भारत की आज़ादी की वो कहानी जो हर भारतीय को पढना चाहिए.. भाग 2


स्टोरी हाइलाइट्स

नये शुरू होने वाले अध्याय की विशेषता यह थी कि इसमें राष्ट्रीय चेतना का उदय हुआ और फलस्वरूप भारतीय राष्ट्रीय अथवा स्वतंत्रता संग्राम का विकास हुआ।

भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का दूसरा अध्याय ... सिविल सेवा आंदोलन.. भारत की आज़ादी की वो कहानी जो हर भारतीय को पढना चाहिए.. भाग 2   नये शुरू होने वाले अध्याय की विशेषता यह थी कि इसमें राष्ट्रीय चेतना का उदय हुआ और फलस्वरूप भारतीय राष्ट्रीय अथवा स्वतंत्रता संग्राम का विकास हुआ। यह विभिन्न कारकों द्वारा संभव हुआ जो कि विदेशी साम्राज्यीय शासन के अनिवार्य रूप से शोषक चरित्र को उजागर करने के लिए संगठित हुआ था। बढ़ती संख्या में भारतवासियों ने यह देखना शुरू किया कि भारतीय और अंग्रेजी हितों के बीच बुनियादी टकराव था। उन्होंने बारम्बार यह देखा कि राष्ट्रीय और साम्राज्यीय हितों के टकराव में अंग्रेजों को लाभ पहुँचाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय उद्देश्यों की लज्जाहीन तरीके से बलि चढ़ाई जा रही है और स्थिति की विडम्बना यह थी कि अनवरत शासन के बीच अंग्रेज भारतवासियों को आश्वासन देते रहे कि भारत में अंग्रेजी शासन का प्रमुख उद्देश्य भारतवासियों का कल्याण है, यथार्थ में वे इस देश को उस समय छोड़ देंगे, जबकि भारतवासी आत्मशासन के उपयुक्त होंगे। आइये अब हम कुछ उदाहरणों की सहायता से साम्राज्यवाद के सार की भारतीयों द्वारा खोज पर नजदीक से दृष्टि डालें। सन् 1858 में अंग्रेज सम्राट ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी से भारतीय साम्राज्य को अधिगृहीत किया, इस ऐतिहासिक अवसर पर रानी विक्टोरिया के नाम से एक अधिघोषणा जारी की गई थी। इसका उद्देश्य 1857, 58 की रक्तरंजित घटनाओं के कारण भारतीयों की भावनाओं को सहलाना था और अंग्रेजी शासन के प्रति उन्हें अपनी ओर करना था। रानी की अध्येषणा में अन्य बातों के साथ रोजगार की समानता सहित कानून के समक्ष भारतीयों में समानता का वचन दिया गया था। परन्तु वास्तविक व्यवहार में भारतीयों के विरुद्ध सुनियोजित तरीके से पक्षपात किया जाता था। बिना अपराध के उच्चतर पद यूरोपीय लोगों के लिए सुरक्षित थे। इसके अलावा इंडियन सिविल सर्विसेज की परीक्षा सिर्फ लन्दन में आयोजित होती थी इसका मतलब यह था कि देश का शासन करने वाली सच्ची सेवा के लिए भारतीय लोग आसानी से प्रतियोगिता में हिस्सा नहीं ले सकते थे। स्वाभाविक रूप से उन्होंने यह मांग की कि परीक्षा लन्दन के साथ-साथ भारत में भी आयोजित की जाये। अंग्रेजों ने इस उचित माँग को स्वीकार करने से मना कर दिया। यथार्थ में उन्होंने कुछ ज्यादा ही युरा किया। जब उन्होंने देखा कि कुछ भारतवासी लन्दन में परीक्षा आयोजित की जाने वाली परेशानी के बावजूद भारतीय सिविल सेवा में प्रवेश करने में सफल हो गये है, अधिकारियों ने इस परीक्षा के लिए अधिकतम आयु सीमा को घटाकर 19 वर्ष कर टिया। स्पष्ट रूप से उद्देश्य यह था कि आय.सी.एस. परीक्षा में प्रतियोगिता करना भारतवासियों के लिए कहीं और ज्यादा कठिन हो जाय, क्योंकि नई आयु सीमा का मतलब यह था कि 16-17 वर्ष के युवा लड़कों को इंग्लैण्ड जैसी सुदूर जगह के लिए कठिन यात्रा करनी होती यदि वे इस परीक्षा में अपना भाग्य परखना चाहते थे। अंग्रेजों के इस कदम के विरुद्ध भारतीयों को प्रतिक्रिया तीक्ष्ण थो, उन्होंने अपनी ओर से यह तर्क दिया कि समानता को प्रकट रूप से बरकरार रखते हुए अंग्रेज यह सुनिश्चित करना चाहते है कि भारतवासी इण्डियन सिविल सर्विसेज में प्रवेश न करें। देश के विभिन्न हिस्सों में विरोध स्वरूप सभाएँ आयोजित की गई और आयु सीमा को फिर बढ़ाने के लिए अधिकारियों पर दबाव डालने तथा जनमत तैयार करने के उद्देश्य से सिविल सेवा आंदोलन नाम से एक आन्दोलन गठित किया गया। प्रारंभिक राष्ट्रवादी नेताओं में से एक सबसे प्रमुख नेता सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने उत्तर में कलकत्ता से लेकर लाहौर तक और दक्षिण में मद्रास तक आन्दोलन एक हिस्से के रूप में दौरा किया। एक के बाद दूसरे नगर में जनसभा संबोधित करते हुए बेनर्जी ने आयु सीमा घटाने की मक्कारी और अन्याय को बड़े शक्तिशाली ढंग से उजागर किया परन्तु उन्होंने इस अवसर का भारतीयों के अपने सामान्य हितों की रक्षा के लिए संगठित होने की आवश्यकता पर बल देने के लिए भी उपयोग किया। भारतीय जनजीवन में यह एक नई और उद्वेलनकारी घटना थी। अभी तक सिर्फ धार्मिक और आध्यात्मिक आन्दोलन से एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र का दौरा किया था और अपना संदेश प्रसारित किया था परन्तु अब एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी नेता भारतवासियों को एक समुदाय के रूप में संबोधित कर रहे थे और एकजुट राजनीतिक कार्यवाही के लिए एकत्र होने के लिए उपदेश दे रहे थे। उक्त आन्दोलन भारतीय संघ के तत्वावधान में किया गया था जिसका कि मुख्यालय कोलकाता में था। एक राष्ट्रीय संगठन होने का सपना अन्ततः 1885 में साकार हुआ, मुख्यतः ए.ओ. ह्यूम, जो कि एक सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारी थे, के प्रयत्नों से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने डब्ल्यू.सी. बेनर्जी की अध्यक्षता में बम्बई में अपना पहला अधिवेशन आयोजित किया। यद्यपि इस पहले सम्मेलन में सिर्फ 85 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था किन्तु एक राष्ट्रीय आन्दोलन की बुनियाद इस मौके पर रखी गई, बाद के वर्षों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की शक्ति क्रमशः बढ़ती गई और उसके माध्यम से एक ऐसा मंच उपलब्ध हुआ जहाँ कि देश के कल्याण और स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध लोग एकत्रित हो सकते थे।