तिरिया तेरह मरद अठारह -दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

A few days ago a discussion was held with a very experienced elderly about most marriages failing and early break up.

तिरिया तेरह मरद अठारह -दिनेश मालवीय कुछ दिन पहले एक बहुत अनुभवी बुजुर्ग से आजकल ज्यादातर शादियाँ असफल होने और जल्दी टूटने को लेकर चर्चा हुयी. मैंने उनसे इसका कारण पूछा. वह कुछ देर तक सोचते रहे और फिर बोल उठे - “तिरिया तेरह मरद अठारह”. उनकी इस पहेलीनुमा बात को न समझने पर मैंने उनसे इसका मतलब पूछा. वह बोले कि उनके समय में यह कहावत चलती थी. इसका अर्थ है कि लड़की की शादी तेरह साल और लड़के की शादी अठारह साल में की जाए, यही आदर्श स्थिति है. खैर मुझे तो इतना अधिक आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि मैंने ऎसी शादियाँ ख़ुद देखी हैं. इसके अलावा पुराने ग्रंथों में भी यह बात पढ़ी है. परन्तु पास ही बैठे मेरे बेटे को बहुत आश्चर्य हुआ. उसकी और उसकी पीढ़ी के लिए तो यह बात कल्पना से भी परे है. आजकल तो लड़के-लड़कियों की पढ़ाई में ही चौथाई से अधिक उम्र बीत जाती है. लड़कियों की शादी 25-30 साल में और लड़कों की 32-33 साल में होती है. पढ़ाई पूरी करने के बाद जॉब लगने की प्रक्रिया और मानसिक-आर्थिक रूप से शादी की जिम्मेदारी के लिए तैयार होने में इतनी उम्र हो ही जाती है. लड़कियों की स्थिति भी लगभग ऎसी ही है. उन्हें भी शादी से पहले करियर की चिंता होती है. बेटा बोला कि हमारे देश में पहले कितना पिछड़ापन था. मुझे उसकी यह बात बहुत बुरी लगी. मैंने कहा कि आज की परिस्थितियों के प्रसंग में बहुत अतीत की बातों को क्यों देख रहे हो? उस समय की स्थितियाँ ऐसी ही रही होंगी, कि इस उम्र में शादी करना हमारे पूर्वजों को उपयुक्त और व्यवहारिक लगा होगा. इसी कारण यह बात ग्रंथों में लिखी गयी और कहावत भी कही जाने लगी. लेकिन आज अगर बहुत दूरस्थ इलाकों में रहने वाले मानसिक-शैक्षणिक रूप से बहुत पिछड़े लोगों को छोड़ दिया जाए, तो गाँव-देहात तक में तेरह वर्ष की लड़की और अठारह वर्ष के लड़के की शादी न के बराबर लोग करते हैं. यह ज़रूर है कि हमारा देश एक साथ कई सदियों को जीता है, इसलिए ऐसे विरले उदाहरण आज भी मिल जाते हैं. लेकिन यह आम बात नहीं है. उस दौर में यह नियम था और आज अपवाद है. बेटे को कुछ ग्लानि हुई और उसने सॉरी कहा. बुजुर्ग बोले कि आपकी बात से पूरी तरह सहमत होते हुए भी एक बात तो कहना चाहूंगा ही कि आजकल शादियाँ जल्दी टूटने और उनके असफल हो जाने का एक बड़ा कारण अधिक उम्र में शादी भी है. उस समय छोटी उम्र में शादी करने में आज भले ही अनेक कमियां और बुराइयाँ दिखाई देती हों, लेकिन शादियाँ जीवन भर चलती थीं. तलाक या विवाह विच्छेद जैसी बातें तो सुनी भी नहीं जाती थीं. इसके अलावा शादी भले ही कम उम्र में हो जाती थी, लेकिन गौना उम्र पकने के बाद ही होता था.यानी लड़की गौने के बाद ही ससुराल में रहने जाती थी. तब तक उसकी मानसिक और शारीरिक स्थिति वैवाहिक जीवन के लिए अनुकूल हो चुकी होती थी. लेकिन वह इतनी भी बड़ी नहीं हो जाती थी कि ससुराल में ख़ुद को एडजस्ट न कर सके. मैंने बड़ी उम्र में शादी को जल्दी शादी टूटने का कारण पूछा तो बुजुर्ग बोले कि आजकल शादी होने तक लड़का और लड़की बहुत मेच्योर हो चुके होते हैं. दोनों का व्यक्तित्व विकसित हो चुका होता है. ज्यादारार मामलों में लड़का और लड़की दोनों काफी पढ़े-लिखे होते हैं. उनके लिए ज़रा-सी भी प्रतिकूल स्थिति में ख़ुद को एडजस्ट करना बहुत कठिन होता है. उनमें सहनशीलता की कमी आ जाती है. दोनों में से कोई भी झुकने को तैयार नहीं होता. आजकल तो लड़कियां शादी के बाद ख़ुद की अलग पहचान भी क़ायम रखने का आग्रह करती हैं. सरनेम भी नहीं बदलतीं, सिर्फ अपने सरनेम के आगे पति का सरनेम लगा देती हैं. पुराने समय में शादी के बाद लड़कियों का ससुराल में दूसरा नाम रख दिया जाता था और वह उसे सहज ही स्वीकार कर लेती थी. वह अपनी पहचान को पति और उसके परिवार के साथ विलय कर देती थी. दोनों ऐसी स्थिति में नहीं होते कि दूसरे को जैसा है, वैसा ही स्वीकार कर लें. दोनों एक-दूसरे से ख़ुद को बदलने की अपेक्षा करते हैं, जो इस उम्र में नामुमकिन होता है. परिणामस्वरूप वे अलग होने का निर्णय कर लेते हैं. यदि किसी तरह, किसी दबाव या परिस्थिति में साथ रह भी लेते हैं, तो सुखी दंपती की तरह नहीं रहते. ज़िन्दगी भर खटपट चलती ही रहती है. बुजुर्ग बोले कि उनके समय में लड़का-लड़की शादी से पहले एक-दूसरे को नहीं देखते थे. माता-पिता जिसके साथ सम्बन्ध तय कर देते थे, उसे वह बहुत विनम्रता के साथ स्वीकार कर उसे पूरी निष्ठा से निभाते थे. उस समय लड़की के रूप-रंग के बजाय उसके पारिवारिक संस्कारों, पारिवारिक परिवेश और माता-पिता के साथ ही उसकी दो-तीन पीढ़ियों तक के संस्कार देखे जाते थे. लड़की वाले भी अच्छे संस्कारित परिवार में लड़की को देना चाहते थे, भले ही वह आर्थिक रूप से कमज़ोर क्यों न हो. इस कारण शादियाँ जीवन भर चलती थीं, और बहुत अच्छे से चलती थीं. मैंने कहा कि लेकिन यह सब आज के हालात में तो मुमकिन नहीं है. वह बोले कि मैं कब कह रहा हूँ कि ऐसा किया जाए. लेकिन इतना ज़रूर कहूँगा कि पुराना सबकुछ ख़राब नहीं होता और नया सबकुछ अच्छा नहीं होता. दोनो के बीच का रास्ता निकाल कर आज के हालात के अनुरूप शादियाँ तय की जाएँ, तो शादियाँ जल्दी टूटने के मामलों में बहुत कमी आ सकती है. सुझाव के तौर पर उन्होंने बताया कि बच्चों को छोटी उम्र से ही शादी की गंभीरता समझा देनी चाहिए. उनमें सहनशीलता के संस्कार डाले जाएँ. दूसरों की कमियों को नाज़रंदाज कर उनकी खूबियों को देखने का प्रशिक्षण दिया जाए. सिर्फ रूप-रंग, धन-दौलत और जॉब पर लट्टू न होकर लड़के-लड़की के पारिवारिक परिवेश को ठीक से देखा जाए. लड़के और लड़की दोनों के स्वास्थ्य के बारे में भी ठीक से पड़ताल कर ली जाए, ताकि शादी के बाद पता लगने पर यह शादी के टूटने का कारण नहीं बने. शादी के बाद लड़के और लड़की के माता-पिता उनके वैवाहिक और पारिवारिक जीवन में अनावश्यक दखलंदाजी न करें. इन कुछ बातों पर यदि अमल हो तो, जल्दी शादियाँ टूटने का कोई कारण नहीं दीखता. पुराना समय वापस नहीं आ सकता लेकिन उसके अनुभव से नए ज़माने के अनुरूप सीख तो ली ही जा सकती है. मेरे और मेरे बेटे के पास बुजुर्ग की बात से सहमत होने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहा.