तालाब नहीं - ये हैं भारत के पारस पत्थर


स्टोरी हाइलाइट्स

आज भी खरे हैं तालाब |
River-Newspuran
कूडन, बुढ़ान, सरमन और कूड़न ये चार भाई। चारों सुबह जल्दी उठकर अपने खेत पर काम करने जाते। दोपहर को कूड़न की बेटी आती पोटली में खाना लेकर।

एक घर से खेत जाते समय बेटी को एक नुकीले पत्थर से ठोकर लग गई। उसे बहुत गुस्सा आया। उसने अपनी दाँती से उस पत्थर को उखाड़ने की कोशिश की। पर लो, उसकी दाँती तो पत्थर पर पड़ते ही लोहे से सोने में बदल गई और फिर बदलती जाती है इस लंबे किस्से की घटनाएँ बडी तेजी से। पत्थर उठाकर लड़की भागी-भागी खेत पर आती है। अपने पिता और चाचाओं को सब कुछ एक साँस में बता देती है। चारों भाइयों की सांस भी अटक जाती है। जल्दी-जल्दी सब घर लौटते हैं। उन्हें मालूम पड़ चुका है कि नके हाथ में कोई साधारण पत्थर नहीं है. पारस है। वे लोहे की जिस चीज को छूते हैं, वह सोना बनकर उसकी आँखों में चमक भर देती है।

पर आँखों की यह चमक ज्यादा देर तक नहीं टिक पाती कूड़न को लगता है कि देर सवेर राजा तक यह बात पहुँच ही जाएगी और तब पारस छिन जाएगा। तो क्या यह ज्यादा अच्छा नहीं होगा कि वे खुद जाकर राजा को सब कुछ बता दें।

किस्सा आगे बढ़ता है। फिर जो कुछ घटता है, वह लोहे को नहीं बल्कि समाज को पारस से छुआने का किस्स बन जाता है। राजा न पारस लेता है, न सोना। सब कुछ कूड़न को वापस देते हुए कहता है, "जाओ, इससे अच्छे अच्छे काम करते जाना, तालाब बनाते जाना।"
यह कहानी सच्ची है, ऐतिहासिक है- नहीं मालूम। पर देश के मध्य भाग में एक बहुत बड़े हिस्से में यह इतिहास का अंगूठा दिखाती हुई लोगों के मन में रमी हुई है।

River-Newspuran-02यहाँ के पाटन नामक क्षेत्र में चार बहुत बड़े तालाब आज भी मिलते है और इस कहानी के इतिहास की कौटी पर कसने वालों को लजाते है- चारों तालाब इन्ही  भाइयों के नाम पर है। बुझाकर में बू सागर है, मझगवाँ में सरमन सागर है, कुआँग्राम में कूड़न सागर है। तथा कंडम गाँव में कंडोम सागर। सन् 1907 में गजेटियर के माध्यम से इस देश का 'व्यवस्थित' इतिहास लिखने घूम रहे अंगरेज ने भी इस इलाके में कई लोगों से यह किस्सा सुना था और फिर देखा-परखा था इन चार बो। तालाबों को तब भी सरमन सागर इतना बड़ा था कि उसके किनारे पर तीन बड़े-बड़े गाँव बसे थे और तीनों गौर इस तालाब को अपने-अपने नामों से बाँट लेते थे पर वह विशाल ताल तीनों गांवों को जोडना सागर की तरह स्मरण किया जाता था। इतिहास ने सरमन, बुदान, कोराई और कूड़न को याद नह रखा इन लोगों ने तालाब बनाए और इतिहास को उनके किनारे पर रख दिया था।

देश के मध्य भाग में ठीक हृदय में धड़काने वाला यह किस्सा उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम-ना किसी न किसी रूप में फैला हुआ मिल सकता है और इसी के साथ मिलते हैं, सैकड़ों, हजारों तालाৰ कोई ठीक गिनती नहीं है। इन अनगिनत तालाबों को गिनने वाले नहीं, इन्हें तो बनाने वाले लोग आते रहे तालाब बनते रहे। किसी तालाब को राजा ने बनाया तो किसी को रानी ने, किसी को किसी साधारण गृहस्थ ने, विधवा के बनाया तो किसी को किसी असाधारण साधु-संत ने- जिस किसी ने भी तालाब बनाया, वह महाराज या महत्म ही कहलाया। एक कृतज्ञ समाज तालाब बनाने वालों को अमर बनाता था और लोग भी तालाब बनाकर मार के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते थे।
समाज और उसके सदस्यों के बीच इस विषय में एक ठीक तालमेल का दौर कोई छोटा दौर नहीं पा। एकदम महाभारत और रामायण काल के तालाबों को अभी छोड़ दें तो भी कहा सकता है कि कोई पाँचव से पन्द्रहवीं सदी तक देश के इस कोने से उस कोने तक तालाब बनते ही चले आए थे। कोई एक हजार वर्ष तक अबाध गति से चलती रही इस परंपरा में पन्द्रहवीं सदी के बाद कुछ बाधाएँ आने लगी थी, पर उस दौर में में यह धारा पूरी तरह से रुक नहीं पाई, सूख नहीं पाई। समाज ने जिस काम को इतने लंबे समय तक बहुत व्यवस्थित रूप से किया था, उस काम को उथल-पुथल का वह दौर भी पूरी तरह से मिटा नहीं सका। अठारी और उन्नीसवीं सदी के अंत तक भी जगह-जगह पर तालाब बन रहे थे। लेकिन फिर बनाने वाले लोग धीरे-धीरे कम होते गए। गिनने वाले कुछ जरूर आ गए, पर जितना बड़ा काम था, उस हिसाब से गिनने वाले बहुत है कम थे और कमजोर भी। इसलिए ठीक गिनती भी कभी हो नहीं पाई। धीरे-धीरे टुकड़ों में तालाब गिने गए पर सब टुकड़ों का कुल मेल कभी बिटाया नहीं गया। लेकिन इन टुकड़ों की झिलमिलाहट समग्र चित्र की चमक दिखा सकती है।

लबालब भरे तालाबों को सूखे आंकड़ों में सभेटने की कोशिश किस छोर से शुरू करें? फिर से देश के बीच के भाग में वापस लौटें।

Saramdhann-Newspuran-01आज के रीवा जिले का जोड़ौरी गाँव है कोई 2500 की आबादी वर, लेकिन इस गाँव में 12 त इसी के आस-पास है ताल मैदान, आबादी है बस कोई 1500 की, पर 10 तालाब है गाँव में हर चीज के औसत निकालने वालों के लिए यह छोटा-सा गाँव आज भी 150 लोगों पर एक अच्छे तालाब की सुविध रहा है। जिस दौर में ये तालाब बने थे, उस दौर में आबादी और भी कम थी। यानी तब जोर इस बात पर पाकि अपने हिस्से में बरसने वाली हरेक बूंद इक्वी कर ली जाए और संकट के समय में आस-पास के क्षेत्रों में भी से बौट लिया जाए। वरुण देवता का प्रसाद गाँव अपनी अंजुली में भर लेता था और जहाँ प्रसाद कम मिलता है। वहाँ तो उसका एक कण, एक बूंद भी भला कैसे बगरने दी जा सकती थी। देश में सबसे कम वर्षा के क्षेत्र जैने राजस्थान और उनमें भी सबसे सूखे माने जाने वाले चार के रेगिस्तान में बसे हजारों गाँवों के नाम ही तालाब के आधार पर मिलते है। गाँवों के नाम के साथ ही जुड़ा है 'सर'। सर यानी तालाब। सर नहीं तो गाँव कहाँ? तो आप तालाब गिनने के बदले गाँव ही गिनते जाएँ|

जहाँ आबादी में गुणा हुआ और शहर बना, वहाँ भी पानी न तो उधार लिया गया, न आज के शहरों की तरह कहीं और से चुराकर लाया गया। शहरों ने भी गाँवों की तरह ही अपना इंतजाम खुद किया। अन्य शहरों की बात बाद में, एक समय की दिल्ली में कोई 350 छोटे-बड़े तालाबो का जिक्र मिलता है।
गाँव से शहर, शहर से राज्य पर आएँ। फिर रीवा रियासत लौटे। आज के मापदण्ड से यह पिछड़ा हिस्सा कहलाता है। लेकिन पानी के इंतजाम के हिसाब से देखें तो पिछली सदी में वहाँ सब मिलाकर कोई 5000 तालाब थे। नीचे दक्षिण के राज्यों को देखें तो आजादी मिलने से कोई सौ बरस पहले तक मद्रास प्रेसिडेंसी में 53,000 तालाब गिने गए थे। वहाँ सन् 1885 में सिर्फ 14 जिलों में कोई 43,000, इसी तरह मैसूर राज्य में उपेक्षा के ताजे दौर में, सन् 1980 तक में कोई 39,000 तालाब किसी-न-किसी रूप में लोगों की सेवा कर रहे थे। इधर उधर बिखरे ये सारे आँकड़े एक जगह रखकर देखे तो कल जा सकता है कि इस सदी के प्रारंभ तक आषाद के पहले दिन से भादों के अंतिम दिन तक कोई 1 या 12 लाख तालाव भर जाते थे और अगले जेठ तक वरुण देवता का कुछ-न-कुछ प्रसाद बाँटते रहते थे। क्योंकि लोग अच्छे-अच्छे काम करते जाते थे।