जापान में क्यूँ होती है भारतीय देवी देवताओं की पूजा? P अतुल


स्टोरी हाइलाइट्स

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जापान में क्यूँ होती है भारतीय देवी देवताओं की पूजा?

Indian Deities Worshipped in Japan

How Hinduism Influenced Japanese Culture and Religion

भारत और जापान के बीच दोनों देशों की संस्कृति का एक बहुत ही महत्वपूर्ण पुल है। जापान के पूर्व राजदूत यसुकुनी एनोकी के शब्दों में "यह जानना बहुत महत्वपूर्ण है कि जापानी संस्कृति के तल में भारतीय संस्कृति बहुत मजबूती से अंकित है"।

भारत के बौद्ध और हिंदू देवताओं की पूजा जापान के लोग बड़ी शिद्दत से करते हैं। 5 वीं शताब्दी की संस्कृत लिपि जापान में प्रतिष्ठित है और इसके पत्र अलग-अलग देवताओं को दर्शाते हैं, जिन्हें जापानियों द्वारा पवित्र माना जाता है।

माँ सरस्वती भारत ही नहीं जापान में भी रहती हैं। – My Take on Whatever
कैसे हिंदू धर्म ने जापानी संस्कृति और धर्म को प्रभावित किया?

क्या आप जानते हैं कि जापान में 20 से अधिक हिंदू देवताओं की सक्रिय रूप से पूजा की जाती है?

जापान में देवी सरस्वती के सैकड़ों तीर्थस्थल हैं, साथ ही लक्ष्मी, इंद्र, ब्रह्मा, गणेश, गरुड़, कुबेर और अन्य देवी देवताओं के भी मंदिर हैं, जापान में वायु और वरुण देवता को भी पूजा जाता है।

भारत के देवी देवताओं को पूरे विश्व के कई देशों में माना जाता है, कई अन्य देशों के साथ जापान में भी हिंदू धर्म और अधिकांश हिंदू देवताओं की पूजा अर्चना की जाती है।
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आपको ये जानकर हैरत होगी कि 80% जापानी देवता हिंदू देवता हैं|

कई दक्षिण पूर्व एशियाई देशों और जापान में हिंदू धर्म का गहरा प्रभाव है। मदुरै के बोधिसेना ने बौद्ध धर्म की शुरुआत की और इसके साथ ही जापान में हिंदू धर्म का प्रभाव पड़ा, जो आज भी मौजूद है।

आपको शायद जानकर हैरानी हो रही होगी कि हिन्दू देवी-देवताओं की जापान में उतनी ही पूजा होती है जितनी की भारत में।

जापान में विद्या की देवी सरस्वती के सैकड़ों मंदिर हैं जिसमें 250 फुट ऊंचा मंदिर भी है| खास बात यह है कि भारत में सरस्वती मां के मंदिर भारत में देखने को  कम ही मिलते हैं। जापान में लक्ष्मी माता की यहां पूजा भी होती है। जापान में शिव, ब्रम्हा, और अन्य देवी-देवताओं के साथ यमराज का मंदिर  भी है। जापान में भारतीय संस्कृति की तरह हवन और होम भी किया जाता है, इसे जापानी भाषा में “गोमा” कहते है, जापान के 1200 से अधिक  देवालयों में प्रति दिन संस्कृत मंत्रोच्चार  के साथ “गोमा” किया जाता है, ज्यादातर मंदिरों में 1 दिन में दो बार होता है।

आपके मन में एक सवाल उठ रहा होगा कि जापान के पुजारी संस्कृत मंत्रोच्चार कैसे करते हैं? क्योंकि आपको लगता होगा कि उनमें से कई पुजारी संस्कृत नहीं पढ़ सकते। दरअसल जापानी वर्णमाला संस्कृत ध्वनि से मिलती जुलती है| आप जापान के किसी भी प्राइमरी स्कूल में जाएं वहां बच्चों को अ, आ, इ, ई, उ, ऊ बोल कर पढ़ते सुन सकते हैं जैसा भारत में होता है। जापानी पुजारियों के  पास पूजा की पुस्तकें होती हैं जिसमें संस्कृत के मंत्र होते हैं और उसी के साथ काना लिपि में ध्वन्यात्मक लिखा होता है और यदि संस्कृत के मंत्र ना पढ़ सकें तो वो काना में पढ़ कर संस्कृत में मंत्रोच्चार कर लेते हैं।

अब ये कौन सी संस्कृत है? ये पांचवीं छठीं शताब्दी की हस्तलिपि है, सिद्धम/'सिद्धमात्रिका' ।

सिद्धम/'सिद्धमात्रिका' जो भारत में भुलाई जा चुकी है और भारत में ऐसी कोई जगह नहीं जहां सिद्धम पढ़ाई जाती हो, लेकिन जापान में आज भी जीवित है। इस तरह जापान में “कोयासान” नाम का स्कूल है जहां अध्यापक सिद्धम/'सिद्धमात्रिका' लिपि में लिखते हैं। सिद्धम लिपि का प्रयोग पहले (लगभग ६०० ई - १२०० ई) संस्कृत लिखने के लिये होता था। यह लिपि, ब्राह्मी से व्युत्पन्न है। इसे 'सिद्धमात्रिका' भी कहते हैं।