त्रिवेल: राम, कृष्ण और उद्धव.................श्रीकृष्णार्पणमस्तु-3


स्टोरी हाइलाइट्स

त्रिवेल: राम, कृष्ण और उद्धव.................श्रीकृष्णार्पणमस्तु-3 trivail-rama-krishna-and-uddhav-sri-krishnanarpanamastu-3

त्रिवेल: राम, कृष्ण और उद्धव श्रीकृष्णार्पणमस्तु-3 रमेश तिवारी यहां से हम श्रीकृष्ण के निरंतर बढ़ते व्यक्तित्व पर चर्चा प्रारंभ करते हैं- शिक्षा और गुरु का क्या महत्व और गौरव होता है, व्यक्ति के निर्माण में| अभी तक श्रीकृष्ण का नाम संपूर्ण आर्यावर्त में अन्याय के प्रतिकार के रुप में जाना जाने तो लगा था। किंतु द्रुपद के परामर्श से वासुदेव ने जब कृष्ण और बलराम को अवंती भेजा, उनके साथ उनका एक और भाव मित्र भी साथ हो लिया। मथुरा की उथल-पुथल में उनके नजदीक आये और कृष्ण की छाया बन चुके देवभाग काका के पुत्र उद्वव भी कृष्ण के साथ अवंती गये। भ्राताओं की यह त्रिबेल अंत तक मित्रवत साथ रही। हाँ, इसमें एक जो चतुष्बेल पल्लवित हुई, वह भी इतनी ही महत्वपूर्ण थी। और वह दारुक के रुप में कृष्ण चौथा ऐसा साथी जो कृष्ण की मृत्यु तक उनके साथ रहा सारथि दारूक एक प्राण प्रमाणित हुआ। अब चलते हैं आर्यावर्त के महान और प्रतिष्ठित अंकपाद आश्रम में, जहांकि शस्त्र और शास्त्रों का प्रशिक्षण दिया जाता है। एक सुन्दर कुटीर में, वे बैठे हैं- आचार्य साँदीपनि। आर्यावर्त के राजपुत्रों के गुरु। सफेद दाढी़, विस्तृत नयन, सौम्य, मधुर और निष्ठावान ऋषि। महान वेदज्ञ सांदीपनि, अन्यायियों के काल महान ऋषि परशुराम के शिष्य भी हैं। धनुर्वेद की शिक्षा के शीर्ष। चारों वेदों सहित 14 कलाओं, परा और अलौकिक शक्तियों, शिक्षा, वाणी, योग, सांख्ययोग तथा जीवन के सूक्ष्म तर रहस्यों के उद्भट विद्वान। रथ छोड़ कर चारों लोग पहले गुरु की चरण वंदना करने गये। आध्यात्म के ऐसे महान गुरु की शरण। ज्ञान के आगार के श्रीचरणों में शीर्ष झुका कर श्री कृष्ण ने प्रथम दिवस में ही सब कुछ प्राप्त कर लिया मानो। अब से श्रीकृष्ण आश्रम की दैनंदिन चर्या में बढ़चढ़ कर भाग लेने लगे। अपनी मेधा, मधुरस्वरूप, मोहक, मस्कान और विनम्रता के कारण गुरुदेव की विशेष कृपा के पात्र हो गये। और गुरूमाता के के तो नयन तारे, मानो। आश्रम में हास्य, व्यंग, और ज्ञान के साथ ही विज्ञान एवं प्रज्ञान (शरीर शास्त्र) की शिक्षा तथा आत्मनिर्भर होने के सूत्र भी विशेष शिक्षकों द्वारा समझाये जाने लगे। सनातन धर्म में दया, करूणा, उपकार और क्षमा की शिक्षा भी दी जाने लगी। किंतु अभी तो एक महान घटना और भी होने वाली थी! "भविष्य में श्रीकृष्ण ने जिनकी मित्रता को आत्मरस (प्रेमाश्रु) से अभिसिंचित करके उस घटना को अमर, स्मृति बना दिया" (सुदामानगर) पोरबंदर, के एक छरहरे और स्वभाव से ही दीन ब्राह्मण पुत्र सुदामा से मिलने की।" उस प्रेम और मित्रता का अनुकरणीय उदारण भी देखें- अध्ययन पश्चात जब श्रीकृष्ण अंकपाद आश्रम से अपने रथ में बैठकर मथुरा लौट रहे थे, सुदामा, अपनी छोटी सी झोली टांगे धूप में पैदल जाते मिले। साधनहीन सुदामा, पांव, पांव ही घर लौट रहे थे। आश्रम के अपने अंतरंग मित्र की इस दीन दीन दशा को देख दीनदयाल की आंखें छलक पडी़ं। वे भावुक हो गये। श्रीकृष्ण ने मित्र को रथारूढ़ किया और मथुरा न जाकर पहले सुदामा को छोड़ऩे पोरबंदर तक गये। उसी कृपालुता और स्नेह के आत्मबल पर बाद में निर्धन सुदामा, द्वारिका तक जाने का साहस कर सके। यहां एक रोचक कथा का उल्लेख करना भी बहुत आवश्यक है! अंकपाद में शिक्षा ग्रहण करते समय कृष्ण सदैव गुरुपत्नी को एकाकी और उदास ही देखा करते थे। कारण कि एक समय कभी ऋषि परिवार पश्चिम समुद्र किनारे प्रभाष तीर्थ के अवसर पर पुण्य ध्येय से पहुंचे, उनका पुत्र पुनर्दत्त भी उनके साथ था। किंतु द्वारिका के समीप किसी गुफा में रहने वाले असुर शंखासुर ने गुरु पुत्र का अपहरण कर लिया था। इस घटना से गुरूमाता बहुत दुखी और बुझी, बुझी सी रहतीं थीं। आश्रम से विदा होने के बाद मथुरा पहुंचकर श्रीकृष्ण ने सेना सहित दाऊ के साथ शंखासुर पर अभियान प्रारंभ कर दिया। गुरू माता को दिये वचन के अनुसार कृष्ण निकल पडे़। मित्रो श्वेत सागर,(पश्चिम सागर), जो द्वारिका एवं उज्जानक के समीप राजा कुकुद्दिन के राज्य से लगा हुआ था, वहां गये। और शंखासुर से एक पखवाडे़ तक युद्ध कर पुनर्दत्त को मुक्त करवा लिया। श्रीकृष्ण को इस अभियान से दो बहुमूल्य उपलब्धियां और भी प्राप्त हुईं। एक तो रेवती रत्न के रूप में भाभी, जो कि कुकुद्दिन की योद्घा पुत्री थी, और दूसरा पांचजन्य शंख। शंखासुर अभियान में कुकुद्दिन, के संपर्क में आने के बाद श्रीकृष्ण ने रेवती के साथ बलराम का विवाह करवा दिया। और शंख जो शंखासुर ने भेंट किया था, उसको लेकर कृष्ण अंकपाद लौटे और गुरुचरणों में भेंटकर दिया। किंतु प्रथम बार फूंक कर बार उस शंख का नाम "पांचजन्य" नामकरण करके ऋषि सांदीपनि ने कृष्ण को ही लौटा दिया। पुनर्दत्त अभियान के कारण ही समुद्र किनारे द्वारिका की स्थापना का विचार उत्पन्न हुआ। शंखासुर का निदान, कुकुद्दिन से आत्मीय संबंध सहित और भी कारण थे कि श्रीकृष्ण ने मथुरा से अपने यादवों को द्वारिका बसा कर वहां ले जाने पर सबको राजी कर लिया। तब तक विदा| धन्यवाद|