श्रद्धा क्या है? क्या विश्वास से दुनिया बदल सकती है?


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श्रद्धा क्या है? क्या विश्वास से दुनिया बदल सकती है?
                             What is reverence? Can faith change the world?

बाह्य चेतना-जन्य बोध आन्तरात्मिक बोध को अस्वीकार कर सकता है। तथापि, अंतरात्मा में सच्चा ज्ञान एवं सहज स्फुरित ज्ञान निहित है। अन्तरात्मा कहती है, 'मैं जानती हूँ; मैं युक्तियाँ नहीं दे सकती, पर मैं जानती हूँ।' क्योंकि इसका ज्ञान मानसिक अनुभव पर आश्रित या प्रमाणों से सत्य सिद्ध किया हुआ नहीं होता। यह प्रमाण दिये जाने के बाद ही विश्वास करती हो ऐसी बात नहीं; अन्तरात्मा का ज्ञान सहज-स्फुरित एवं प्रत्यक्ष होता है और ऐसी अन्तरात्मा की क्रिया को ही श्रद्धा कहते हैं। चाहे सारा संसार इनकार करे और विरोध में सहस्रों प्रमाण प्रस्तुत करे, तो भी उसका ज्ञान एक ऐसा अन्तर्ज्ञान एवं साक्षात् प्रत्यक्ष होता है, जो उन सब का निराकरण कर सकता है। वह होता है तादात्म्यलब्ध ज्ञान। 

अन्तरात्मा का ज्ञान एक मूर्त एवं गोचर वस्तु तथा ठोस पिण्ड होता है। तुम इसे अपने मन, अपने प्राण तथा अपने शरीर में भी ला सकते हो और तब तुम में पूर्ण श्रद्धा उदित होगी| ऐसी श्रद्धा जो सचमुच पहाड़ उठा सकती है। परंतु हमारी सत्ता के किसी भाग को अविश्वासी के रूप में प्रकट होकर यों नहीं कहना चाहिये, 'यह बात ऐसी नहीं है' और न उसे प्रमाण की माँग ही करनी चाहिये। जरा भी अधूरे विश्वास से तुम सब मामला बिगाड़ देते हो। यदि श्रद्धा पूर्ण एवं अटल न 1. हो तो परम देव भला कैसे प्रकट हो सकते हैं। श्रद्धा अपने-आप में सदा अविचल होती है| यह इसका निज स्वभाव ही है; क्योंकि अन्यथा इसे श्रद्धा कह ही नहीं सकते। 

इस आपदा का हल : विश्वास और श्रद्धा !
परंतु, सम्भव है कि मन या प्राण या शरीर अन्तरात्मा की गति का अनुसरण न करे यह हो सकता है कि किसी मनुष्य में एक योगी के पास जाकर सहसा ऐसी श्रद्धा पैदा हो कि यह व्यक्ति मुझे मेरे लक्ष्य पर पहुंचा देगा। उसे मालूम नहीं कि इस व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त है या नहीं। उसे आन्तरात्मिक आवेगका अनुभव होता है और ऐसा जान पड़ता है कि उसे गुरु मिल गये है। वह बहुत देर मन में सोच-विचारकर या अनेक चमत्कार देख लेने पर ही विश्वास नहीं करता और केवल इसी कोटिकी श्रद्धा ही उपयोगी होती है। यदि तुम तर्क-वितर्क शुरू कर दो तो सदैव अपनी भवितव्यता से हाथ धो बैठोगे। कुछ लोग यह सोचने बैठ जाते हैं कि आन्तरात्मिक आवेग युक्तिसंगत है या नहीं।



लोगों के पथभ्रष्ट होने का कारण वास्तव में तथाकथित अन्धविश्वास नहीं होता। वे प्राय: कहते हैं, 'अहो, मैंने अमुक-अमुक व्यक्ति में विश्वास किया और उसने मुझे धोखा दिया है।' परंतु सच पूछिये तो दोष उस व्यक्ति का नहीं, बल्कि विश्वास करने वाले का होता है। उसके अपने अंदर ही कोई कमजोरी होती है। यदि वह अपना विश्वास अटूट बनाये रखता तो वह उस व्यक्ति को बदल देता। क्योंकि वह उसी श्रद्धामय चेतना में स्थिर नहीं रहा, अतएव उसने अपने को प्रवंचित अनुभव किया और उस व्यक्ति को वह जिस रूप में देखना चाहता था, उस रूप में नहीं देख पाया। यदि उसमें पूर्ण श्रद्धा होती तो वह उस व्यक्ति को बदलने के लिये बाध्य कर देता। श्रद्धा से ही सदा चमत्कारों की सृष्टि होती है। 

एक व्यक्ति किसी दूसरे के पास जाता है और वहाँ भागवत-उपस्थिति का सम्पर्क प्राप्त करता है; यदि वह इस सम्पर्क को शुद्ध और सुरक्षित रख सके तो इससे भागवत चेतना अत्यन्त जड भाग तक में प्रकट होने को बाध्य होगी। परंतु सब कुछ तुम्हारी अपनी आदर्श मर्यादा एवं तुम्हारी अपनी सत्यता पर निर्भर है; जितना ही अधिक तुम आन्तरात्मिक तौर पर तैयार होगे, उतना ही अधिक ठीक मार्ग तथा ठीक गुरु की प्राप्ति की दिशा में प्रेरित होंगे। अन्तरात्मा और उसकी श्रद्धा सदा सच्ची होती है; पर यदि तुम्हारी बाह्य सत्ता में छल कपट है और यदि तुम आध्यात्मिक जीवन के बदले वैयक्तिक सिद्धियों की प्राप्ति का यत्न कर रहे हो तो यह चीज तुम्हें पथभ्रष्ट कर सकती है। तुम्हें भटकाने वाली चीज यही है, न कि तुम्हारी श्रद्धा। यह संभव है कि श्रद्धा, अपने-आप में शुद्ध होने पर भी, हमारी सत्ता में निम्न चेष्टाओं के योग से मिलावटी बन जाय; और जब ऐसा होता है, तभी तुम गलत रास्ते पर जा पड़ते हो।