जब वीरवर ने राजा को कानो-कान खबर नही होने दी...


स्टोरी हाइलाइट्स

बहुत पुरानी बात है वर्धमान नगर में रूपसेन नाम का एक राजा रहता था। उसका राज्य सर्वसमृद्धि पूर्ण था। राजा भी धर्मात्मा पुरुष था। एक दिन राजा राजदरबार में विराजमान था, तभी उसके दरबार में वीरवर नाम का एक गुणी युवक अपनी पत्नी, पुत्र तथा पुत्री के साथ उपस्थित है और नौकरी की मांग की।

बहुत पुरानी बात है वर्धमान नगर में रूपसेन नाम का एक राजा रहता था। उसका राज्य सर्वसमृद्धि पूर्ण था। राजा भी धर्मात्मा पुरुष था। एक दिन राजा राजदरबार में विराजमान था, तभी उसके दरबार में वीरवर नाम का एक गुणी युवक अपनी पत्नी, पुत्र तथा पुत्री के साथ उपस्थित है और नौकरी की मांग की।
राजा ने उसकी विनयपूर्ण बातें सुनी तो वह उससे बड़ा प्रभावित हुआ। उसे एक सहस्त्र स्वर्ण मुद्रा प्रतिदिन पर नियुक्त कर दिया। उसकी नियुक्ति सिंहद्वार के रक्षक के रूप में है। यद्यपि राजा ने एक महत्वपर्ण पद पर उसकी नियुक्ति तो कर दी थी किन्तु फिर भी उसका मन शंकित रहता था। इसी कारण उसने अपने गुप्तचरों द्वारा उसके बारे में सूचना एकत्र की। तब उसे ज्ञात हुआ कि वह अपना अधिकांश वेतन यज्ञ, तीर्थ, मन्दिरों में आराधना कार्यों तथा साधु-संतो  में वितरित कर बहुत कम धन से अपने परिजनों का पालन करता है। इस सूचना से प्रसन्न होकर राजा ने उसकी नियुक्ति पूर्ण रूप से स्थायी कर दी।
कुछ दिन इसी तरह बीत गये। वीरवर अपना कार्य पूरी लगन तथा निष्ठा के साथ करता रहा। एक दिन आधी रात में मूसलाधार वर्षा हो रही थी, बादल गरज रहे थे, रह रह कर बिजली चमक रही थी। राजा ऐसे समय में कुछ कच्ची नींद में था तभी उसे शमशान की ओर से किसी नारी के करूण-क्रन्दन की आवाज सुनायी दी। राजा को आवाज सुन कर बड़ा कौतुहल हुआ। उसने सिंह द्वार पर उपस्थित
वीरवर से स्त्री के रोने के कारण का पता लगाने को कहा। वीरवर तलवार लेकर निडर होकर चला तब राजा भी कुछ अनिष्ट की आशंका से उसके पीछे-पीछे चलने लगा। राजा गुप्त रूप से उसके पीछे आ रहा है, वीरवर को इसकी कानों कान खबर भी न थी।
वीरवर जब शमशान पहुंचा तो एक स्त्री को वहां रोते हुए पाया। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतनी भयंकर रात में यह स्त्री यहां शमशान जैसे स्थान पर अकेली बैठी रो रही है। वीरवर ने उससे, उसके रोने का कारण पूछा। तब वह स्त्री बोली-"वीरवार मैं इस राज्य की राजलक्ष्मी हूं। इस माह के अन्त में राजा रूपसेन की मृत्यु हो जाएगी तब मैं अनाथ होकर कहां जाएंगे, इसलिए रो रही हूं।"
वीरवर को यह जानकर बहुत शोक हुआ। उसने राजलक्ष्मी से इस कठिनाई से छुटकारा पाने का उपाय पूछा। राजलक्ष्मी ने बताया- "यदि तुम अपने पुत्र की चण्डिका के सामने बलि दे दो तो राजा शताय हो सकते हैं।" फिर क्या था? यह बात सुनते ही वीरवर उल्टे पांव अपने घर की ओर भागा। उसने वहां अपनी पत्नी, पुत्र तथा पुत्री को जगाया। उसने उनकी सहमति ली और सबको लेकर चण्डिका मन्दिर पहुंच गया। राजा भी गुप्त रूप से पीछे-पीछे हर जगह जाता रहा। वीरवर देवी चण्डिका के मन्दिर पहुंचा वहा उसने प्रार्थना की और अपने पुत्र की बलि चढ़ा दी। भाई की मृत्यु पर बहन का हृदय विदीर्ण हो गया। वह भी मृत्यु को प्राप्त हुयी। अपनी सन्तानों की मृत्यु देख उनकी माता भी चल बसी।
वीरवर ने जब अपना पूरा परिवार काल के गाल में समाते देखा तो उससे सहन न हुआ उसने स्वयं भी तलवार से अपनी गर्दन काट ली राजा गुप्त रूप से ये सब देख रहा था। उसने सोचा ऐसे स्वामी भक्ता सेवक के न रहने से उसका जीवन व्यर्थ है। वह भी देवी मां को अपनी बलि देगा। ऐसा विचार कर उसने जैसे ही अपना सिर काटने के लिये तलवार उठाये:, वैसे
ही देवी प्रकट हुई और उसे रोका।
देवी ने राजा से वर मांगने को कहा। राजा ने वीरवर तथा उसके परिवार को जिवित करने की प्रार्थना की। फलतः देवी ने उन सबको जीवित कर दिया।
राजा चुपचाप वहां से जाकर अपने महल में लेट गया। इधर वीरवर अपने जीवित होने पर बड़ा चकित हुआ। वह इसे देवी का चमत्कार मानकर अपने परिवार को घर पर छोड़ पुनः सिंहद्वार पर आकर ऐसे
खड़ा हो गया जैसे कुछ हुआ ही न हो। राजा ने जब उसकी आहट पायी तो उसे महल में बुलाकर स्त्री के क्णरूदन का रहस्य पूछा? वीरवर ने बताया-"महाराज ! वह तो चुडैल थीं, मुझे देख कर ही भाग गयी अब चिन्ता की कोई बात नहीं है।" उसने अपने और अपने परिवार की घटना की राजा को कानों कान खबर न होने दी।
राजा मन ही मन उसकी धीरता तथा स्वामी भक्ति पर प्रसन्न हुआ। प्रातः काल उसने वीरवर को अपने देश के दो राज्यों का अधिपति नियुक्त कर दिया। उसने यह सारी कथा अपने सभासदों को बताकर वीरवर को अपने तमान समृद्धिशाली माना और अपना मित्र घोषित किया तब वीरवर बोला-"महाराज! मैंने जो कुछ किया स्वामीभक्ति के कारण किया। मैं आपका नमक खाता हूं इसलिये आपकी रक्षा करना मेरा दायित्व है, किन्तु आपने मेरे तथा मेरे परिवार के लिये अपनी मृत्यु का जो प्रयास किया ऐसा उदाहरण मिलना कठिन है। सेवक के प्रति स्वामी का इतना प्रेम कहीं भी देखने सुनने को नहीं मिलता इस कारण आप महान है। राजा उसकी स्वामीभक्ति देख मंद-मंद मुस्कराने लगा।
सीख-  यह कथा परोपकार, कर्त्तव्यपरायणता सेवा तथा स्वामीभक्ति की भावना की प्रेरणा प्रदान करती है। जिस प्रकार वीरवर ने अपने स्वामी, राजा की स्वामीभक्ति का पालन करते हुए अपने पारिवारिक सदस्यों तथा अपना बलिदान दे, कानों-कान खबर' राजा को न होने दी थी ठीक वीरवर की तरह राजा होने की कर्तव्य परायणता निभाते हुए खुद को वीरवर पर बलिदान के लिए उद्यत हो जाते हुए राजा ने भी इस बात की खबर उचित समय से पहले वीरवर को न होने दी थी कि उसने देवी चण्डिका से वरदान में उन सबको पुनः जिवित करने का  किया था, जो देवी ने पूरा किया था।