वर्ण व्यवस्था का सच , क्या जतिवाद हमारा इतिहास है?


स्टोरी हाइलाइट्स

अब धीरे धीरे ये एक सामाजिक व्योस्था बन गयी जिसका स्वतः ही पालन इन चारों वर्णों की आने वाली पीढ़ियों ने किया.और एक सामाजिक सहिष्णुता और सौहार्द बना रहता था..

वर्ण व्यवस्था का सच , क्या जतिवाद हमारा इतिहास है? वर्ण व्योस्था: प्राचीन काल से जब जाति प्रथा नही थी तब एक समाज था जिसमें न तो कोई शूद्र था न ही कोई ब्राम्हण.. सब लोग अपनी पसंद और योग्यता के अनुसार कार्य करते थे..इसी कार्य के अनुसार हिन्दू समाज में चार वर्ण निर्धारित किये गए... १ क्षत्रिय: समाज का वो समूह जो देश को चलता था युद्ध करता था और जरुरत पड़ने पर अपना बलिदान करता था अपनी प्रजा के लिए..यह समूह तेज तर्रार व्यक्तियों एवं कुशल योधाओं का होता था..अब इस समूह में वीर भावना थी तो इसके लिए उसकी पीढ़ियों को लानत तो नहीं दिया जा सकता.. 2 ब्राम्हण : उन लोगों का समूह जो पूजा पाठ, धर्म, कर्म, कर्मकांडों, यज्ञ आदि को प्रतिपादित करता था..एक समाज के तबके को उनके पूजा पथ और धर्म में रूचि को देखते हुए ब्राम्हण नाम दिया गया..अब इसमें उस तबके की क्या गलती जो उसे पूजा करना पसंद था..उसे मन्त्रों में रूचि थी..उसके अन्दर शायद युद्ध करने की इच्छा और शक्ति नहीं थी इसलिए वो क्षत्रिय नहीं कहा गया.. ३ वैश्य: व्यापर में पारंगत व्यक्तियों का समूह वैश्य कहलाया.. ये लोग दुकानदारी व्यापर लेनदेन इत्यादि कार्य करते थे..इनकी कुशलता व्यापर में थी इसलिए इन्हें इस समूह में रखा गया..जैसे की अर्थशास्त्र पढ़ा व्यक्ति अच्छा अर्थशास्त्री हो सकता है मगर शायद राजा बनाकर उसकी प्रतिभा के साथ न्याय न हो.. ४ शूद्र: ये तबका कृषि करने सफाई करने बर्तन बनाने का कार्य करता था अतः इसे शूद्र नाम दिया गया..अगर उस समय इस तबके को क्षत्रिय नाम भी दे दिया जाता तो कार्य में महारत तो इसे मिल नहीं जाती अतः इस कारण इस तबके को इनके कार्य के अनुसार नाम दिया गया.. इनकी उत्त्पत्ति की और भी धार्मिक कहानिया हैं मगर वैज्ञानिक दृष्टि से ये ही समझाई जा सकती है इसलिए मैंने इसे लिखा.. अब धीरे धीरे ये एक सामाजिक व्योस्था बन गयी जिसका स्वतः ही पालन इन चारों वर्णों की आने वाली पीढ़ियों ने किया.और एक सामाजिक सहिष्णुता और सौहार्द बना रहता था.. कुछ शासक सत्ता के मद में चूर हो कर निरंकुश हो गए अतः उसी प्रकार उनका विनाश हो गया..अगर इस शासकों को वर्ण व्योस्था से जोड़ के देखा जाए तो ये हमारे मानसिक दिवालियेपन का परिचायक होगा.और ये व्योस्था तो युगों से है कालांतर में इसमें कुछ कमियां आती गयी और कलयुग में ज्यादा कमियां थी जिसका हमारे कई भाई उल्लेख कर रहें है. सतीप्रथा: प्राचीन काल में स्त्रियाँ पति की मृत्यु के बाद स्वतः की इच्छा से पति की चिता के साथ अपने प्राण त्याग देती थी इसे सती प्रथा कहते थे..जिस प्रकार योगी अपना शरीर अपनी इच्छा से छोड़ देते हैं..धीरे धीरे उन महिलाओं को जबरन जलाया जाने लगा इसका विरोध सबने किया और ये प्रथा बंद हो गयी.. सती प्रथा का वर्तमान परिवेश में कोई महत्त्व नहीं था इसलिए खुद ही ख़तम हो गयी..मगर पहले इस प्रथा के क्या कारण थे इस पर लम्बी चर्चा हो सकती है...हाँ हमारी हिन्दू महिलाएं इतनी आत्मशक्ति रखती थी की अगर संभव हो सके तो जौहर करके प्राण दे देती थी मगर आताताइयों के हाथ अपवित्र नहीं होती थी.. देवदासी:इन स्त्रियों का विवाह मंदिरों से कर दिया जाता था ये नृत्य सिखाती थी और मंदिरों की देखभाल करती थी..परम्परा की बात करें तो वो अपनी इच्छा से पर पुरुष से सम्भोग कर सकती थी मगर कालांतर में उसे विकृत कर के आवश्यक बनाने की कोशिश की गयी.. ये प्रथा वर्तमान परिवेश में निंदनीय है... अब एक ज्वलंत सवाल आप सब से: क्या हम अब भी वर्ण व्योस्था को मानते है?? क्या ये आज भी प्रासंगिक है??:क्या हम वर्ण व्योस्था को आज भी दुसरे रूप में अनुसरण कर रहें है?: ज्यादातर लोग कहेंगे नहीं?? तो अब कुछ २१वीं सदी की बात करता हूँ.चलिए माना किसी ने व्यक्तिगत फायदे के लिए ये सड़ी गली वर्ण व्योस्था बनायीं थी..तो ख़तम क्यूँ नहीं होती... शायद सेकुलर लोग एक शब्द बोलते हैं class(क्लास)...ये क्या है बंधू..जरा भारत के लोगों के क्लास को देखे.. १ अपर क्लास: राजनेता, बड़े व्यापारी,कुछ भ्रष्ट लोग २ हायर मिडल क्लास: उच्चाधिकारी, छोटे नेता,छोटे व्यापारी ३ मिडल क्लास: सरकारी और निजी संस्था में कम करने वाले व्यक्ति.. ४ लोअर क्लास: किसान,मजदूर,इमानदार व्यक्ति.. क्या आज हम इस वर्ण व्योस्था को फालो नहीं कर रहें है..और इसमें कोई ब्राम्हण शूद्र क्षत्रिय वैश्य की बात नहीं है..सुखराम मायावती कलमाड़ी जूदेव कोड़ा दिग्विजय सिंह(अगर कोई ब्राह्मन छुट गया हो तो उसे भी मान लें) सब अलग अलग जाति के है मगर आज की वर्ण व्योस्था में अपर क्लास है..इसी प्रकार कोई ब्राम्हण शूद्र क्षत्रिय वैश्य शायद इन सारे बाकी क्लास में मिल जाएगा.. हम भी तो आज सोचते है की आज डिनर पंचसितारा में करते तो कैसा होता ..लेकिन भाई मुझे वहां के तरीके नहीं आते इसलिए जाने से डरता हूँ..और कभी चला गया तो वहां का सबसे बड़ा महादलित मैं होता हूँ..फरारी के सामने अल्टो कैसी लगेगी..अमीर लोग ऐसे देखेंगे की ये कहा से आ गया उन अमीरों में....हिन्दू मुस्लिम ब्राम्हण या दलित कोई भी हो सकता है उन लोगों में .. शशि थरूर की जात क्या है, मैं नहीं जानता मगर मैं कभी जहाज में इकोनोमी क्लास में बैठता हूँ तो मेरी जात उन्होंने बता दी " "कैटल क्लास"..अब वो दलित सफ़र कर रहा हो या मुस्लिम मेरे साथ,आज की व्योस्था का कैटल क्लास" है वो.. और अगर प्रतिभा के अनुसार वर्गीकरण खराब है तो क्यों न चपरासी को निदेशक बना दिया जाए..वहां भी तो वर्गीकरण है..क्यों न निदेशक को २००० रूपये तनखाह दी जाए और मजदूर को २ लाख ...क्यों न सारे ५ सितारा ढहा कर एक सामान्य लाज बना दिया जाए..क्यों न ट्रेन से वातानुकूलित डब्बे हटा दिए जाएँ..ये सब भी तो सामाजिक वर्गीकरण ही करते है. मित्रों..वर्ण व्योस्था हमारे जीवन का अभिन्न अंग है जो समयानुसार अलग अलग नाम लेती है .हा इसका कार्यान्वयन सही होना चाहिए .आज कल भी तो हम उसे अनुसरित ही कर रहें है हा शायद सेकुलर बनने के चक्कर में स्वीकार नहीं करते..समाजं को उसकी योग्यता के अनुसार चलने के लिए वर्ण व्योस्था किसी न किसी रूप में हमारे साथ रहेगी..