शांति क्या है? कैंसे होती है शांति साधना? वैदिक शांति पाठ क्या है? 


स्टोरी हाइलाइट्स

शांति शब्द 'शम्' धातु से बना है जिसके अनेक अर्थ हैं, जैसे- बुरा प्रभाव हटाना, शम करना, प्रसन्न होना, दूर करना आदि, वेदों में शम् धातु तथा इसके रूप अनेक...

शांति क्या है? कैंसे होती है शांति साधना? वैदिक शांति पाठ क्या है? 
 
शांति शब्द 'शम्' धातु से बना है जिसके अनेक अर्थ हैं, जैसे- बुरा प्रभाव हटाना, शम करना, प्रसन्न होना, दूर करना आदि, वेदों में शम् धातु तथा इसके रूप अनेक स्थानों पर प्रयुक्त हुए हैं जिनका अर्थ सुख, कल्याण, स्वास्थ्य या धन आदि से लगाया जाता है.

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अथर्ववेद में शांति शब्द १७ बार आया है. इसके मंत्रों में देवों, ग्रहों, उल्कापातों, नक्षत्रों, राहु, धूमकेतु, ऋषियों आदि की स्तुतियां सुख देने के लिए की गयी हैं. इन शांति मंत्रों में यह प्रार्थना की गयी है कि समस्त दारुण, क्रूर, अशुभ और बुरे प्रभाव दूर होकर शुभ, प्रसन्न और सुखप्रद हों. इसके अतिरिक्त, तैत्तरीय संहिता, वाजसनेयी संहिता, शतपथ ब्राह्मण आदि अनेक ग्रंथों में शांति कर्मों का उल्लेख हुआ है. 

इससे यह स्पष्ट होता है कि शांति कर्मों का वैदिक संहिताओं में बहुत महत्व है. ऋग्वेद में कुछ ऐसी अशुभ घटनाओं का उल्लेख मिलता है जिन्हें दूर करने के लिए यज्ञ द्वारा देवों को प्रसन्न या शांत करने की बात कही गयी है, 

यथा अद्या नो देव सवितः प्रजावत् सावीः सौभगम्। परा दुःखष्वप्न्यं सुव। विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव। 

अर्थात् हे सविता देव! आज संतति से युक्त कल्याण हमारे लिए उत्पन्न करो. हे सविता देव! सभी पापों को दूर करो तथा हमें वह दो जो शुभ हो.

वैदिक शांतिकर्मों के विषय में शांखायनगृह्यसूत्र वर्णन है कि यदि कोई रोगग्रस्त हो जाये तो उसे ऋग्वेद के मंत्रों, जो रुद्र की स्तुति में कहे गये हैं, के साथ अन्न की आहुतियां देनी चाहिए. यदि घर में मधुमक्खियां छत्ता बना लें तो108 उदुम्बर टुकड़ों को दही, मधु एवं घी से युक्त करके यज्ञ करना चाहिए.

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किसी भी प्रकार का दुःस्वप्न देखने पर उपवास करके खीर की आहुतियां अग्नि में देनी चाहिए. उसे रात्रिसूक्त का पाठ करके ब्राह्मण को भोजन, दक्षिणा आदि देनी चाहिए. ऐसा करने से स्वप्न का दुष्प्रभाव समाप्त हो जाता है.

अनेक ग्रंथों में इस तरह के अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि शांतिकर्म का प्रयोग न केवल क्रुद्ध देवों या शक्तियों को शांत करने के लिए, वरन् दुःस्वप्नों, सूर्य-चन्द्र ग्रहण, पशु पक्षियों की अशुभ बोलियों आदि की शांति के लिए भी किया जाता था.

वैदिककाल के बाद मध्यकाल में भी शांति कर्मों का बड़ा महत्व रहा. इस समय सूर्य आदि ग्रहों को प्रसन्न करने के लिए, शनैश्चर-व्रत एवं शांति, पांच या अधिक ग्रहों के अशुभ योग, ग्रहस्नान, ज्वर या अन्य रोग, नक्षत्र शांति, नवजात शिशु के जन्म के समय उग्र ग्रहों के लिए, अशुभ योग या करणादि होने पर की जाने वाली, गर्भिणी के भ्रूण की रक्षा हेतु, सरलता पूर्वक प्रसव हेतु, देव, पितरों, देवों आदि को प्रसन्न करने के लिए, दुष्ट आत्मा द्वारा पकड़े जाने पर पक्षियों के मैथुनरत देखने पर, शरीर पर छिपकली या गिरगिट गिरने पर, भूचाल, संक्रांति एवं ग्रहण के समय किये जाने वाले शांतिकर्मों का वर्णन प्राप्त होता है.


इनके दुष्प्रभावों को कम करने तथा सुख-शांति के लिए विभिन्न पदार्थों को भिन्न-भिन्न मंत्रों के साथ अग्नि में अर्पित करने के विधान बताये गये हैं. रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों में भी ऐसे उत्पातों का वर्णन है जो अशुभ घटनाओं के सूचक होते थे. 

मत्स्यपुराण, वराहपुराण, विष्णुपुराण आदि में विभिन्न नामों वाली शांतियों का उल्लेख है. मत्स्यपुराण में वर्णित प्रमुख 18  शांतियां इस प्रकार हैं- अभय शांति तब की जाती है जब राजा शत्रुओं से घिरा हो और वह विजयी होना चाहता हो. सौम्य शांति तब की जाती है जब राजरोग हो जाता है. वैष्णवी शांति की व्यवस्था भूकंप, दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि आदि के समय की जाती है. रौद्री का प्रयोग महामारी या भूत-प्रेत द्वारा बाधा उपस्थित होने पर किया जाता है.

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ब्राह्मी शांति का प्रयोग तब किया जाता है जब नास्तिकता फैलने का भय होता है या जब कुपात्रों को सम्मान मिलने लगता है. जब तीव्र अंधड़-तूफान चलते हैं तब वायवी शांति की जाती है. वारुणी शांति असामान्य वर्षा होने पर की जाती है. प्रजापत्य शांति असामान्य जनन होने पर की जाती है. त्वाष्टी शांति हथियारों की असामान्य दशाओं पर तथा कौमारी बच्चों की कुशलता के लिए की जाती है. 

आग्रेयी शांति अग्नि के लिए तथा गान्धर्वी पत्नी या भृत्यों के नाश होने पर अथवा अवों के लिए की जाती है, आंगिरसी शांति हाथियों के विकृत होने पर तथा नैऋती पिशाचों का भय होने पर की जाती है. याम्या मृत्यु या दुःस्वप्न होने पर तथा कौबेरी धन की हानि में की जाती है. वृक्षों की असामान्य दशा पायी जाने पर पार्थिवी शांति और ज्येष्ठा एवं अनुराधा नक्षत्र में होने वाले उत्पातों के लिए ऐन्द्री शांति की जाती है.

वेदों में वर्णित अधिकांश शांति-कर्म वर्तमान में देखने में नहीं आते, परंतु कुछ शांतियां आज भी प्रचलित हैं, जैसे- गणपति-पूजन या विनायक शांति, वास्तु-शांति, नवग्रह शांति, रुद्राभिषेक या लघुरुद्र, मूल-शांति, शतचण्डी या लखचण्डी पाठ आदि. 

आज भी गांव-देहातों में भाद्रपद में गाय, माघ में भैंस, वैशाख में ऊंटनी, मार्गशीर्ष में हथिनी, ज्येष्ठा में बिल्ली तथा श्रावण में घोड़ी के बच्चा होने पर अशुभ समझा जाता है और इसकी शांति की जाती है. साथ ही, शरीर के किसी अंग पर छिपकली या गिरगिट के गिरने या स्पर्श होने पर स्नान किया जाता है.


प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख है कि ऐसा होने पर स्नान करके पंचगव्य पीना चाहिए तथा छिपकली या गिरगिट की प्रतिमा लाल वस्त्र में लपेट कर दक्षिणा सहित दान करनी चाहिए.

गणपति-पूजा आज भी विवाह एवं उपनयन संस्कार सहित लगभग सभी कार्यों के प्रारंभ में की जाती है. ब्रह्माण्डपुराण में वर्णन है कि गर्भाधान से लेकर जातकर्म आदि संस्कारों, यात्रा, व्यापार, युद्धकाल, देव-पूजा, संकट तथा इच्छाओं की सिद्धि में गणपति की पूजा अवश्य की जानी चाहिए. 

इसी प्रकार, किसी ग्रह के दोषयुक्त होने पर उस ग्रह से संबंधित मंत्रों आदि से भी शांति की जाती है. ग्रंथों में नवग्रहों से संबंधित मंत्र, समिधा तथा पूजन में काम आने वाली भिन्न-भिन्न वस्तुओं का उल्लेख प्राप्त होता है जिनके प्रयोग से उस ग्रह की अनुकूलता प्राप्त होती है.

इसके अतिरिक्त, किसी के असाध्य रोगग्रसित होने पर रुद्राभिषेक या महामृत्युंजय जप कराया जाता है. इसी तरह किसी विशेष कामना की पूर्ति के लिए दुर्गा सप्तशती का एक लाख बार पाठ किया जाता है. आज भी कहीं वर्षा न होने अथवा कोई प्राकृतिक आपदा आने पर कुछ लोग जनहितार्थ यज्ञादि करते हैं. इस प्रकार, मूल रूप से इन शांतियों का उद्देश्य समस्त दुःख-कष्ट का निवारण करके सुख-शांति प्राप्त करना ही है.

प्रणव नारायण