सिर्फ वोटों के लिए समर्थन या विरोध पतन की पराकाष्ठा


स्टोरी हाइलाइट्स

किसी देश में उसके कर्णधार जब किसी भी बात का विरोध या समर्थन सिर्फ अपने राजनैतिक लाभ के लिए करने लगें, तो यह उस देश के पतन की पराकाष्ठा है

-दिनेश मालवीय सिर्फ वोटों के लिए समर्थन या विरोध पतन की पराकाष्ठा किसी देश में उसके कर्णधार जब किसी भी बात का विरोध या समर्थन सिर्फ अपने राजनैतिक लाभ के लिए करने लगें, तो यह उस देश के पतन की पराकाष्ठा है. दुर्भाग्य से भारत में आज ऐसी ही स्थिति बन गयी है. ऐसा नहीं है कि पहले ऐसा नहीं था, लेकिन अब स्थिति बहुत नाज़ुक और चिन्ताजनक हो गयी है. कोई राजनैतिक दल यह नहीं सोचता कि किसी फैसले या कदम से देश को लाभ होगा या नुकसान; वह सिर्फ यह देखता है कि उसके पक्ष में बोलने पर वोट मिलेंगे कि विरोध में बोलने पर. नेताओं की भी यही स्थति है. वे सिर्फ अपनी पार्टी लाइन पर बोलते हैं, भले ही व्यक्तिगत रूप से वे किसी बात को सही मानते हों या गलत. ताजा उदाहरण नागरिकता संशोधन क़ानून का ही ले लें. कुछ दलों ने लोकसभा में इस बिल पर चर्चा के बाद इसका समर्थन किया था और राज्यसभा में अनुपस्थित रहकर परोक्ष रूप से उसके पारित होने में मदद की थी. लेकिन बाद में अपने राजनैतिक गुणा-भाग बैठाने के बाद उसका विरोध करने लगे. ऐसा नहीं है कि इस क़ानून के प्रावधानों को नेताओं और दलों ने पढ़ा नहीं हो या वे इस बात को नहीं जानते हों कि इसका भारत के अल्पसंख्यकों से कोई सम्बन्ध नहीं है, लेकिन फिर भी वे कह रहे हैं कि यह असंवैधानिक है. जब दोनों सदनों से यह बहुतमत से पारित हुआ है और राष्ट्रपति के दस्तखत के बाद क़ानून का रूप ले चुका है, तो फिर असंवैधानिक कैसे हुआ?  यह भी कहा जा रहा है कि यह क़ानून धार्मिक भेदभाव कर रहा है और भारत का संविधान सब धर्मों को सामान मानता है. लेकिन यह बात भारत के नागरिकों के लिए लागू होती है. इस क़ानून में तीन धर्म-आधारित देशों से धार्मिक प्रताड़ना के शिकार होकर भारत में आये वहाँ के अल्पसंख्यकों को भारत की नागरिकता दी जा रही है. वहाँ के जो बहुसंख्यक लोग भारत में रह रहे हैं, वे प्रताड़ित नहीं हैं. लेकिन अगर वे भारत की नागरिकता चाहते हैं तो इसके लिए निर्धारित प्रक्रिया है. वे आवेदन देकर उस प्रक्रिया से गुजर कर भारत के नागरिक बन सकते हैं. लेकिन इसे धार्मिक भेदभाव और संविधान विरोधी बताया जा रहा है. कहा जा रहा है कि इससे भारत टूट जाएगा. समझ में यह नहीं आ रहा कि इससे भारत कैसे टूट जाएगा? यह और बात है कि इसका गलत प्रचार करने से टूटने की स्थति पैदा हो जाये, लेकिन इस क़ानून में तो ऐसा कुछ है ही नहीं. इसके अलावा एन पी आर और एन आर सी को मुद्दा बनाया जा रहा है. इन कानूनों का अभी कोई स्वरूप ही सामने नहीं आया है. सूत न कपास जुलाहों में लट्ठमलट्ठ. पूरे देश में अराजकता जैसी स्थिति पैदा करने की कोशिश की जा रही है, और इसके लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है. छोटे-छोटे बच्चों तक में उन कानूनों को लेकर एक भय पैदा कर दिया गया है, जो अभी बने ही नहीं हैं. उनके प्रावधान क्या होंगे यह किसी को पता ही नहीं है. अब सुप्रीम कोर्ट ने प्रमोशन में आरक्षण के बारे में फैसला दिया है कि यह प्रमोशन देना राज्यों के लिए बाध्यकारी नहीं है. इस पर भी सभी दल सिर्फ वोटों के गुणा-भाग के आधार पर स्टैंड ले रहे हैं. इसके लिए भी सरकार को कठघरे में खड़ा किया जा रहा है, जबकि यह फैसला कोर्ट का है.इसके गुण-दोष पर लोकसभा और राज्यसभा में तर्कसंगत चर्चा हो, इसके सभी पहलुओं पर विचार किया जाए, सदन में सरकार की आलोचना की जाए, यह तो सही है, लेकिन फौरी तौर पर सिर्फ अपने राजनैतिक हित के लिए इसका विरोध या समर्थन करना वैचारिक और नैतिक पतन की पराकाष्ठा है. इन दो मुद्दों की चर्चा तो केवल मिसाल के तौर पर की गयी. किसी भी मुद्दे को ले लें, स्थिति यही है. जिस कदम का कोई दल विरोध करता है, उसकी ही राज्य सरकारें अक्सर वही कदम उठा लेती हैं. किसी काम को कोई एक दल करे तो सही और दूसरा करे तो गलत. भारत की आजादी के बाद दस-पन्द्रह साल के बाद ही राजनीति में जातिवाद और समुदायवाद शुरू कर दिया गया. किसी जगह से उसी जाति या समुदाय का उम्मीदवार खड़ा किया जाने लगा, जिसके लोग वहाँ ज्यादा रहते हों. कोई अपराध किसी जाति या वर्ग विशेष के व्यक्ति या व्यक्तियों ने किया हो तो सही, और किसी अन्य जाति या वर्ग के व्यक्ति या व्यक्तियों ने किया हो तो गलत. कोई सवर्ण अगर अवर्ण को जातिगत गाली दे तो उसे जेल जाना है, लेकिन यदि कोई अवर्ण किसी सवर्ण को जातिगत गाली दे तो कोई बात नहीं. इस तरह एक तरफ तो कहा जा रहा है कि देश से जाति व्यवस्था खत्म की जाए, और दूसरी ओर निर्णय और क़ानून जाति के आधार पर ही बनाये जा रहे हैं. यह कैसी विसंगति है! बेशक, अतीत में जो लोग या वर्ग जातिगत और अन्य ऐतिहासिक कारणों से पिछड़ गए, उन्हें संविधान में कुछ विशेष सुविधाएँ और रियायतें दी गयी हैं और उन्हें एक सीमा से आगे जारी रखना है या नहीं इस पर संसद में सार्थक और तर्कसंगत चर्चा की जानी चाहिए. रिवर्स डिस्क्रिमिनेशन के औचित्य पर भी विचार किया जाना चाहिए. अतीत में जाति के आधार पर भेदभाव हुआ, आज भी जाति के आधार पर ही यह हो , तो इसमें गुणात्मक अंतर क्या है?  आधार तो जाति ही है. हमारा लोकतंत्र सही अर्थों में तभी सार्थक होगा जब सभी दल और नेता अपने दलगत हितों से देश और समाज के हितों को ऊपर रखेंगे. अन्यथा यह पतन लगातार केंसर की तरह बढ़ता ही जाना है. अल्लामा इकबाल ने कहा था कि- न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्तां वालों तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में.