स्टोरी हाइलाइट्स
हाल ही में अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेन्द्रानंद गिरि की अस्वाभाविक मौत ने झकझोर दिया ही.....
समाज मार्गदर्शन के लिए किसकी तरफ देखे, संत-समाज के कंधों पर बड़ा दायित्व.. -दिनेश मालवीय
हाल ही में अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेन्द्रानंद गिरि की अस्वाभाविक मौत ने झकझोर दिया ही. भारत ही नहीं पूरी दुनिया में हिन्दू धर्मावलम्बियों में सनाका-सा खिंच गया है. इस घटना ने जहाँ धर्मशील और धर्म का आदर करने वाले लोगों को बहुत सदमा पहुंचाया है, वहीं सनातन धर्म से द्वेष रखने वालों की बांछे खिल गयी हैं. इसका सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि, धर्म को लेकर असमंजस में पड़ी नयी पीढ़ी के मन में धर्म-पुरुषों और धर्म-संस्थाओं के प्रति संशय बढ़ने लगा है. आज न तो सियासत देश को राह दिखाने वाली बची है और न साहित्य. देश के लोग इसके लिए संत-समाज को बहुत आशा के साथ देखते हैं. यह सुनिश्चित किया जाए कि, वे निराश नहीं हों. इससे पहले भी सनातन धर्म के कुछ संत अधर्माचरण करके अपमानित हो चुके हैं. उनमें से कुछ तो जेल में हैं. लेकिन वे सनातन धर्म-परम्परा के प्रतिनिधि संत नहीं थे. उनकी हैसियत व्यक्तिगत थी. वे भूलवश अपने को भगवान् के समकक्ष समझने लगे थे. कम समझदार धर्मभीरु लोग उनकी तस्वीरों को घर के पूजा-स्थलों में भगवान् के विग्रहों के साथ रखकर उनकी पूजा करने लगे. एक कथित संत ने तो अपने जीवन पर आधारित “रामायण” ही लिखवा दी थी, जिसका पाठ उसके भक्त करते थे.
लेकिन नरेन्द्रानंद गिरि का मामला अलग है. वह उन अखाड़ों के प्रमुख थे, जिनकी स्थापना आदि शंकराचार्यजी ने धर्म की रक्षा और धर्म की उन्नति के लिए की थी. इन अखाड़ों में हज़ारों साल से एक से एक बढ़कर महान, चरित्रवान और गुणवान महात्मा-महंत हुए. उन्होंने अपने अखाड़ों में और अपने अनुयायियों के बीच साधु-जीवन के उच्चतम आदर्श रखे. समाज को उन्होंने मार्गदर्शन दिया, जिसकी बदौलत आज भी सनातनी परिवारों में उच्च जीवन-मूल्य बहुत कुछ बचे हुए हैं. उन्होंने अपनी व्यक्तिगत पहचान बनाने की कभी कोशिश नहीं की. धर्म पर किसी भी तरह का संकट उपस्थित होने पर उन्होंने धर्म और समाज की रक्षा करने में कोई कसर नहीं रखी. इन संत-महंतों ने धर्म के आध्यात्मिक और लौकिक दोनों पक्षों के बीच अद्भुत संतुलन कायम रखा. इन अखाड़ों के सदस्यों और उनसे जुड़े सनातनी परिवारों की संख्या लाखों में है. कुछ संत-महातमा यदि अपने आचरण से गिरकर कोई ऐसा कार्य कर बैठें, जो धर्म विरुद्ध हो, तो उनके कारण पूरे संत-समाज को लांछित करना अविवेकपूर्ण है. गिरने को तो कोई भी गिर सकता है, लेकिन मठ-अखाड़ों में ऐसे लोगों कि संख्या नगण्य है. इसमें निराश होने जैसी कोई बात नहीं है. सनातन धर्म की जड़ें इतनी कमज़ोर नहीं हैं कि, इस तरह की घटनाओं से इसे बहुत नुकसान हो जाए.
संत-समाज के लिए विचारणीय बातें
आज सनातन धर्म के ऊपर चारों तरफ से प्रहार हो रहे हैं. उसे बदनाम किया जा रहा है. उसे मिटाने के लये अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर साजिशें की जा रही हैं. एक तरफ दूसरे धर्म के लोग यह सब कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ सनातनी परिवारों में जन्में कुछ लोग भी अज्ञानवश ऐसे काम कर रहे हैं और ऐसी बातें कर रहे हैं, जो किसी तरह उचित नहीं हैं. कुछ ऐसी बातों की तरफ संत-समाज का ध्यान आकर्षित करना आवश्यक है, जिनकी आज सबसे ज्यादा ज़रूरत है. संत-समाज को पवित्र रहने के साथ ही पवित्र दिखना भी ज़रूरी है. आज नयी पीढ़ी धर्म और कर्तव्यों को लेकर भ्रमित है. ऐसे भ्रमित युवा ही दूसरे धर्मों की साजिशों के शिकार जल्दी हो जाते हैं. वे संतों के आचरण के आधार पर ही उनको परखते हैं. संत-समाज को अपने शिष्यों से बहुत सावधान रहना होगा. होता यह है कि, संत-महंत तो मायामोह अधिक नहीं रखते, लेकिन मठों की धन-सम्पत्ति से आकर्षित होकर अनेक लोग उनके शिष्य बन जाते हैं. संत-महंत अमूमन सरल स्वभाव के होते हैं और ऐसे लोगों कि कुटिल भावनाओं को ताड़ नहीं पाते. पुराने गुरुओं की यह बात याद रखी जानी चाहिए कि, गुरु को सबसे ज्यादा ख़तरा उसके सबसे पट्ट शिष्य से ही होता है. ईसा मसीह को पकड़वाने का काम भी तो जुडास ने ही किया था, जो उनके बारह प्रमुख शिष्यों में एक था.
इसके अलावा किसी भी क्षेत्र में जो भी बड़े गुरु होते हैं, वे एक दांव हमेशा बचाकर रखते हैं. उनके प्रिय शिष्यों को को वे हर दांव बता देते हैं, लेकिन एक दांव इसलिए बचाकर रखते हैं कि, कहीं किसी दिन शिष्य उन्हें चुनौती दे, तो वे अपनी रक्षा कर सकें. महान गुरु द्रोणाचार्य ने अपने सबसे प्रिय शिष्य अर्जुन को सारे अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान दे दिया, लेकिन उसे “नारायणास्त्र” की शिक्षा नहीं दी. यह शिक्षा उन्होंने अपने पुत्र अश्वत्थामा को दी थी. उसने महाभारत युद्ध में जब यह अस्त्र चलाया, तो अर्जुन के पास उसका कोई जवाब नहीं था. यदि श्रीकृष्ण ने उससे बचने का उपाय नहीं बताया होता, तो पाण्डव अपनी सेना सहित नष्ट हो जाते. इसके अलावा राजनीति के लोगों से भी संत-समाज को सावधान रहकर व्यवहार करना होगा. उनसे कोई व्यवहार नहीं रखें, यह तो संभव नहीं है, लेकिन उनके हाथ का मोहरा बनने से बचना बहुत ज़रूरी है.
समाज के लिए विचारणीय बातें :
संन्यास की भारत में बहुत शालीन परम्परा रही है. सन्यासी को ईश्वर का ही प्रत्यक्ष रूप माना जाता है. ऐसा है भी. लेकिन संत कहलाने या दिखाई देने वाला व्यक्ति वास्तव में संत होना भी तो चाहिए. भारत में वेश देखकर संन्यासी की पूजा होती रही है, लेकिन आज इस विषय में सतर्क रहने की बहुत ज़रुरत है. संन्यासी के रूप में ढोंगी लोग ही अधिक घूम रहे हैं. सच्चे संत या सन्यासी को पहचान कर ही उसके प्रति समर्पित होना चाहिए. इसकी पहचान के लिए हमारे शास्त्रों में कुछ मार्गदर्शन दिया है. सच्चा संत या सन्यासी हमेशा अपने प्रचार-प्रसार से दूर रहते हैं. वे किसीसे कुछ मांगते नहीं हैं. को कुछ देने का प्रयास भी करे, तो उतना ही लेते हैं, जितनी ज़रूरत है. वे हमेशा ध्यान-भजन के भाव में ही रहते हैं. अपनी बड़ाई न तो ख़ुद करते और न किसीसे करवाते. वे कभी कुछ दावा नहीं करते. अपनी शक्तियों के प्रदर्शन से बचते हैं.
इन कुछ सूत्रों का ध्यान रखकर हम ढोंगी लोगों के चंगुल से बच सकते हैं. जहाँ तक नरेन्द्रानंद गिरि वाली घटना का सवाल है, तो इससे निराश होने की कोई ज़रूरत नहीं है. भारत में संत-समाज बहुत बड़ा है और उनमें एक से एक बढ़कर विभूतियाँ आज भी मौजूद हैं. उनके पास अपनी साधना के साथ अपने गुरुओं और परंपरा के पूर्वजों की तपस्या का बल भी है. सनातन धर्म इतना कमज़ोर नहीं है कि, कुछ लोगों के ग़लत आचरण से उसपर विश्वास खो दिया जाए. आचरण से गिरे हुए संत और अन्य लोग हर धर्म और उनकी संस्थाओं में मिलते हैं. उनके आचरण इतने घिनौने हैं कि, जिनकी कल्पना तक नहीं की जा सकती. फर्क इतना है कि, मीडिया आदि उनके दुराचारों को सामने नहीं लाते या नहीं ला पाते. लिहाजा अपने धर्म और उसके गुरुओं पर पर अडिग विश्वास रखिये.