लेते थे. 11. कर्मठता यानी कर्मशीलता. यह तो उनका प्रमुख गुण है. वह सदा कर्मशील रहे और उन्होंने कर्म का ही सन्देश दिया है. 12. योगशक्तियानी योग की सभी विभूतियों से युक्त. श्रीकृष्ण योगेश्वर हैं. योग की साड़ी विभूतियाँ उनमें हैं. योगमाया उनकी आज्ञा का पालन करती है. 13.विनय यानी विनम्रता. श्रीकृष्ण सदा बहुत विनम्र रहते रहे. इतनी अपार शक्तियों के स्वामी होने के बावजूद उन्होंने किसीका अपमान नहीं किया और गुणीजन के सामने सदा नतमस्तक रहे. 14. सत्य की धारणा यानी सत्य को धारण करना. उन्होंने जीवन भर सत्य को धारण किया और सदा सत्य का ही पक्ष लिया. उनके लिए इस बात का कोई महत्त्व नहीं था कि कोई उनका क्या है. यदि वह सत्य हो तो वह उसके साथ थे और अगर गलत हो तो वह उसका साथ कभी नहीं देते थे. 15. आधिपत्य यानी किसी पर जोर-जबरदस्ती से अधिकार न ज़माना. श्रीकृष्ण के जीवन में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता कि उन्होंने किसी पर जोर जबरदस्ती कर उसका कुछ छीन लिया हो या उस पर अधिकार कर लिया हो. 16. अनुग्रह यानी दूसरों पर कृपा कर उनका कल्याण करना. श्रीकृष्ण परम कृपालु हैं. वह सदा दूसरों पर अनुग्रह करते हैं. यहाँ तक कि जिन राक्षसों को उन्होंने मारा, वे भी तर गये. श्रीकृष्ण को लोग प्रे से और कुछ लोग द्वेषवश छलिया कहते हैं. उन्होंने यदि कोई ऐसा कार्य किया जो सामान्य भाषा में छल कहा जाता है, तो उसका उद्देश्य जन-कल्याण और सत्य की रक्षा ही था. उनके जीवन में अनेक ऐसे अवसर आये जब, उन्हें इस प्रकार से लोककल्याण और सत्य की रक्षा करनी पड़ी. यदि वे ऐसा नहीं करते तो आसुरी शक्तियों की विजय निश्चित थी. जहाँ तक श्रीकृष्ण की सोलह हजार रानियों का प्रश्न है तो, इसे सही सन्दर्भ और अर्थ में समझना पड़ेगा. वैसे तो उनकी सिर्फ आठ रानियाँ थीं- रुक्मणि, जाम्बवंती, सत्यभामा, कालिंदी, मित्रविन्दा, सत्य, भद्र और लक्ष्मणा. लेकिन लोकप्रचलित बात यह है कि इनके अलावा उनकी 16 हज़ार रानियाँ और थीं. पुराणों में उल्लेख आता है कि ब्रह्माजी से वरदान पाकर नरकासुर नाम का एक भयानक असुर बहुत आततायी हो गया. उसने अमर होने के लिए 16 हजार कन्याओं की बलि चढाने का निश्चय कर उन्हें बंदी बना लिया. श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा के साथ उसकी नगरी में जाकर उससे युद्ध किया और उसे परास्त कर मार डाला. उसके द्वारा बलि के लिए बंदी बनायी गयीं 16 हज़ार कन्याओं को उन्होंने मुक्त कर उन्हें अपने घर जाने को कहा. उन कन्याओं ने कहा कि हमें तो हमारे परिवार वालों ने त्याग दिया है. कुछ ने कहा कि यहाँ बंदी रहने के बाद उनके परिवार वाले उन्हें वापस नहीं लेंगे. अब तो आप ही हमारे स्वामी हैं. हम मन ही मन आपको ही अपना पति मान बैठी हैं. पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण ने 16 हज़ार रूप धर कर उनसे विवाह कर उन्हें पत्नी का दर्जा दिया. इस प्रकार तकनीकी रूप से भले ही यह कहा जाए कि उनकी सोलह हज़ार रानियाँ थीं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वे उनके साथ उनकी पत्नियों के रूप में रहती थीं. वस्तुत: श्रीकृष्ण के जीवन और उनकी लीलाओं को समझना मनुष्य के वश की बात नहीं है. यह और बात है कि वह यदि किसीको समझाना चाहें तो उसे समझ आ जाता है. फिर वह उनका ही दीवाना होकर रह जाता है.