पाप क्या है पुण्य क्या है?


स्टोरी हाइलाइट्स

पापं कुर्वन्पापकीर्तिः पापमेवाश्नुते फलम्।पुण्यं कुर्वन्पुण्यकीर्तिः पुण्यमत्यन्तश्नुते।।५.१५.१।।पाप कीर्ति वाला (गलत कार्य करने वाला ) मनुष्य पाप करत....

पापं कुर्वन्पापकीर्तिः पापमेवाश्नुते फलम्। पुण्यं कुर्वन्पुण्यकीर्तिः पुण्यमत्यन्तश्नुते।।५.१५.१।। पाप कीर्ति वाला (गलत कार्य करने वाला ) मनुष्य पाप करते हुए पापरूप फल को ही प्राप्त करता है तथा पुण्य - कर्म (अच्छा कार्य करने वाला ) मनुष्य पुण्य करते हुए पुण्य रूप फल को ही प्राप्त करता है।  इसलिये मनुष्य को गलत कार्य छोड़कर सदैव अच्छे कार्य करना चाहिये ताकि उसे अच्छे कार्य का फल भी मीठा प्राप्त हो। तस्मात्पापं न कुर्वीत पुरुषः शंसितव्रतः। पापं प्रज्ञां नाशयति क्रियमाणं पुनः पुनः।।५.१५.२।। इसलिये प्रशंसा प्राप्त यशवान् मनुष्य को पाप कभी नहीं करना चाहिये ; क्योंकि बार-बार पाप करने से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। नष्टप्रज्ञः पापमेव नित्यमारभते नरः। पुण्यं प्रज्ञां वर्धयति क्रियमाणं पुनः पुनः।।५.१५.३।। जिस मनुष्य की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है , वह निरन्तर पाप कर्म ही करता रहता है।  इसी प्रकार बार - बार  पुण्य कर्म करने से बुद्धि का विकास होता है। वृद्धप्रज्ञः पुण्यमेव नित्यमारभते नरः। पुण्यं कुर्वन्पुण्यकीर्तिः पुण्यस्थानं स्म गच्छति। तस्मात्पुण्यं निषेवेत पुरुषः सुसमाहितः।।५.१५.४।। जिस मनुष्य की बुद्धि विकसित होती है अर्थात् बुद्धि बढ़ती है , वह मनुष्य सदैव पुण्य कर्म करता है।  जिसके कारण वह यश प्राप्त करता है और पुण्य लोक की प्राप्ति करता है। इसलिये मनुष्य को सदैव सावधान होकर पुण्य कर्म करना चाहिये तथा पाप कर्म नहीं करना चाहिये।