क्या खास है हिंदू संस्कृति में ?


स्टोरी हाइलाइट्स

ऊपर इस बातपर पर्याप्त प्रकाश डाला जा चुका है कि कोई जाति अपने दर्शनशास्त्र के अनुसार लौकिक, पारलौकिक सत्यासत्य-विवेचनद्वारा परम सुख-शान्ति, मोक्ष, आत्मा, ब्रह्म या स्वर्गका जो स्वरूप निर्णय करती है

क्या खास है हिंदू संस्कृति में     कोई जाति अपने दर्शनशास्त्र के अनुसार लौकिक, पारलौकिक सत्यासत्य-विवेचनद्वारा परम सुख-शान्ति, मोक्ष, आत्मा, ब्रह्म या स्वर्गका जो स्वरूप निर्णय करती है, उसकी प्राप्तिमें सहायक, लौकिक-पारलौकिकअभ्युदयप्रद, धर्मशास्त्र-प्रतिपादित, समस्त सम्यक् भूषणभूत चेष्टाएँ ही उस जाति की संस्कृति कहलाती हैं। इसलिये किसी जाति की संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता और उसकी समस्त विशेषताओंका मूल उस जाति का दर्शनशास्त्र होता है। हिंदू-दर्शन या वैदिक दर्शनशास्त्र ही हिंदू-संस्कृतिकी समस्त विशेषताओं के मूल में स्थित है। नानात्वमय समस्त दृश्य प्रपंचके प्रत्यक्ष बहुत्ववादसे अलक्ष्य, अगोचर, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्षसे परे, निर्गुण-निराकार एक-तत्ववादी, अद्वैत-सिद्धान्तकी प्रतिष्ठा ही हिंदू-दर्शन की मौलिक विशेषता है। साकार-निराकारका पूर्ण समन्वय हिंदू दर्शनोंमें ही पाया जाता है। यही कारण है कि हिंदू संस्कृत में व्यावहारिक उत्तमता और पारमार्थिक श्रेष्ठ दोनों पूर्णिमा की सीमा पर प्रतिष्ठित हैं। जगद्व्यवहार में प्रतिपल व्यवहार करते हुए भी हिंदू द्वैत-प्रपंच से उठकर अद्वैतस्वरूप-निष्ठा-जीवन्मुक्ति की अवस्था प्राप्त करने में समर्थ होता है। मनुष्य को मानव-विकास के उच्चतम शिखर पर पहुँचाकर जीवन्मुक्ति की अवस्था में प्रतिष्ठित करा देना ही हिंदू-संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है। अद्वैत निष्ठा या जीवन्मुक्तिकी अवस्थाको मानव जीवनकी सर्वोत्कृष्ट अवस्था इसलिये माना गया है कि उस स्थितिमें या उसकी प्राप्तिके मार्गमें ही मनुष्य आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक पूर्ण विकासको प्राप्त हो जाता है। आध्यात्मिक क्षेत्रमें वह निर्गुण-निरंजन परमतत्त्वसे एकत्व प्राप्त कर लेता है और आधिदैविक एवं आधिभौतिक क्षेत्रमें उसके लिये कुछ अप्राप्य नहीं रह जाता, इच्छामात्रसे वह सब कुछ करने में समर्थ हो जाता है यं यं लोकं मनसा संविभाति विशुद्धसत्त्वः कामयते यांश्च कामान्। तं तं लोकं जयते तांश्च कामान्"(मुण्डक० ३। १।१०) केवल विचार मात्र से सब कुछ कर सकने की सामर्थ्य से अधिक सामर्थ्य और हो ही क्या सकता है। इसलिये स्वरूप निष्ठा ही मानव-जीवन के विकासकी श्रेष्ठतम अवस्था मानी गयी है और इसी की प्राप्ति हिंदू संस्कृति का लक्ष्य है। मनुष्य को पूर्ण स्वतंत्रता मे अनन्त ज्ञान के क्षेत्र में समा सोनकर परमानंद का अनुभव करा देने की सामर्थ्य हिंदू-संस्कृति में ही है। इसीलिये हिंदू संस्कृति सर्व सामर्थ्यमय सर्वांगीण पूर्ण संस्कृति है। हिंदू-संस्कृति सर्व कल्याण कारिणी है। इसके द्वारा न केवल अपने अनुयायियों के लिये ही, अपितु समस्त ब्रह्मांड के लिये विश्व पोषक मंगलकारी प्रभाव उत्पन्न होता है। हिंदू-संस्कृति की इस विश्व पोषकता का रहस्य हृदयंगम हो जाने पर उसकी समस्त विशेषताओं को समझने के लिये एक आधार प्राप्त हो जाता है। इसलिये इसे स्पष्ट कर देना आवश्यक है। जिस प्रकार सरोवर के जल में पत्थर फेंकने से या किसी प्रकार की हलचल करने से उसमें उत्पन्न हुई तरंगें समस्त सरोवर में फैलकर सम्पूर्ण जल-राशि को प्रभावित करती हैं, उसी प्रकार समस्त जीवों और मनुष्यों की देहेन्द्रिय आदि की समस्या हलचलों से वायुमंडल में स्पन्दन उत्पन्न होते हैं-जो स्थूल-सूक्ष्म रूप से समस्त वायुमंडल फैलकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हो जाते हैं और सम्पूर्ण नभोमण्डल, तेजोमण्डल, पृथ्वीमण्डल एवं सम्पूर्ण जलराशिपर अपना प्रभाव डालते हैं। इस प्रकार प्राणी के प्रत्येक कर्मका प्रभाव कर्ता तक ही सीमित न रहकर समस्त ब्रह्माण्ड पर पड़ता है। किंतु किस प्राणी के किस कर्म का प्रभाव सृष्टि के अनुकूल और किस कर्म का प्रभाव सृष्टि के प्रतिकूल पड़ता है इसका पूर्ण रूप से निर्णय करना मानवी बुद्धि से परे है। मनुष्य अल्पज्ञ है, वह समस्त सृष्टि से परिचित नहीं है और अनन्त प्राणियों का अनन्त कर्म राशि से भी परिचित नहीं है। इसलिये किस प्राणी के किस कर्म का प्रभाव प्रकृति के किस स्तर में कैसा पड़ता है, यह निर्णय करना मनुष्य के सामर्थ्य के बाहर है। इसका निर्णय वही कर सकता है, जो सर्वज्ञ हो। जिसने सृष्टि की रचना की है, जिसने समस्त प्राणियों को बनाया है और जिसने समस्त कर्क राशि एवं कर्मफल-राशि का सृजन किया है, वही सर्वज्ञ परमात्मा कर्म के सूक्ष्म शुभा-शुभ प्रभावों का पूर्णतया प्रकाश कर सकता है। इसलिये परमात्मा के अंगरूप निःश्वास भूत सनातन वेद जिन कर्मों को शुभ या उपादेय प्रतिपादन करते हैं, उनका प्रभाव पूर्णतया सृष्टि-पोषक, मंगलमय एवं सर्व कल्याणकारी होता है और जिन कर्मा को वेद अशुभ या हेय निर्देश करते हैं, उनका प्रभाव सृष्टिके लिये अवश्य ही अमंगलकारी होता है-इसमें सन्देह नहीं। इससे स्पष्ट है कि वेद शास्त्र सम्मत समस्त शुभ कर्म कर्ता के लिये सर्वविध कल्याणप्रद फलोत्पादन करते हुए समस्त ब्रह्माण्ड पर सृष्टिपोषक प्रभाव डालते हैं; इसीलिये हिंदू-संस्कृति सर्वकल्याणकारिणी मानी गयी है।