तेल कीमतों का भड़कना अब उद्वेलित क्यों नहीं करता ?-अजय बोकिल


स्टोरी हाइलाइट्स

Prices of petrol and diesel, which are essential fuels for running life in the country, are now touching hundred rupees. This figure may also be exceeded in the next few months.

तेल कीमतों का भड़कना अब उद्वेलित क्यों नहीं करता ?-अजय बोकिल देश प्रदेश में जीवन को चलाने वाले जरूरी ईंधन पेट्रोल डीजल की कीमतें अब सौ रू.लीटर को छू रही हैं। आगामी कुछ महीनों में यह आंकड़ा पार भी हो सकता है। लेकिन केन्द्र और राज्य सरकार इस मामले में जनता को राहत देने के कतई मूड में नहीं है। क्योंकि सरकारों ने इसे लोगों की जेब खाली करवाकर अपनी जेबें भरने का सबसे सुलभ तरीका मान लिया है। यही वजह है कि कोरोना लाॅकडाउन में जब कच्चे तेल की कीमतें रसातल को चली गई थीं, तब भी हमारे लिए कीमतों के ‍लिहाज से वह विलासिता की वस्तु ही रही। इससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि तेल की कीमतों का भड़कना अब जनमानस को डराता तो है, लेकिन उद्वेलित नहीं करता ? राजनीतिक स्तर पर भी यह रस्मी विरोध या बयानबाजी तक सीमित होकर रह जाता है। अब तो महंगे तेल के कारण घर के बजट का बिगड़ना भी कोई मुद्दा नहीं रहा है। और तो और तेल निकालने वाली तेल की कीमतों के खिलाफ साइकिल चलाने, तांगे या बैलगाड़ी में बैठकर प्रदर्शन करने जैसे प्रतीकात्मक विरोधों की खबरें भी बड़ी सुर्खियां नहीं बनतीं। ऐसा क्यों ? करीब साल भर बाद यह खबर मीडिया की सुर्खियों में है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम बीते 13 माह के उच्चतम स्तर पर पहुंच गए हैं। इसके कई कारण हैं। ताजा बढ़ोतरी का तात्कालिक कारण तो यमन में जारी गृहयुद्ध में सउदी समर्थक सेनाओं द्वारा ईरान समर्थिक हौती विद्रोहियों का ड्रोन मार गिराना बताया जा रहा है। लेकिन इसका महत्वपूर्ण कारण सउदी अरब द्वारा अपना तेल उत्पादन घटाना और अमेरिका के वापस पेरिस में संधि में लौटने और स्वदेशी तेल उत्पादन को बढ़ाने की नीति जारी रखना है। दुनिया में तेल के भंडार कम होते जा रहे हैं और विश्व तेल के बजाए वैकल्पिक और नवकरणीय ऊर्जा के इस्तेमाल की तरफ बढ़ रहा है, ऐसे में तेल उत्पादक देशों को अपने तेल भंडारो का दोहन कंजूसी के साथ करना मजबूरी बन गया है। लिहाजा सउदी अरब जैसे देशों ने अपनी अर्थव्यवस्था को तेल निर्भरता से बाहर निकालने की गंभीर कोशिशें शुरू कर दी हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि दुनिया में तेल की कीमतें अब लगातार बढ़ना ही है, क्योंकि विश्व कोरोना के भयंकर झटके से अब उबर रहा है। तेल की मांग भी बढ़ रही है। ऐसे में तेल उत्पादक देश कोरोना काल में अपने घाटे की प्रतिपूर्ति महंगा तेल बेच कर करने में लगे हैं। जहां तक भारत की बात है ‍तो वैश्विक तेल कीमतें उसका एक कारण जरूर हैं, लेकिन उससे भी बड़ी वजह केन्द्र व राज्य सरकारों की तेल की धार से अपनी जेबें भरने की बेरहम नीतियां हैं। आलम यह है ‍िक ‘सोने से घड़ाई महंगी’ की तर्ज पर तेल की मूल कीमत से कई गुना ज्यादा टैक्स सरकारों ने लाद रखे हैं और सरकार इसमे रत्ती भर राहत नहीं देना चाहती। हालत यह कि सरकार पेट्रोल के बेस रेट पर करीब 180 और डीजल पर 141 प्रतिशत टैक्स वसूल रही हैं। जो भी पार्टी विपक्ष में रहती है, वह पेट्रोल-डीजल की महंगाई को मुद्दा बनाती है, लेकिन सत्ता में आते ही उसे सोने का अंडा देने वाली मुर्गी समझने लगती है। देश में पेट्रोल डीजल के दाम बाजार के हवाले करने और उन पर सबसिडी कम करने का फैसला यूपीए-2 में तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने‍ लिया था। मोदी सरकार ने उसे पूरी तरह बाजार को सौंप दिया। हालांकि विपक्ष में रहते हुए भाजपा ने भी इसे चुनावी मुद्दा बनाया था। तब प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने सरकार को तेल कीमतों में वृद्धि वापस लेने की चेतावनी भी दी थी, लेकिन अब खुद मोदी सरकार इस मामले में कान में रूई लगाकर बैठ गई है। तेल की कीमतें बाजार के हवाले करने और सबसिडी खत्म करने के पीछे तर्क यह दिया गया था कि पेट्रोल डीजल की कीमतों को अंतरराष्ट्रीय बाजार से जोड़ने पर यहां भी लोगों को तेल सस्ता होने का लाभ मिल सकेगा। लेकिन हकीकत में कुछ और ही हो रहा है, तेल के दाम बढ़ते तो राॅकेट की गति से हैं, लेकिन दाम घटना शब्द मानो डिक्शनरी से ही बेदखल कर दिया गया है। दिखावे के लिए दाम घटते भी हैं तो उन राज्यों में दो चार महीनों के लिए, जहां चुनाव होने हैं। नतीजे आते ही तेल की कीमतें फिर सिर से ऊपर निकलती जाती हैं। जब मोदी सरकार सत्ता में आई थी तो पेट्रोदियाल और डीजल पर एक्साइज ड्यूटी क्रमश: 9.48 और 3.56 रु प्रति लीटर थी, जो आज बढ़कर 32.98 और 31.83 हो चुका है। पिछले साल कोरोना काल में कच्चे तेल की कीमतें जब अपने सबसे निचले स्तर पर जा पहुंची थी, तब सरकार ने इस सस्ताई को लोगों तक जाने से एक्साइज ड्यूटी में भारी वृद्धि कर रोक लिया। बीते साल मई में पेट्रोल पर एक्साइज ड्यूटी 19.98 से बढ़ाकर 32.98 रु प्रति लीटर और डीजल पर भी एक्साइज ड्यूटी 15.83 से बढ़ाकर 31.83 रु प्रति लीटर कर दी। कहा गया कि चूंकि कोरोना काल में सरकार की आय के तमाम साधन ठप थे, इसलिए पेट्रोल-डीजल के भरोसे ही सरकारी खजाने की सांसे चलती रहीं। उधर राज्यों ने इन पर वेट भी बढ़ा दिया। यानी अंतरराष्ट्रीय बाजार में भले कच्चा तेल सस्ता हो रहा था, लेकिन भारतीयों का बजट पेट्रोल-डीजल बिगाड़ रहे थे। इस मामले में उस किसान का भी ख्याल नहीं रखा गया, जिसके हितैषी होने के गुण सभी सरकारें गाती हैं। हालत यह है कि आज भारत तेल पर सबसे ज्यादा टैक्स वसूलने वाला देश बन गया है। अधिकृत जानकारी के अनुसार केन्द्र सरकार ने 2020 में अप्रैल से नवंबर तक एक्साइज ड्यूटी से 2 लाख करोड़ रू. कमाए। अब केन्द्रीय वित्तप मंत्री निर्मला सीतारमन ने इस साल आम बजट में पेट्रोल पर ढाई रुपये और डीजल पर चार रुपये प्रति लीटर कृषि सेस लगाने का ऐलान किया है। कहा गया कि इस वृद्धि से जनता पर कोई अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ेगा। क्योंकि नए सेस के बराबर ही दोनों ईंधनों के एक्साइज ड्यूटी में कटौती कर दी जाएगी। लेकिन यह अर्द्ध सत्य है। नई व्यवस्था में घाटा राज्य सरकारों को होगा, क्योंकि उन्हें केन्द्र की सेस से कमाई में वैसी हिस्सेदारी नहीं मिलेगी, जो टैक्स में मिलती है। जाहिर है कि इस घाटे को पूरा करने के लिए राज्य सरकारें जनता पर दूसरे टैक्स लादेंगी। यानी मरना आम आदमी को ही है। वैसे भी सरकार को जीएसटी से अपेक्षित आय नहीं हो रही है। इसका खमियाजा भी मंहगे पेट्रोल-डीजल के रूप में भुगतना पड़ रहा है और पड़ेगा। सरकार की मजबूरियां अपनी जगह हैं। सरकार लोगों से पर्याप्त टैक्स वसूली नहीं कर पा रही है तो यह भी उसका एक माइनस प्वाइंट है। सरकार को देश चलाने के लिए पैसा चाहिए, इसमे दो राय नहीं, लेकिन तकरीबन सारी भरपाई पेट्रोल’डीजल के भाव भड़का कर ही क्यों, यह अहम सवाल है। इसी के साथ सोचने की बात यह है कि पेट्रोल-डीजल के बेलगाम भावों के बाद आम लोगों में वैसी बेचैनी या आक्रोश अब नहीं दिखाई देता, जैसे उन बातों पर दिखता है, जो पेट्रोल-डीजल से ज्यादा जरूरी नहीं है। तो क्या हम सरकार की आर्थिक मजबूरियों को समझकर अपनी सहनशीलता का इम्तिहान दे रहे हैं या फिर हमारी कराह को कोई सुनने वाला नहीं बचा है? क्या डीजल-पेट्रोल हमारे लिए सांसों या जीवनदायी जल की माफिक हो गए हैं, जिन्हें किसी भी कीमत पर खरीदना और जिंदगी की गाड़ी को ऊर्जा देते रहना हमारी लाचारी है ? या फिर महंगाई शब्द ही अपना दंश खो चुका है और उसके खिलाफ बोलना भी महज शोशेबाजी है? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे लिए वो मुद्दे अब अहम हो गए हैं, जिनका जीवन की असली चुनौतियों से उतना ही रिश्ता है, जितना धरती का मंगल ग्रह से?