जीवन में रंगों के महत्त्व को सबसे असरदार तरीके से समझ पाना मुश्किल है, क्योंकि वस्त्र छपाई और रंगाई में रंग सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है। एक कपड़े पर बिना किसी स्थापत्य के किस खूबसूरती से अलंकार होता है और वह कितना प्रभावशाली होता है यह भारतीय संस्कृति व परिवेश के अध्ययन के पश्चात् ही समझा जा सकता है। कोई रंग विशेष अपने आप में व्यक्ति की सामुदायिक पहचान स्वयं उद्घाटित कर दे, या कोई अलंकरण व्यक्ति की सामाजिक पहचान बन जाए। कोई उत्सव महज इसलिये आखों में तैर जाए कि किसी स्त्री को फाल्गुनी (चुनरी) पहने देख लिया है। विवाह, नवमातृत्त्व का गौरव और वैधव्य की पीड़ा तीनों भारतीय रंगे-छपे वस्त्रों से पहचानी जा सकती है।
भारतीय संदर्भ में देखें तो यहाँ के छपे वस्त्र वर्ग विशेष की विशिष्टता को दर्शाते रहे हैं। यह आवश्यक नहीं है कि इसे नकारात्मक नज़रिये से ही देखा जाए। शताब्दियों के चिन्तन ने इन अलंकरणों को विकसित किया है। पश्चिम के वस्त्रों में तो अलंकरण न के बराबर हैं। 'अलंकरण या सृजन ऐसे ही समाज में संभव है, जिसने कि ऐतिहासिक काल का अतिक्रमण कर लिया हो और वह अनन्त के समय में विचरण करता हो।' यानि किसी समय सीमा में बांधकर सृजन नहीं हो सकता।
सिन्धु-घाटी की सभ्यता के अन्वेषण के दौरान जो रंगाई का उदाहरण मिला है, वह तत्कालीन वस्त्र श्रृंगार की जानकारी देता है। पर उस स्थिति तक पहुँचने में कितना समय लगा होगा, इसकी व्याख्या कोई भी इतिहासविज्ञ नहीं करता, शायद ऐसा करना संभव भी नहीं है।
रंगे-छपे कपड़ों की यात्रा कब, कहाँ व कैसे प्रारंभ हुई? यह एक ऐसा विषय है, जिस पर काफी गहन विचार हुआ है। परंतु कोई ठोस सिद्धान्त सामने नहीं आता भारत जैसी एक सतत् प्रवाहमय संस्कृति जो कि मूलत: अपनी वाचिक परंपरा में विश्वास रखती है और इतिहास का लगातार अतिक्रमण करती है। इसके परिप्रेक्ष्य में इस सोच का कोई बहुत अर्थ नहीं है।
वैदिक युग और उसके बाद का काल सिन्धु सभ्यता, बौद्धकालीन समाज और आधुनिक समय तक प्रत्येक काल में रंगाई व छपाई विद्यमान रही। आदिमानव द्वारा की गई चित्रकारी- आदमगढ़ और भीमबेटका जैसी अनेक गुफाओं में मिलती हैं। इससे मिलते-जुलते प्रतीकों में से कई आज भी पारंपरिक छपाई में मिलते हैं। अजंता की गुफाओं के भित्ति चित्र भारतीय छपाइगरों की स्मृति में रहे हैं। विदेशी संस्कृतियों को आत्मसात् करके उनका चित्रण भी यहाँ के छपरा बड़ी खूबसूरती से करते रहे हैं।
इतिहास के पिछले 2500 वर्ष के उपलब्ध ठोस प्रमाण यह सिद्ध भी करते हैं कि इसके प्रथम 2300 वर्ष तो भारतीय रंगे व छपे कपड़े के रहे हैं। फिर रोम की संसद का प्रस्ताव हो कि भारतीय छपे कपड़े के आयात से रोम की अर्थ व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है या फिर सन् 1700 ईस्वी में ब्रिटिश संसद द्वारा पारित केलिको कानून' जिसके तहत पूरे ब्रिटिश साम्राज्य में भारतीय छपा कपड़ा प्रतिबंधित कर दिया गया था भारतीय छपे कपड़े की गुणवत्ता की गाथा स्वयं ही वर्णित करता है।
प्रसिद्ध इतिहासकार दामोदर धर्मानंद कोसंबी ने लिखा है- 'उत्पादन के साधनों और संबंधों में होने वाले क्रमिक परिवर्तनों का कालक्रम से प्रस्तुत किया गया विवरण ही इतिहास है।'ये दूसरी तरह की मान्यता है संस्कृति व इतिहास को देखने की, परन्तु इस परिभाषा के मद्देनज़र भी कपड़ा रंगाई व छपाई अपने महत्त्व को स्वयं ही स्थापित करती है। जब तक ये व्यवसाय (रंगाई व छपाई) अच्छे से कार्य करते रहे, भारतीय अर्थव्यवस्था तमाम विदेशी आक्रमणों के बावजूद फैलती रही और भारतीय वस्त्र उद्योग के पतन के साथ उसका पतन भी होता चला गया। परन्तु प्रस्तुत ग्रंथ में इस विधा को देखने का हमारा नज़रिया कलारूप का है कि यह चमत्कारिक कला किस प्रकार स्वयं को ही परिभाषित करती है। जीवन के हर क्षेत्र चाहे वह आध्यात्मिक ही क्यों न हो, छपा व रंगा कपड़ा वहाँ प्रतीक के तौर पर मौजूद है। तभी तो अमीर खुसरो चुनरी के प्रतीक को ईश्वर से एकाकार करते हुए कहते हैं
तेरी सूरत की मैं वारी सब सखियाँ में चूनर मेरी मैली देख हँसे नर नारी अबके बहार चूनर मोरी रंग दे रख लो लाज हमारी अमीर खुसरो जहाँ चुनरी के रंगने के लिए ईश्वर को याद कर रहे हैं, कबीर तो उनसे और आगे जाकर उसको रंगरेज ही संबोधित करते हैं साहेब है रंगरेज चुनरी मेरी रंग डारी स्याही रंग छुड़ायके रे दियो मजीठा रंग धोय से छूटे नहीं रे दिन-दिन होत सुरंग भाव के कुंड नेह के जल में प्रेम रंग देई बोर यहाँ तो भक्ति साहित्य रंगों की रासायनिक व्याख्या के साथ ही प्रस्तुत है।
स्याही यानी नील या इंडिगो कच्चा रंग है और मजीठा (वर्तमान अल्जरीन) सबसे पक्का जो कि जितनी बार धुलता है, उतना ही निखरता जाता है। एक अन्य दोहे में उन्होने लिखा है कहै कबीर रंगरेज पिया रे मुझ पर हुए दयाल सीतल चुनरी ओढ़के रे भई हो मगन निहाल
बिहारी कहते हैं फीको परै न बरू घटै, रंग्यो चोल रंग चीर