बीस साल पहले और आज भी वही, अघोषित बिजली कटौती.. सरयूसुत


स्टोरी हाइलाइट्स

मध्यप्रदेश में पिछले कुछ दिनों से अघोषित बिजली कटौती हो रही है . ऐसा लगता है कि 20 साल पहले दिग्विजय राज में..

बीस साल पहले और आज भी वही, अघोषित बिजली कटौती.. सरयूसुत मध्यप्रदेश में पिछले कुछ दिनों से अघोषित बिजली कटौती हो रही है. ऐसा लगता है कि 20 साल पहले दिग्विजय राज में बिजली कटौती कि जो काली छाया मध्य प्रदेश पर पड़ी थी, वह 20 साल बाद भी मध्य प्रदेश को घेरे हुए है. उस दौर में पूरे प्रदेश में बिजली कटौती हो रही थी. यहां तक कि मुख्यमंत्री निवास में भी बिजली की कटौती की जा रही थी. उस समय भी कोयले की कमी और अव्यवस्थाओं का रोना रोया जा रहा था. आज 20 साल बाद भी हम करीब-करीब वहीं खड़े हैं. आज भी यह कहा जा रहा है कि विद्युत संयंत्रों को कोयला कम मिल रहा है. पानी कम है, इसलिए हाइड्रोपावर का  जनरेशन नहीं हो पा रहा है. कोयला कंपनियों का 1000 करोड़ विद्युत कंपनियों पर बकाया है. 75000 मेट्रिक टन कोयला संयंत्रों को प्रतिदिन चाहिए, जबकि 25000 मेट्रिक टन कोयला ही मिल पा रहा है. ऐसी स्थिति क्यों बन रही है ? उपभोक्ताओं से बिजली कंपनियां राशि ले रही हैं, तो फिर यह राशि कहाँ जा रही है ? इसे बिजली उत्पादन के लिए क्यों खर्च नहीं किया जा रहा. मध्य प्रदेश ऐसा राज्य है जहां बिजली की दरें काफी ज्यादा है. नियामक आयोग के नाम पर सरकार मध्यम वर्ग को यह समझाती रहती है कि दरों का निर्धारण नियामक आयोग करता है. सरकार का उससे कोई लेना देना नहीं है. दूसरी तरफ जिन वर्गों को लुभाना होता है, उन्हें सब्सिडी देकर उपकृत किया जाता है. सब्सिडी एक तरह से बिजली कंपनियों का नुकसान ही है, भले ही सरकार यह दावा करती हो कि वह कंपनियों को सब्सिडी का भुगतान करती है. लेकिन यह भुगतान कई बार लेखों में एडजस्टमेंट के रूप में होता है या ऋण की गारंटी के रूप में होता है. इस राशि का सीधा लाभ बिजली कंपनियों को मिल पाता है, ऐसा लगता नहीं है. मध्यप्रदेश में बिजली संकट दिग्विजय सरकार के कार्यकाल में चरम पर था. बिजली को लेकर पूरे प्रदेश में हाहाकार मचा हुआ था. मध्य प्रदेश को “लालटेन प्रदेश” के रूप में कहा जाने लगा था. उस समय की सरकार ने संयंत्रों की स्थापना का प्रयास किया और उस सरकार के बाद सत्ता में आई सरकार ने भी इस दिशा में सतत प्रयास किये. आज जो स्थिति बनी हुई है उसे देख कर तो ऐसा लगता है कि इतने सालों बाद भी हम बिजली के मामले में आत्मनिर्भर नहीं हो पाए हैं, जबकि अभी भी प्रदेश के कई दूरस्थ अंचलों में बिजली के कनेक्शन पहुंचाना है. बिजली मंडल और बाद में बिजली कंपनियों की दुर्दशा का बड़ा कारण बिजली को मतदाताओं को लुभाने का साधन बनाया जाना है. कृषि पंपों को बिजली बिल की माफी और झुग्गी झोपड़ियों को मुफ्त बिजली देना. किसानों को बिजली की सब्सिडी और चुनाव में रियायती दर पर बिजली देने का वायदा करके सरकारें किसी भी ढंग से अपना वादा पूरा करती हुई तो दीखना चाहती हैं, लेकिन अंततः उसका दुष्परिणाम आम लोगों को ही बिजली संकट और बिजली कटौती के रूप में भुगतना पड़ता है. दस हज़ार करोड़ से ज्यादा की राशि सब्सिडी के रूप में किसानों को दी जा रही है. पिछली कांग्रेस की सरकार में ‘इंदिरा ज्योति योजना’ के नाम पर सस्ती बिजली देकर बिजली कंपनी को करोड़ों का नुकसान पहुंचाया गया था. बिजली संकट पर समाचार पत्रों में जो खबरें प्रकाशित हुई हैं, उनमें एक महत्वपूर्ण बात यह सामने आई है कि, फर्जी आंकड़ों की बुनियाद पर प्रदेश की बिजली व्यवस्था खड़ी हुई है. प्रदेश में विद्युत संयंत्रों की स्थापित क्षमता का आधा भी उत्पादन नहीं हो रहा है. बिजली खरीदी के नाम पर भी अनाप-शनाप खरीदी की जा रही है. बिजली खरीदी की दरों पर अनेक बार सवाल उठते रहे हैं. विद्युत संयंत्रों की स्थापित क्षमता और वास्तविक उत्पादन में अंतर सामने आ रहा है. वह तो सिस्टम का बहुत बड़ा खेल होता है, चाहे बिजली के परियोजनाएं हों ,चाहे सिंचाई की हो या कोई अन्य परियोजनायें,इन्हें बनाते समय ही प्रस्तावित क्षमता बढ़ा चढ़ाकर इसलिए बताई जाती है, ताकि परियोजना की लागत बढ़ाई जा सके. परियोजना पूर्ण होने के बाद उत्पादन के समय तक लोकतांत्रिक सरकार बदल जाती है और कोई भी सरकार इन परियोजनाओं के निर्माता अभियंताओं से यह सवाल नहीं करती कि संयंत्रों की प्रस्तावित क्षमता से उत्पादन कम क्यों है ? सरकारों को इस बात का एक सर्वे करना चाहिए कि ऐसी योजनाएं और परियोजनाएं, जो उत्पादन के अनुमान के आधार पर लागत के अनुसार निर्मित की गई हैं, उनका वास्तविक उत्पादन कितना हो रहा है और उत्पादन में कमी के लिए कौन जिम्मेदार है ? जल संसाधन विभाग के जो जलाशय बनते हैं उसमें भी आए दिन यह बात सामने आती है कि जितने क्षेत्र में सिंचाई के लिए जलाशय की परिकल्पना और आकलन किया गया था उतने  क्षेत्र में सिंचाई नहीं हो रही है. इसके लिए कौन जिम्मेदार है ? उस पर जिम्मेदारी तय होनी चाहिए, तभी व्यवस्था में सुधार संभव हो सकेगा. एक बरसात में सड़क गड्ढे में बदल जाती हैं.  पुल चरमरा कर ढह जाते हैं. जलाशय टूट जाते हैं. बिजली संकट सामने खड़ा होता है. इस स्थिति को देखकर तो ऐसा लगता है कि विकास का जो एहसास चमकदार भाषणों और योजनाओं से कराया जाता है, वह वास्तविक नहीं होती. विकास की सच्चाई जब सामने आती है, तब सरकार जांच और सुधारने की बात करती है. लेकिन जनता को जो दुष्परिणाम भुगतना करना पड़ता है वह जनता ही जानती है.