स्टोरी हाइलाइट्स
अक्सर लोग अध्यात्म के मार्ग पर इसलिए चलते हैं क्योंकि उन्हें कुछ हासिल करना होता है| बिना मंजिल के यात्रा कैसी? हमारा जो पैराडाइम है वो टारगेट ओरिएंटेड है| टारगेट नहीं तो एफर्ट्स क्यों?
अध्यात्म में कहीं कोई मंजिल नहीं होती ? P अतुल विनोद
अक्सर लोग अध्यात्म के मार्ग पर इसलिए चलते हैं क्योंकि उन्हें कुछ हासिल करना होता है| बिना मंजिल के यात्रा कैसी? हमारा जो पैराडाइम है वो टारगेट ओरिएंटेड है| टारगेट नहीं तो एफर्ट्स क्यों?
हम कोशिश तभी करते हैं जब हमें कुछ फायदा नजर आता है| बिना फायदे कि हम अपनी उंगली भी नहीं हिलाना चाहते| अध्यात्म के मार्ग पर भी तमाम तरह के लोभ और प्रलोभनो का बाजार खड़ा हुआ है| इसी लोभ लालच के कारण लोग अध्यात्म के मार्ग पर कदम रखते हैं| उलझन खड़ी हो जाती हैं जब उन्हें वो सब नहीं मिलता जिसका जिक्र उन्हें अलग-अलग प्लेटफार्म पर मिलता है|
ऐसे लोगों को जब यह पता चलता है कि आध्यात्म की कोई मंजिल नहीं, अध्यात्म सिर्फ और सिर्फ एक यात्रा है तो उन्हें निराशा होती है|
दरअसल अध्यात्म जुड़ा हुआ है आत्मा से, आत्मा की कोई मंजिल नहीं, आत्मा एक सत्य सनातन यात्रा है|
अब लोग सवाल करेंगे की यात्रा क्यों की जाए जब उसकी कोई मंजिल ही नहीं है? निश्चित ही मंजिल चाहने वालों के लिए अध्यात्म का मार्ग अनुकूल नहीं है|
ऐसा नहीं है कि अध्यात्म के मार्ग पर उपलब्धियां नहीं आती| आती है हर एक कदम पर एक अनुभव, एक उपलब्धि मौजूद रहती है, लेकिन आध्यात्मिक यात्री को उस अनुभव, उपलब्धि या कथित सिद्धि को इग्नोर करके चलते रहना पड़ता है|
जैसे ही वो यात्री उस उपलब्धि की तरफ लपका और सोचा कि मेरी मंजिल आ गई वैसे ही वो जाल में उलझ गया|
हर एक साधक चाहता है कि वो एक ऐसे स्तर पर पहुंचे जहां पर किसी तरह का संदेह न रहे| कोई उठापटक, उहापोह या अस्पष्टता ना रहे|
दरअसल भ्रम जाल तब क्रिएट होते हैं जब हम अध्यात्म में किसी खास उपलब्धि को लक्ष्य बनाकर आगे बढ़ते हैं|
आप हमेशा एक स्तर की तलाश करते हैं| आप चाहते हैं कि आप एक ऐसी स्टेज पर पहुंचे जहां पर सब कुछ शांत हो जाए| मन, मस्तिष्क शरीर और आत्मा के स्तर पर संपूर्ण कायाकल्प हो जाए| जबकि ऐसा होता नहीं है और प्रक्रिया चलती ही रहती है तो निराशा हाथ लगती है|
उम्मीद ही भ्रम और उलझनों का कारण होती है| अध्यात्म में उम्मीद को छोड़कर, आशा व लक्ष्य को दरकिनार कर सिर्फ चलते जाना, एक बेहतरीन यात्री बनना ही बड़ी उपलब्धि है|
आप यात्री बन गए तो एक समय बाद आपको अपनी यात्रा की कमान सँभालने की चिंता भी नही करनी होगी| आप आश्चर्य करेंगे कि आपकी यात्रा के वाहन पर एक ऐसा ड्राइवर सवार हो जाएगा जो आपको खुद ही यात्रा कराएगा| आप अर्जुन की तरह रथ पर सवार होंगे लेकिन रथ की कमान कृष्ण के हाथ में होगी|
कृष्ण रूपी आंतरिक चेतन बुद्धिमत्ता( कुंडलिनी) आपको योग के रास्ते पर खुद ही आगे बढ़ाएगी| और तब पतंजलि द्वारा वर्णित अष्टांग योग अपने आप घटित होने लगेगा|
आपके प्रयत्न के बगैर ही आपके अंदर यम,, नियम, आसन, प्रत्याहार,प्राणायाम, धारणा, ध्यान और समाधि प्रतिफलित होने लगेगी|
उस वक्त आप एक दर्शक की तरह उस यात्रा का आनंद लेते रहेंगे| जब और जहां आप भटकेंगे, उलझेंगे, भ्रम में पड़ेंगे तो वो चेतना आपको किसी न किसी माध्यम से आपके सवालों और संदेशों का समाधान दिला देगी|
अध्यात्म के मार्ग पर आगे बढ़ना है तो उम्मीदों से परे हो जाएँ| आकांक्षाओं को छोड़ दें| यदि मन में एक इच्छाएं रखेंगे तो आप उन्ही में खो जायेंगे|
आप ये न सोचे कि जब मैं अध्यात्म में कुछ प्राप्त कर लूंगा तब मैं ऐसा हो जाऊंगा मेरी गरीबी अमीरी में बदल जाएगी, नर्क रुपी जीवन स्वर्ग में बदल जाएगा, सेहत बहुत अच्छी हो जाएगी, रिश्ते नाते एकदम बदल जाएंगे, मैं जीवन मुक्त हो जाऊंगा, मुझे ढेर सारी सिद्धियां और सफलताएं हासिल हो जाएंगी|
आप जैसे हैं वैसे ही खुद को एक्सेप्ट करें| आप अपने मन से कुछ भी बदलने का ख्याल ना रखें| जो बदलने योग्य होगा इस यात्रा में बदल जाएगा| जो भोगने योग्य होगा वो भोगना पड़ेगा, जिन बंधनों से आपको मुक्त दिलवाई जानी है उन बंधनों को काटने के लिए कुछ कष्ट भी उठाना पड़ेगा|
आप जज बनकर, अच्छाई और बुराई के पैरामीटर तय ना करें| न ही सफलता असफलता के जाल बुने|
याद रखें जीवन अंतहीन प्रक्रिया है, यहाँ यह एक टारगेट पूरा होता है तो दो नए पैदा हो जाते हैं|
आप किसी एक मुकाम पर पहुंचकर जीवन की परिपूर्णता की घोषणा नहीं कर सकते|
आप सफलता का एक पायदान हासिल करते हैं तो आगे नया पायदान दिखाई देने लगता है|
हमारा जीवन सीमाओं से परे है| जो हमें सीमा दिखाई देती है उस सीमा के पार भी कुछ और है|
हमारे संसार को इसलिए माया कहा गया है क्योंकि हम जिसे सार समझते हैं उसके पास भी एक संसार हमेशा मौजूद होता है|