क्या कर्ण सचमुच महान था?-दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

क्या कर्ण सचमुच महान था? -दिनेश मालवीय किसी की महानता का अनुमान उसके किसी एक ख़ास गुण या कार्य से नहीं, बल्कि उसके सम्पूर्ण चरित्र के आधार पर किया जाता है. बहुत से लोग ऐसे होते हैं, जो ऐसे लोगों को महान सिद्ध करने की कोशिश करते हैं, जिन्हें हमारे पूर्वजों ने महान नहीं माना. ऐसे अनेक पौराणिक चरित्र हैं, जिन पर महानता थोपने की कोशिश की गयी और की जा रही है. इन चरित्रों में महाभारत के अंदर महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला कर्ण शामिल है. कर्ण ने अपने जीवन में जो कार्य किये, उन्हें देखकर उसे कहीं से भी महान नहीं कहा जा सकता. यह ज़रूर है कि कोई भी व्यक्ति न पूरी तरह बुरा होता है और न पूरी तरह महान. उसमें अच्छाई और बुराई की मात्रा के आधार पर उसे अच्छा या बुरा ठहराया जाता है. बेशक कर्ण में कुछ बातें अच्छी बातें भी थीं, लेकिन बुराइयां इतनी अधिक थीं कि उसे महान नहीं कहा जा सकता. शुरू से ही उसकी व्यक्तित्व, आचरण और कर्मों को देखा जाए तो यह बात बहुत स्पष्ट हो जाती है. कर्ण के व्यक्तित्व में अवगुणों का अनुपात गुणों से कहीं अधिक था. उसमे एक सबसे बड़ा दोष यह था कि उसमें अर्जुन और सभी पाण्डवों के प्रति शुरू से ही जलन थी. उसमें यह अवगुण बिल्कुल दुर्योधन की तरह था. वह गुरु द्रोणाचार्य से भी द्वेष रखता था, क्योंकि उन्होंने उसे ब्रहास्त्र का ज्ञान देने से इंकार कर दिया था. प्रारंभिक शिक्षा तो उसने द्रोणाचार्य और कृपाचार्य से ग्रहण की, लेकिन जब वह ब्रह्मास्त्र की विद्या मांगने लगा, तो द्रोण ने मना कर दिया. आखिर यह तो गुरु का विशेषाधिकार है कि वह किसे क्या दे और क्या नहीं. वह तेष में उनका आश्रम छोड़कर चला गया और फिर परशुराम से शिक्षा ली. परशुराम से भी उसने यह झूठ बोलकर शिक्षा ग्रहण की कि वह ब्राह्मण है. परशुराम को यदि वह अपना परिचय दे देता, तो शायद वो उसे शिक्षा देने को राजी नहीं होते और शायद हो भी सकते थे. पितामह भीष्म और गुरु द्रोणाचार्य भी उनके शिष्य थे. बहरहाल, लेकिन कर्ण ने गुरु से झूठ बोलकर शिक्षा प्राप्त की, जो बहुत बड़ा अपराध और पाप माना गया है. जब गुरु को इस झूठ का पता चला तो उन्होंने श्राप दे दिया कि जब उसे इस विद्या की सबसे ज्यादा ज़रुरत होगी तब वह उसे भूल जाएगा. ऐसा ही हुआ और यही श्राप अर्जुन के हाथों उसके वध का कारण बना. इसके बाद, उसने कौरव-पांडवों की शिक्षा पूरी होने पर उनके कौशल प्रदर्शन के अवसर पर अनाधिकार चेष्टा करते हुए, अर्जुन को द्वन्द की चुनौती दी. यह कौरव-पाण्डव वंश का आतंरिक आयोजन था. इसमें कौरवों और पाण्डवों को गुरु से सीखी हुयी विद्या का प्रदर्शन करना था. इसमें उनके परिवार के लोग और प्रजाजन उपस्थित थे. कर्ण ने जिस तरह जबरन वहाँ पहुँचकर बखेड़ा खड़ा किया, वह किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता. अर्जुन और पाण्डवों के प्रति उसकी घृणा का दुर्योधन ने लाभ उठाते हुए, उसे अंगदेश का राजा घोषित कर दिया, ताकि उसे अर्जुन के साथ द्वंद्व युद्ध की पात्रता हो जाए. दुर्योधन ने ऐसा कर्ण के प्रति स्नेह या सौहार्द के कारण नहीं किया. उसने देखा कि यह शक्तिशाली वीर पाण्डवों के खिलाफ उसके काम आ सकता है. इसके बाद वह दुर्योधन और शकुनी मामा द्वारा पाण्डवों के खिलाफ किये गए हर षड्यंत्र में शामिल रहा. जब लाक्षागृह में पाण्डवों को जिंदा जलाने की साजिश की गयी, तब उसने यह कहकर थोड़ा-बहुत विरोध तो किया कि हमें इन वीरों को धोखे से नहीं मारना चाहिए. उनका युद्ध में वध करना चाहिए. लेकिन उसके इस विरोध में कोई बहुत जोर नहीं था. यदि वह सचमुच इसके विरोध में होता तो, तत्काल दुर्योधन का साथ छोड़ देता. उससे चिपका नहीं रहता. इसके बाद द्यूतक्रीड़ा में जो षड्यंत्र हुआ वह उसमें भी सहभागी रहा. पाण्डव जब सबकुछ हार गये और उन्होंने द्रोपदी को भरी सभा में निर्वास्त्र करने का प्रयास किया, तब कर्ण ने उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित किया. उसने द्रोपदी को सार्वजनिक रूप से वैश्या तक कहा. यह ठीक है कि स्वयंबर के समय उसने कर्ण को सूतपुत्र कहकर उसे धनुष पर प्रत्यंचा चढाने से रोक दिया था. लेकिन वह सूतपुत्र के रूप में ही जाना जाता था. कन्या को अपना वर चुनने का अधिकार था. लेकिन क्या लेकिन कर्ण द्वारा उसे भरी सभा में वैश्य कहा जाना क्या यह उसकी महानता थी? पाण्डव जब सबकुछ गँवाकर वन में चले गये, तब दुर्योधन और शकुनी ने उन्हें वन में परेशान करने की साजिश रची. इसमें भी कर्ण का पूरा सहयोग रहा. वह पाण्डवों को सताने वन में गया. यह बात अलग है कि उन्हें गन्धर्वों ने पराजित कर दुर्योधन को बंदी बना लिया. कर्ण वहाँ दुर्योधन को उसके हाल पर छोड़कर जान बचाकर भाग निकला. क्या यही उसकी वीरता और महानता थी? इसके बाद सबसे घृणित कार्य तो उसने अभिमन्यु वध के दौरान किया. अकेले बालक अभिमन्यु को निहत्था कर उसे जिन महारथियों ने अनीतिपूर्वक घेरकर मारा उनमें द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, दुर्योधन, दुशासन और कर्ण शामिल थे. क्या यही उसकी वीरता और महानता थी. कर्ण की दानवीरता की बात बहुत मशहूर है. लेकिन सिर्फ इसके कारण वह महान नहीं हो जाता. उसने इंद्र को अपने कवच-कुंडल दान में दे दिए. लेकिन इसमें भी उसका अहंकार छुपा था. वह इसमें अपनी महानता बताना चाहता था. साथ ही यह भी जताना चाहता था कि इनके बिना भी वह अर्जुन को मार सकता है. यदि दान ही दिया था तो उसके प्रतिदान के रूप में इंद्र द्वारा दी गयी वैजयंती शक्ति को क्यों स्वीकार किया? इंकार कर देता. उसने अहंकार के कारण ही पितामह के नेतृत्व में युद्ध करने से इनकार कर दिया था. कर्ण के अर्जुन से श्रेष्ठ होने की बात का भी बहुत प्रचार किया जाता है, लेकिन विराट के युद्ध में अर्जुन ने अकेले ही पूरी कौरव सेना को हरा दिया था, जिसमें कर्ण भी शामिल था. यह भी कहा जाता है कि उसे जब श्रीकृष्ण द्वारा यह बताया गया कि वह ज्येष्ठ कुंती पुत्र है, तब भी उसने दुर्योधन का पक्ष छोड़ने से इनकार कर दिया. इसे दोस्ती निभाने के महान गुण के रूप में बताया जाता है. चलिए यदि ऐसा हो भी तो दानवीरता और दोस्ती निभाने के गुण के अलावा उसमें महानता का कोई गुण नज़र नहीं आता. वह जानबूझ कर अधर्म के पक्ष में बना रहा. इन सब बातों पर विचार करने पर यही सिद्ध होता है कि कर्ण कोई महान व्यक्ति नहीं था. ज्यादा से ज्यादा यह कहा जा सकता है कि उसमें बहुत सी बुराइयाँ होने के बाद भी कुछ अच्छे गुण भी थे. उस पर महानता सिर्फ थोपी जाती रही है.