क्यों संक्रमण काल से गुजर रहा है गोंडवाना क्षेत्र? कौन करेगा जनजातियों की चिंता?


स्टोरी हाइलाइट्स

वर्तमान समय में गोंडवाना क्षेत्र इतिहास के एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण संक्रमण काल से गुजर रहा है। गोंडा क्षेत्र ही नहीं वरन संपूर्ण मध्यवर्ती भारत का जनजातीय क्षेत्र जिसमें उड़ीसा, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल और तेलंगाना सम्मिलित हैं. इस संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं। जिस भूमि पर जनजातियों निवास करती हैं, वहाँ की भूमि रत्नगर्भा है। 



उसके ऊपर सघन इमारती वन हैं जो हरा सोना' कहलाते हैं। पृथ्वी के गर्भ में अनेक बहुमूल्य खनिज भरे पड़े हैं मध्यप्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में ही जहाँ गोंड जनजाति की सर्वाधिक आबादी निवास करती है, यहाँ भी विपुल मात्रा में लोह अयस्क, मैंगनीज, चूना पत्थर, डोलोमाइट, बॉक्साइट, कोयला, टिन, स्वर्ण, तांबा, कोरंडम तथा हीरा आदि खनिजों के विशाल भंडार विद्यमान हैं। 

आज इन खनिज भंडारों पर भारत के ही नहीं, वरन् सम्पूर्ण विश्व के उद्योगपतियों की निगाहें लगी हुई है इन संसाधनों के दोहन हेतु जनजातियों की भूमि को अधिग्रहित किया जा रहा है।

उनके परंपरागत आवास, परिवेश तथा आजीविका के संसाधनों से उन्हें वंचित होना पड़ रहा है विकास के नाम पर संपूर्ण जनजातीय समाज को उनके प्राकृतिक आवास से बेदखल किया जा रहा है। इस तीव्रगति से होने वाले औद्योगिक विकास ने जनजातीय समाज को लगभग खारिज (write-off) कर दिया है भारत में लगभग ग्यारह-बारह करोड़ आदिवासी हैं। कभी वह समय था, जब सम्पूर्ण भारत देश उन्हीं का था उनकी एक विकसित सभ्यता थी। वे लोग नगर एवं ग्राम बसा कर उनमें रहते थे। उन्होंने अनेक शिल्प कलाओं का विकास किया था। बाहर से आने वाले कबीलों का उन्होंने प्रतिरोध नहीं किया, वरन् कुछ सीमा तक उनका स्वागत ही किया। ये कबीले एक के बाद एक लहरों की तरह बड़ी संख्या में यहाँ आते गये। यह सिलसिला लगभग 2000 वर्षों तक चलता रहा।

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दूसरे अप्रवास का दौर आक्रामक जातियों द्वारा आरंभ हुआ इनमें सर्वप्रथम शक तथा हूण आये। जाट, अभिर तथा गुर्जर पहले ही आ चुके थे। बाहर से आने वाली इन जातियों ने यहाँ के मूल निवासियों को उनके प्राकृतिक आवास से खदेड़ दिया। सिन्धु सहित हिमालय से निकलने वाली पश्चिमी भारत की पाँच नदियों की उपजाऊ भूमि पर बाहर से आने वाली जातियों का कब्जा हो गया। कालान्तर में उन्होंने गंगा-यमुना के उपजाऊ क्षेत्र पर बढ़ते हुए सम्पूर्ण दोआबा पर अधिकार जमा लिया और यहाँ के मूल निवासियों को वहाँ से निष्कासित कर दिया। भारत के इन मूल निवासियों ने विन्ध्याचल पर्वत के दक्षिण के वनाच्छादित वन्य प्रदेश में शरण ली और अपने लिए नये आवास स्थान का निर्माण किया। अपने आवास से उजड़ने के परिणामस्वरूप उनकी सभ्यता एवं संस्कृति का ह्रास हो गया। इतिहास का वह दौर उनकी सभ्यता के नष्ट होने का प्रथम दौर था।

दूसरा दौर भारत पर मुस्लिम आक्रमण के साथ आरंभ हुआ। मंगोल, इराक, ईरान, अफगान आदि मध्य पूर्व के देशों के आक्रमणकारी भारत में आकर लूट मार करने लगे। आरंभ में ये कधीले लूटपाट करके अपने-अपने मुल्क में वापस चले जाते थे। कालान्तर में वे यहाँ बस गये और इन्होंने यहाँ अपनी राजसत्ता स्थापित कर ली। मुगल सेना जिसमें मुगल, ताजिक, उजबेक, तुर्क, इरानी अफगान आदि अनेक क्षेत्रों के सैनिक शामिल थे, यहाँ बस गये और उनके सहयोग से मध्य एशिया से आने वाले लोगों के यहाँ आकर बसने का सिलसिला निरन्तर चलता रहा। 

मुगल शासन ने मध्य काल में कुल स्थापित हुए गोंड राज्यों पर आधिपत्य स्थापित कर लिया और गोंडजनों सहित संपूर्ण स्थाई आदिवासी समाज पुनः विस्थापित हो गया दूसरी ओर मराठों के लगातार आक्रमण हो रहे थे। गोंड राजवंशों के स्थापना के फलस्वरूप गोंडा की सभ्यता का विकास होने लगा था, वह सभ्यता पुनः उज गयी और बहुत बड़ी संख्या में गोंडजन वनों एवं गोंडवाना के पर्वतीय क्षेत्रों में पलायन कर गाये जहाँ से वे मराठों और मुगल सेनाओं से प्रतिरोधात्मक संघर्ष करने लगे। 

सन् 1818 में सीताबर्डी के युद्ध में नागपुर के मराठा अंग्रेजों से पराजित हो गये और गोंडवाना पूर्ण रूप से अंग्रेजों के अधीन हो गया। इस संपूर्ण क्षेत्र में कुछ छोटे-बड़े रजवाड़े और जमींदार- जागीरदार थे, जो मराठों को चौथ अदा करते थे चौथ की यह राशि या तो उस रजवाड़े के राजस्व के आधार पर निर्धारित की जाती थी या आपसी सहमति के आधार पर। 



अंग्रेजी शासन ने भी कमोवेश इस व्यवस्था को जारी रखा. यद्यपि उन्होंने इनके प्रशासन में भी अपनी दखल बनाये रखी। उन्होंने अनेक रजवाड़ों के कुछ भागों को अपने अधीनस्थ रखकर उन्हें सरकार घोषित कर दिया और वहाँ का प्रशासन सीधे तौर पर अपने हार्थों में ले लिया, जबकि मराठों ने इन रजवाड़ों एवं जमींदारों में अपना दखल राजस्व वसूली तक ही सीमित रखा। मराठों के साथ संधि में यह भी शर्त शामिल हुआ करती थी कि वह रजवाड़ा आवश्यकता पड़ने पर कितने पैदल सिपाही तथा कितने घुड़सवार मराठा शासकों को प्रदान करेगा अंग्रेजी शासन ने अधिकांश रजवाड़ों को बनाये रखा। यह व्यवस्था भारत के स्वतन्त्रता प्राप्ति तक बनी रही। 

भारत 15 अगस्त सन् 1947 में स्वतन्त्र हुआ और सन् 1948 में इन रजवाड़ों का भारत में विलीनीकरण हो गया। गोंडवाना मध्यवर्ती भारत के समस्त रजवाड़े भी भारतीय संघ में विलीन हो गये। उसके पश्चात् स्वदेशी शासन में सुनियोजित विकास हेतु पंचवर्षीय योजनाएँ आरंभ हुई। 1950 में भारत का संविधान लागू हुआ. जिसमें जनजातियों एवं परिगणित जातियों के विकास हेतु संविधान में अनेक प्राधानों की व्यवस्था की गयी।


गोंडवाना एवं संलग्न जनजातीय क्षेत्रों में, जिनमें उड़ीसा, झारखण्ड तथा तेलंगाना शामिल हैं, यह संकट अत्यन्त गंभीर है। ये जनजातियों यहाँ के मूल निवासी हैं। इस देश के संसाधनों पर ही नहीं, वरन् इस संपूर्ण देश पर पहला हक उनका है। उन्हें ही विकास के नाम पर उजाड़ा जा रहा है। किसी भी विकास योजना में विस्थापन जनजातियों का ही होता है, चाहे वह नदियों पर बांध बनाने की योजना हो या खनिज उत्खनन की, चाहे वह औद्योगिक विकास सम्बन्धित योजना हो या विद्युत उत्पादन से सम्बन्धित। हमारे समक्ष ऐसे उदाहरण हैं, जिनमें नदियों पर बांध बनाये जाने के कारण लाखों जनजातियों को उनके प्राकृतिक आवास स्थल से हटाया गया और उनके पुनर्स्थापन की कोई समुचित व्यवस्था नहीं की गयी कारखानों और औद्योगिक नगरों को बसाने हेतु लाखों जनजातियों को अपने नैसर्गिक आवास त्यागने हेतु विवश होना पड़ा। आज झारखण्ड एवं बंगाल के लाखों संथाल एवं अन्य जनजातियों तथा मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के हजारों गोंड असम के चाय बागानों और महानगरों में कठिन परिस्थितियों में रहकर जीवन यापन करने पर विवश हैं। मेरी योजना इस ग्रन्थ को पहले अंग्रेजी भाषा में लिखने की थी और मैंने लेखन आरंभ भी कर दिया था। इसी बीच विश्वविद्यालयों के कुछ प्राध्यापक मित्रों ने मुझसे आग्रह करते हुए सुझाव दिया कि मैं इसे हिन्दी भाषा में लिखें, ताकि अधिकाधिक लोग इसका अध्ययन कर सकें। साथ ही शिक्षित जनजातीय वर्ग के लोग भी इस ग्रन्थ को पढ़ सकें। वर्तमान समय में गोंडजन भी अपनी संस्कृति के अनेक पक्षों से अनभिज्ञ होते जा रहे हैं वे अपने आदिदेव लिंगोपेन को अपने मिथकों को, गाथाओं एवं इतिहास को भी भूलते जा रहे हैं। वे अपनी भाषा को भी त्यागते जा रहे हैं। मण्डला तथा छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्र एवं विदर्भ के व्यापक क्षेत्र से गोंडी भाषा लगभग लुप्त हो चुकी है।

साभार

निरंजन महावर की कलम से