स्नातन धर्म – विविधता में ऐकता


स्टोरी हाइलाइट्स

स्नातन धर्म – विविधता में ऐकता स्नातन धर्म ऐक पूर्णत्या मानव धर्म है। समस्त मानव जो प्राकृतिक नियमों तथा स्थानीय परियावरण का आदर करते हुये जियो और जीने दो के सिद्धान्त का इमानदारी से पालन करते हैं वह विश्व में जहाँ कहीं भी रहते हों, सभी हिन्दू हैं। स्नातन धर्म समय सीमा तथा भूगौलिक सीमाओं से भी स्वतन्त्र है। स्नातन धर्म का विस्तार पूरे बृह्माणड को अपने में समेटे हुये है। हिन्दू धर्म वैचारिक तौर पर बिना किसी भेद-भाव के सर्वत्र जन-हित के उत्थान का मार्ग दर्शाता है ताकि प्रत्येक व्यक्ति स्थानीय समाज में रहते हुये निजि क्षमता और रुचिअनुसार जियो और जीने दो के सिद्धान्त को क्रियात्मक रूप दे सके। हिन्दू धर्म और वैचारिक स्वतन्त्रता हिन्दू अपने विचारों में स्वतन्त्र हैं। वह चाहे तो ईश्वर को निराकार माने, चाहे साकार, चाहे तो मूर्तियो, चिन्हों, या तन्त्रों के माध्यम से ईश्वर को पहचाने – या मानव रूप में ईश्वर का दर्शन करे। नास्तिक व्यक्ति को भी आस्तिक के जितना ही हिन्दू माना जाता है। हिन्दू को सृष्टि की हर कृति में ईश्वर का ही आभास दिखता है। कोई भी जीव अपवित्र नहीं। साँप और सूअर भी ईश्वर के निकट माने जाते हैं। हिन्दू धर्म ने किसी ऐक ईश्वर को मान कर दूसरों के ईश को नकारा नहीं है, अपितु प्रत्येक हिन्दू को निजि इच्छानुसार एक या ऐक से अधिक कई ईश्वरों को मान लेने की स्वतन्त्रता भी है। ईश्वर का कोई ऐक विशेष नाम नहीं, बलकि उसे सहस्त्रों नामों से सम्बोधित किया जा सकता है। अतिरिक्त नये नाम भी जोड़े जा सकते हैं। चाहे तो कोई प्राणी अपने आप को भी ईश्वर या ईश्वर का पुत्र, प्रतिनिधि, या कोई अन्य सम्बन्धी घोषित कर सकता है और इस का प्रचार भी कर सकता है। लेकिन वह अन्य प्राणियों को अपना ईश्वरीयत्व स्वीकार करने के लिये बाधित नहीं कर सकता। हिन्दू धर्म का साहित्य किसी एक गृंथ पर नहीं टिका हुआ है, अपितु केवल धर्म गृंथों का ही एक विशाल पुस्तकालय है। मौलिक गृंथ संस्कृत भाषा में हैं जो कि विश्व की प्रथम भाषा है। हिन्दू धर्म में संस्कृत गृंथों के अनुवाद भी मान्य हैं। हिन्दू साहित्य के मौलिक गृंथों में महान ऋषियों के ज्ञान विज्ञान तथा ऋषियों की साधना के दूआरा प्राप्त किये गये अनुभवों का एक विशाल भण्डार हैं जिस का उपयोग समस्त मानवों के उत्थान के लिये है। फिर भी य़दि किसी हिन्दू ने धर्म साहित्य की कोई भी पुस्तक ना पढी हो तो भी वह उतना ही हिन्दू है जितने उन गृन्थों के लेखक थे। हिन्दू धर्म और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह अपनी इच्छानुसार किसी भी स्थान में, किसी भी दिशा में बैठ कर, किसी भी समय, तथा किसी भी प्रकार से अपनी पूजा-अर्चना कर सकता है। और चाहे तो ना भी करे। हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह अपनी इच्छानुसार जैसे चाहे वस्त्र पहने, जो चाहे खाये तथा अपनी रुचि अनुसार अपना जीवन जिये। हिन्दू धर्म में किसी भी बात के लिये किसी पुजारी-मदारी या पादरी से फतवा या किसी प्रकार की स्वीकृति लेने की कोई ज़रूरत नहीं है। हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म स्थल को ध्वस्त नहीं किया है और ना ही किसी अहिन्दू की धार्मिक कारणों से हत्या की है या किसी को उस की इच्छा के विरुद्ध हिन्दू धर्म में परिवर्तित किया है। हिन्दू धर्म मुख्यता जन्म के आधार पर ही अपनाया जाता है। हिन्दू धर्म अहिन्दूओं को भी अनादि काल से विश्व परिवार का ही अंग समझता चला आ रहा है जबकि विश्व के अन्य भागों में रहने वाले मानव समुदाय एक दूसरे के अस्तित्व से ही अनिभिज्ञ्य थे। यह पू्र्णत्या साम्प्रदाय निर्पेक्ष धर्म है। वैचारिक दृष्टि से हिन्दुत्व प्रत्येक व्यक्ति को आत्म-निरीक्ष्ण, आत्म-चिन्तन, आत्म-आलोचन तथा आत्म-आँकलन के लिये पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करता है। धर्म गृंथों के ही माध्यम से ऋषि मुनी समय समय पर ज्ञान और साधना के बल से तत्कालीन धार्मिक आस्थाओं पर प्रश्न चिन्ह लगाते रहे हैं, तथा नयी आस्थाओं का निर्माण भी करते रहे हैं। हर नयी विचारघारा को हिन्दू मत में यथेष्ट सम्मान दिया जाता रहा है तथा नये विचारकों और सुधारकों को भी ऋषि-मुनि जैसा आदर सम्मान भी दिया जाता रहा है। हिन्दू धर्म हर व्यक्ति को सत्य की खोज के लिये प्रोत्साहित करता है। हिन्दू धर्म जैसी विभिन्नता में एकता और किसी अन्य धर्म में नहीं है। साम्प्रदायक समानतायें यह हर मानव का कर्तव्य है कि वह दूसरों के जीवन का आदर करे , स्थानीय संसाधनो का दुर्पयोग ना करे, उन में वृद्धि करे तथा आने वाली पीढि़यों के लिये उन का संरक्षण करे। आधुनिक विज्ञानिकों की भी यही माँग है। यह तथ्य विज्ञान तथा धर्म को ऐक दूसरे का विरोधी नहीं अपितु अभिन्न अंग बनाता है। व्यक्तिगत स्वतन्त्रताओं के बावजूद भी भारत में पनपे सभी धार्मिक साम्प्रदायों में निम्नलिखित समानतायें पाई जाती हैं – आस्था की समानतायें ईश्वर ऐक है। ईश्वर निराकार है किन्तु ईश्वर को साकारत्मक चिन्हों से दर्शाया भी जा सकता है। ईश्वर कई रूपों में प्रगट होता है तथा हर कृति में ईश्वर की ही छवि है। सभी हिन्दू शिव, राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरू नानक, साईं बाबा, स्वामीमारायण तथा अन्य किसी महापुरुष में से किसी को अपना जीवन नायक मानते हैं। भगवा रंग पवित्रता, अध्यात्मिकता, वैराग्य तथा ज्ञाम का प्रतीक है। हिन्दू पुर्नजीवन में विशवास रखते हैं। सभी वर्गों के तीर्थस्थल अखणडित भारत, नेपाल और तिब्बत में ही स्थित हैं।क्यों कि धर्म और सभ्यता का जन्म सर्व प्रथम यहीं हुआ था। सामाजिक आधार हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म स्थल को ध्वस्त नहीं किया है। हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म के विरुध धर्म-युद्ध या हिंसा नहीं करते। हिन्दू समस्त विश्व को ही एक विशाल परिवार मानते हैं। हिन्दूओं में विदूआनो तथा सज्जन प्राणियों को ऋषि, संत या महात्मा कहा जाता है तथा वह सर्वत्र आदरनीय माने जाते हैं। हिन्दू गौ मांस खाने को वर्जित मानते है। हिन्दूओं का विवाहित जीवन एक पति-पत्नी प्रथा पर आधारित है तथा इस सम्बन्ध को जीवन पर्यन्त निभाया जाता है। हिन्दूओं के सभी वर्गों पर एक ही सामाजिक आचार संहिता लागू है। हिन्दूओं के सभी समुदाय एक दूसरे के प्रति सौहार्द भाव रखते हैं और एक दूसरे की रस्मों का आदर करते हैं। धार्मिक समुदायों में स्वेच्छा से आवाजावी पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। कोई किसी को समुदाय परिवर्तन करने के लिये नहीं उकसाता। संस्कृत सभी भारतीय मूल की भाषाओं की जनक भाषा है। परियावर्ण के प्रति समानतायें समस्त नदीयां और उन में से विशेष कर गंगा नदी अति पवित्र मानी जाती है। तुलसी के पौधे का उस की पवित्रता के कारण विशेष रुप से आदर किया जाता है। सभी वर्गों में मृतकों का दाह संस्कार किया जाता है और अस्थियों का बहते हुये जल में विसर्जन किया जाता है। सभी वर्गों के पर्व और त्यौहार मौसमी बदलाव, भारतीय महापुरुषों के जीवन की या जन-जीवन सम्बन्धी घटनाओं से जुड़े हुये हैं तथा किसी भी पर्व-त्यौहार के अवसर पर सार्वजनिक या सामूहिक ढंग से रोने धोने और छाती पीटने की कोई प्रथा नहीं है। हिन्दू धर्म ने स्दैव ही अपनी विचारधारा को समयनुसार परिवर्तनशील रखा है। धर्म संशोधक हिन्दू धर्म के ही उपासकों में से अग्रगणी हुये हैं, तथा अन्य धर्मों से कभी आयात नही किये गये। बौध मत, जैन मत, सिख सम्प्रदाय तथा आर्य समाज इस परिक्रिया के ज्वलन्त उदाहरण हैं। फलस्वरूप कई बार वैचारिक मतभेद भी पैदा होते रहे हैं और कालान्तर वह भी लहरों की तरह हिन्दू महा सागर में ही विलीन होते रहै हैं। सुधारकों तथा नये विचारकों को भी हिन्दू धर्म के पूजास्थलों में आदरयुक्त स्थान प्राप्त है।। स्नातन हिन्दू धर्म विश्व भर में विभिन्नता में एकता की इकलौती अदभुत मिसाल है। विदेशी धर्म वैसे तो मुसलिम तथा इसाई धर्म में भी हिन्दू धर्म के साथ कई समानतायें हैं किन्तु मुसलिम तथा इसाई धर्म भारत में जबरदस्ती घुसे और स्थानीय हिन्दू संस्कृति से हर बात पर उलझते रहे हैं। अपनी अलग पहिचान बनाये रखने के लिये वह स्थानीय साम्प्रदायिक समानताओं पर ही प्रहार करते रहे हैं। उन का विशवास जियो और जीने दो में बिलकुल नहीं था। वह खुद जियो मगर दूसरों को मत जीने दो के सिद्धान्त पर ही चलते रहै हैं। उन की विचारधारा तथा कार्य शैली में धर्म निर्पेक्ष्ता, सहनशीलता तथा परस्पर सौहार्द के लिये कोई स्थान नहीं। आज भी विश्व में यह दोनो परस्पर एक दूसरे का हनन करने में लगे हुये हैं। स्थानीय हिन्दू धर्म के साथ प्रत्येक मुद्दे पर कलह कलेश और विपरीत सोच के कारण विदेशी धर्म भारत में घुल मिल नही सके। हिन्दू विचारों के विपरीत विदेशी धर्म गृंथ पुनर्जन्म को भी नहीं मानते। उन के मतानुसार अक़ाबत या डूम्स डे (प्रलय) के दिन ही ईश्वर के सामने सभी मृतक अपनी क़बरों से निकल कर पेश किये जायें गे और पैग़म्बर या ईसा के कहने पर जिन के गुनाह माफ कर दिये जायें गे वह स्वर्ग में सुख भोगने के लिये चले जायें गे और शेष सज़ा पाने के लिये नरक में भेज दिये जायें गे। इस प्रकथन को यदि हम सत्य मान लें तो निश्चय ही ईश्वर भी हिन्दूओं के प्रति ही अधिक दयालु है क्योंकि मरणोपरान्त केवल हिन्दूओं का ही पुनर्जन्म होता है। केवल हिन्दूओं को ही अपने पहले जन्म के पाप कर्मों का प्रायश्चित करने और सुधरने का एक अतिरिक्त अवसर दिया जाता है। अतः अगर कोई हिन्दू पुनर्जन्म के बाद पशु-पक्षी बन के भी पैदा हुआ हों तो उसे भी कम से कम एक अवसर तो मिलता है कि वह पुनः शुभ कर्म कर के फिर से मानव बन कर हिन्दू धर्म में जन्म ले सके। अहिन्दूओं के लिये तो पुनर्जन्म का जोखिम ईश्वर भी नहीं उठाता। विविधता में ऐकता का सिद्धान्त केवल भारत में पनपे धर्म साम्प्रदायों पर ही लागू होता है क्योंकि हिन्दू अन्य धर्म के सदस्यों को उन के घरों में जा कर ना तो मारते हैं ना ही उन का धर्म परिवर्तन करवाते हैं। वह तो उन को भी उन के धर्मानुसार जीने देते हैं। इसी आदि धर्म को आर्य धर्म, स्नातन धर्म तथा हिन्दू धर्म के नाम से जाना जाता है। इस लेख श्रंखला में यह सभी नांम एक दूसरे के प्रायवाची के तौर पर इस्तेमाल किये गये हैं। अधिक लोकप्रिय होने के कारण हिन्दू धर्म और स्नातन धर्म नामों का अधिक प्रयोग किया गया हैं। हाथी के अंगों के आकार में विभन्नता है किन्तु वह सभी हाथी की ही अनुभूति कराते हैं। यही हिन्दू धर्म की विवधता में ऐकता है। चाँद शर्मा