३३ प्रकार के साधुओ का अनोखा संसार : जाने क्या होते हैं दण्डी,परमहंस,ऊर्ध्वबाहु,करलिंगी,भूखर?


स्टोरी हाइलाइट्स

संन्यासियों के उप-सम्प्रदाय :

उप सम्प्रदाय साधुओं की तपस्या के कारण बने हैं

१. दण्डी - इस मत के साधु यात्रा में दण्ड और कमण्डल अपने साथ रखते हैं। दण्ड बांस का एक टुकड़ा होता है, जो गेरुआ कपड़े और पवित्र धागे से ढँका हुआ रहता है। निर्वाण तंत्र के अनुसार केवल ब्राह्मण दण्डी सम्प्रदाय में आ सकते हैं, वे किसी धातु की वस्तु और अग्नि को नहीं छूते। वे भिक्षा के लिए दिन में एक ही बार जाते हैं। बारह वर्ष अभ्यास के बाद वे परमहंस का जीवन अपना सकते हैं या अपनी इच्छा के अनुसार दण्डी ही रह सकते हैं।

.परमहंस- परमहंस के दो भेद हैं -

1. दण्डी परमहंस, और

2. अवधूत परमहंस।


3.दशनामी नागा - दशनामी नागा के जटा होती है और यह जटा तीन प्रकार की है - नागा जटा, शंभू जटा और बारबन। बाल यदि रस्सी की तरह गूंथे हुए हों और सांप की आकृति के समान लगते हों, उसे नागा जटा कहते हैं। शंभूजटा एक ढेले के समान होती है और बारबन शंभू जटा का छोटा रूप है।

४.अलेखिया - यह शब्द अलेख से आया है, जिसको भिक्षा माँगते समय संन्यासी कहता है। अलेख का अर्थ यह है कि जिसका लेखन न हो सके और जो वाणी और मानस से परे है। भिक्षा-पात्र या तो गणेश अथवा भैरव अथवा काली के सम्मानार्थ होता है। वे जो गणेश-भिक्षा पात्र रखते हैं, वे सुबह के समय भिक्षा मांगते हैं। जो भैरव भिक्षा-पात्र रखते हैं वे संध्या समय भिक्षा मांगते हैं, जो काला भिक्षा-पात्र रखते हैं वे अर्धरात्रि में भिक्षा मांगते हैं।

भिक्षा माँगते समय यह एक भित्र प्रकार का वस्त्र पहनते हैं, जिसे केलका और मातंगा कहा जाता है। विशेष प्रकार के आभूषणों गिरनार चल, तोरा, छल्ला आदि जो चाँदी, पीतल अथवा ताँबे के बने होते हैं, धारण करते हैं, वे अपनी कमर में छोटी-छोटी घंटियाँ भी बाँधते हैं, ताकि भिक्षा माँगते हुए लोगों का ध्यान आकर्षित हो सके।

५.डंगालि - ये संन्यासी भिक्षा नहीं माँगते किन्तु व्यापार करते हैं और जो धन कमाते हैं, उससे संन्यासियों को भोजन करवाते हैं।

६.अघोरी - ये बिल्कुल भिन्न प्रकार के संन्यासी है। ये समदृष्टि तत्व का अभ्यास करते हैं। ये शुभ या अशुभ वस्तुओं में भेद नहीं करते। ये भिक्षा पात्र के रूप में मानव-मुंड रखते हैं। वे शिव और शक्ति की उपासना करते हैं। भवभूति के नाटक 'मालती-माधव' से ज्ञात होता है कि ये चामुण्डा को, अपने किसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, खुश करने का प्रयास करते हैं।

७.ऊर्ध्वबाहु - ये संन्यासी अपने इष्ट को प्रसन्न करने के लिए अपने शरीर को सताते हैं। वे जो एक अथवा दोनों हाथ ऊपर उठाकर रखने की शपथ लेते हैं, वे ऊर्ध्वबाहु कहलाते हैं।

८.आकाशमुखी- ये संन्यासी अपने मुख को आकाश की ओर उठाये रखने की शपथ लेते हैं।

९.नखी - कुछ संन्यासी जो अपने नाखून नहीं काटने की शपथ लेते हैं, उन्हें नखी कहा जाता है।

१०.थारेश्वरी - कुछ संन्यासी जो रात और दिन खड़े रहने का व्रत लेते हैं, वे थारेश्वरी कहलाते हैं। वे खड़े-खड़े ही भोजन करते और नींद निकालते हैं।

११. उध्वर्मुखी - ये संन्यासी बहुत ही कठिन तपस्या करते हैं। वे अपने पैरों को ऊपर और सिर को नीचा रखते हैं। वे अपने पैरों को किसी वृक्ष की शाखा से बाँध देते हैं।

१२. पंचघुनी - ये संन्यासी चार दिशा में अग्नि प्रज्ज्वलित कर गर्मी के मौसम में बीच में बैठते हैं। वे पंचधुनी संन्यासी कहे जाते हैं।

१३.मौनव्रती - ये संन्यासी मौन व्रत रखने की शपथ लेते हैं।

१४.जलसाजीव - ये संन्यासी प्रातः से संध्या तक पानी में खड़े रहने की शपथ लेते है!

१५.जलधारा तपसी- ये संन्यासी एक गड्डा खोदकर उसमें बैठते हैं। ऊपर पानी का एक घड़ा रखते हैं जिसमें छेद होते हैं, जिसमें से पानी उनके ऊपर गिरता रहता है।

१६.करलिंगी - ये संन्यासी नग्न रहने की शपथ लेते हैं, इन्हें जितेन्द्रिय समझा जाता है।

१७.फलहारी - ये संन्यासी गेहूँ, जौ, चावल आदि से बने भोजन को न खाने की शपथ लेते हैं और वे केवल फलों पर रहते हैं। भोजन पर नियंत्रण उनके धर्म का एक अंग है।

१८. दुधारी- ये संन्यासी केवल दूध पर जीवित रहते हैं।

१९. अलूना - ये संन्यासी उसी भोजन को लेते हैं जिसमें नमक न हो। वे अलूना कहे जाते हैं।

२०. औघड़ - दशनामी संन्यासी जो ब्राह्मगिरी संन्यासी होते हैं और वे गोरखनाथ के अनुगामी होते हैं।

२१. गूदड़ - गूदड़ संन्यासी एक प्रकार का वस्त्र पहनते हैं जिसे केलका कहा जाता है। वे एक कान में छल्ला और दूसरे कान में ताँबे से बनी वस्तु को धारण करते है। मिक्षा के समय वे सुगन्धित वस्तु का प्रयोग करते हैं। इन संन्यासियों का कर्तव्य होता है कि वे किसी संन्यासी की मृत्यु के बाद क्रियाकर्म करें। मृत संन्यासी की वस्तुएं ये लोग लेते हैं।

२२. सुखर - इन संन्यासियों का कर्तव्य भी गूदड़ संन्यासियों की तरह है। वे भिक्षा के लिए नारियल से बने खप्पर का प्रयोग करते हैं और भिक्षा के समय सुगन्धित वस्तुएं जलाते हैं।

२३.रूखर - ये संन्यासी गूदड़ संन्यासियों की तरह ही होते हैं, किन्तु उनके रिवाजों में थोड़ा ही अन्तर होता है।

२४. कुखर - ये संन्यासी नये पात्र में ही भिक्षा लेते और पकाते हैं।

२५. भूखर - ये संन्यासी भिक्षा के समय सुगन्धित वस्तुएँ नहीं जलाते।

२६. अवधूत- कुछ स्थानों पर स्त्रियाँ संन्यासिन होती हैं। वे माला धारण करती हैं। माथे पर शैव चिन्ह अंकित करती हैं। तीर्थ यात्राओं पर जाती हैं और भिक्षा से जीवन यापन करती हैं।

२७.घरबारी संन्यासी - ये संन्यासी अपने परिवार के साथ रहते हैं, यद्यपि वे अपने को संन्यासी कहते हैं।

२८.टिकरनाथ - ये संन्यासी भैरव की पूजा करते हैं। टिकरा (मिट्टी का बना पात्र) का उपयोग करते हैं।

२९. त्यागी - ये संन्यासी भिक्षा नहीं माँगते। बिना माँगे जो मिल जाता है उसी पर गुजारा करते हैं। यदि कपड़े मिल जावें तो कपड़े पहनते हैं नहीं तो नग्न अवस्था में रहते हैं।

३०.अतुर संन्यासी - मृत्यु के समय किसी व्यक्ति को उसकी आत्मा को उठाने के लिए जब दीक्षा दी जाती है, ऐसे व्यक्ति को अतुर संन्यासी कहा जाता है।

३१. मानस संन्यासी - जब मनुष्य अपने घर को छोड़ देता है और साधु का जीवन बिताता है, उसे मानस संन्यासी कहा जाता है।

३२. अन्त संन्यासी - एक व्यक्ति जो एक स्थान पर बैठकर मृत्यु तक उपवास कर, ईश्वर के ध्यान में लगा रहता है, उसे अन्त संन्यासी कहते हैं।

३३. क्षेत्र संन्यासी - यदि कोई व्यक्ति संन्यासी जीवन बिताने की शपथ लेता है और मृत्यु तक किसी पवित्र स्थान पर रहता है, उसे क्षेत्र संन्यासी कहा जाता है।

३४. भोपा - ये संन्यासी भैरव की पूजा करते हैं। इनके लम्बे केश होते हैं। भिक्षा के समय अपनी कमर अथवा पैर में घण्टियाँ बाँधते हैं, नाचते हैं और भैरव की स्तुति में गीत गाते हैं।

३५. दसनामी भाट - यद्यपि यह दशनामी नहीं होते, किन्तु वे दशनामी से ही भिक्षा लेते हैं। वे संन्यासियों की परम्परा का हिसाब रखते हैं। आवश्यकता होने पर उसे बताते हैं। तीर्थ यात्रा पर जाते हैं। यद्यपि वे शिव के उपासक हैं, फिर भी सरस्वती के प्रति आदर की भावना रखते हैं।

३६. चन्द्रवत - ये घरेलू भिखारी होते हैं। वे अपने साथ गाय, बकरी, बन्दर आदि रखते हैं। कभी-कभी जादू के खेल द्वारा पैसा अर्जित करते हैं।

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