तीर्थयात्रा करना क्यों ज़रूरी है, इससे होते हैं क्या लाभ -दिनेश मालवीय 


स्टोरी हाइलाइट्स

तीर्थयात्रा करना क्यों ज़रूरी है, इससे होते हैं क्या लाभ : भारत में युगों-युगों से हमारे पूर्वज तीर्थयात्राएं करते आये हैं. हमारे धर्मग्रंथों में......

तीर्थयात्रा करना क्यों ज़रूरी है इससे होते हैं क्या लाभ तीर्थयात्रा में क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए -दिनेश मालवीय  भारत में युगों-युगों से हमारे पूर्वज तीर्थयात्राएं करते आये हैं. हमारे धर्मग्रंथों में जीवन में सुधर और कल्याण के लिए तीर्थाटन को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है. तीर्थयात्रा को बहुत पुण्यदायक कहा गया है. पुण्य का अर्थ है निष्पाप बनना. यानी हमारे मन से पाप करने की इच्छा और पृवृत्ति समाप्त हो जाना. तीर्थयात्रा के महत्त्व से ग्रंथ भरे पड़े हैं. संत तुलसीदास ने कहा है कि –तीर्थाटन साधन समुदाई, विद्या विनय विवेक बड़ाई. यानी तीर्थ करने से ज्ञान, विनम्रता और विवेक बढ़ता है देवी भागवत के अनुसार, जिस प्रकार कृषि का फल अन्न उत्पादन है, उसी प्रकार निष्पाप बनना ही तीर्थयात्रा का फल है. धर्म का मूल उद्देश्य मन का शुद्धिकरण कर उसे विकारों से मुक्त करना है. तीर्थयात्रा इस प्रक्रिया में बहुत सहायक है. हालाकि आजकल तीर्थयात्रा ने भी बहुत कुछ पर्यटन का रूप ले लिया है, लेकिन तीर्थयात्रा का फल तो भावना के अनुरूप मिलता ही है. तीर्थ दो तरह के होते हैं -स्वाभाविक और मानव द्वारा निर्मित. गरमी की वजह से होने वाली बीमारियों से राहत देने वाले जो स्थान ठंडे क्षेत्र में हैं, उन्हें स्वाभाविक तीर्थ कहा जाता है. इसके अलावा परिवेश के प्रभाव से जिस जगह क्रोध आदि मानसिक रोगों को दूर करने में मदद मिले, उन्हें भी स्वाभाविक तीर्थ कहा जाता है. जो स्थान शांत हैं और जो लम्बे समय तक महापुरुषों द्वारा साधना के कारण पवित्र हो गये हैं, उन्हें मानव-निर्मित तीर्थ कहा जाता है. आधुनिक भौतिक विज्ञान भी इस बात को मानता है कि जिस जगह पर लम्बे समय तक अच्छे और बुरे कार्य किये जाते हैं या अच्छे और बुरे शब्द बोले जाते हैं, उस पर उनका असर होता है. वहाँ जाने वाले लोगों को वे उसी तरह प्रभावित भी करते हैं. तीर्थ-यात्रा मानसिक शान्ति के लिए भी उपयोगी जीवन के खटराग में उलझे व्यक्ति के जीवन में जड़ता और नीरसता आने लगती है. वह ज़िन्दगी के गोरखधंधे में ही उलझकर रह जाता है. उसे कुछ समय के लिए इससे दूर रहकर कुछ नया देखने और अनुभव करने की इच्छा होती है. तीर्थ स्थानों पर जाकर उसे एक नया वातावरण और परिवेश मिलता है. ये स्थान प्राकृतिक कारणों और लम्बे समय तक पवित्र लोगों की साधना के कारण मन की शांति और शारीरिक स्वास्थ्य की ददृष्टि से बहुत लाभदायक होते हैं. वहाँ आत्मिक शांति प्राप्त करने और चेतना को ऊँचा उठाने में तो मदद मिलती ही है, साथ ही राष्ट्र की सांस्कृतिक एकता, प्राकृतिक सौन्दर्य और विभिन्न जीवनशैलियों को देखने का मौका मिलता है. भारत में चारों दिशाओं में सनातन धर्म के चार सबसे महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल हैं- बद्रीनाथ, जगन्नाथ, रामेश्वरम और द्वारका धाम. देश के चार कोनों में स्थित इन स्थलों का अपना-अपना धार्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व है. इन जगहों पर पवित्र साधु-संतों के दर्शन होते हैं. यात्री को भगवान का भजन करने तथा अच्छे कर्म करने की प्रेरणा मिलती है. प्राचीन मंदिरों में दर्शन-प्रसाद का लाभ भी मिलता है. इसलिए व्यक्ति को अपने व्यस्त जीवन से कुछ समय निकाल कर समय-समय पर तीर्थ-सेवन अवश्य करना चाहिए. यथासम्भव परिवार के साथ तीर्थयात्रा करनी चाहिए. विवाहित व्यक्ति को पत्नी के बिना तीर्थयात्रा नहीं करने का विधान निश्चित किया गया है. अर्थात तीर्थयात्रा में जीवंसंगनी को साथ अवश्य ले जाना चाहिए. तीर्थ-यात्रा का सही तरीका सिर्फ ट्रेन या बस में तीर्थ-स्थान पर चले जाना और वहाँ रहना ही पर्याप्त नहीं है. तीर्थयात्रा के लिए हमारे बुजुर्गों और संतों ने कुछ तरीके बताये हैं, जिनका पालन करके ही हम तीर्थयात्रा का पूरा फायदा ले सकते हैं. तीर्थयात्रा के दौरान मन ही मन ज्यादा से ज्यादा भगवान के नाम या गुरुमंत्र का जाप करते रहना चाहिए. मन को दुनियादारी की बातों से दूर रखा जाए. मन की कल्पनाओं की उड़ान को अधिक से अधिक नियंत्रित कर उसे ईश्वर भक्ति में लगाया जाए. बाल अर्पित करना तीर्थयात्रा के दौरान अनेक तीर्थस्थलों पर सिर के बाल अर्पित करने की प्रथा है. इसके पीछे भी एक सोच है. माना जाता हैं कि मनुष्य के पाप उसके बालों पर आकर ठहर जाते हैं, लिहाजा तीर्थयात्रा में मुंडन का विधान किया गया है. मुंडन करवाते समय ऐसा भाव रखना चाहिए कि मेरे सब पाप बालों के साथ निकल रहे हैं. अच्छा आचरण तीर्थयात्रा के दौरान ज्यादा से ज्यादा सरलता और सादगी से रहना चाहिए. पैसे का लोभ न कर खुलकर दान-धर्म करना चाहिए. किसीसे मान-सम्मान पाने की इच्छा नहीं रखना चाहिए. सांसारिक जीवन में कई कारणों से कभी-कभी झूठ भले ही बोलना पड़ता है, लेकिन तीर्थयात्रा में बिलकुल झूठ न बोलें. किसीसे कड़वे वचन न कहें. अपमान होने पर भी कोई प्रतिक्रिया न देकर अपमान करने वाले को मन से क्षमा कर दें. किसी भी तरह के व्यसन से परहेज करें. पण्डे-पुजारियों से किसी भी कारण से नाराज न हों. उनके व्यवहार में कोई दोष भी लगे तो यह मानें कि आपके धैर्य की परीक्षा के लिए यह ईश्वर की इच्छा से हो रहा है. भक्तों की पंक्ति में लगकर ही दर्शन करें. किसी वीआईपी ट्रीटमेंट का भाव न रखें. सबकुछ ईश्वर को निवेदित करके ग्रहण करें. तीर्थ में किसी भी पाप से बचना चाहिए. तीर्थस्थल पर किये गये पाप हजारों गुना बुरा परिणाम देते हैं. वे कभी नष्ट नहीं होते. इन नियमों को अपनाने से तीर्थयात्रा का भरपूर फल मिलेगा. लौटकर जीवन बदलना चाहिए तीर्थयात्रा में आपने जिस आचरण और नियमों को अपनाया हो, वह आपके लिए व्यवहारिक जीवन का प्रशिक्षण जैसा होना चाहिए. आप लौटकर दैनिक जीवन में भी उसका यथासंभव पालन करें. पुराने ज़माने में तीर्थयात्रा से लौटकर लोगों का जीवन बदल जाता था. आज ऐसा इसलिए नहीं होता क्योंकि तीर्थयात्रा पर्यटन की तरह की जाती है. तीर्थ में जितने कष्ट उठाये जाते हैं, उतना ही मन पवित्र होता है, जो जीवन का परम लक्ष्य है. कोई प्रिय चीज क्यों छोड़ी जाती है हमारे पूर्वजों को मानव के मनोविज्ञान की बहुत गहरी समझ थी. उन्हें पता था कि मनुष्य तीर्थयात्रा के आचरण को घर वापस लौटते ही भूल जाएगा. इसलिए उन्होंने ऐसा नियम निर्धारित किया कि तीर्थयात्रा में व्यक्ति को अपनी किसी मनपसंद चीज का त्याग करना चाहिए. इसका मकसद यह था कि वह जब भी उस चीज को देखे तो उसे तीर्थयात्रा का स्मरण हो जाए और वह भटके नहीं. हमारे प्राय: सभी तीर्थस्थल पवित्र नदियों के किनारे स्थित हैं. इस स्थलों पर युगों-युगों ने असंख्य ऋषि-मुनियों ने तपस्या के साथ-साथ अनेक त्याग और परोपकार के कार्य किये हैं. इनसे उत्पन्न दिव्य रश्मियाँ आज भी वहाँ अनुभव की जा सकती हैं. इन स्थानों पर एक अलौकिक सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है, जिसके कारण वहाँ जाने पर मन की अवस्था सहज ही बदलने लगती है. हमारे देश में कई ऐसे तीर्थस्थल हैं जो भगवान् के मनुष्य अवतारों से जुड़े हैं. भगवान् राम का जन्म-स्थल अयोध्या और भगवान कृष्ण का स्थल मथुरा है. इनके अलावा, 12 ज्योतिर्लिंग हैं , जहाँ भगवान् शिव की साक्षात उपस्थिति का अनुभव होता है. इन तीर्थस्थलों पर पहुँचकर हमारे जीवन में सकारात्मक बदलाव होता है. तीर्थस्थान त्याग और समर्पण के स्थल हैं. वहाँ आपको पाप्करोम और बुरे विचारों का त्याग होता है. इससे आप पाप-मुक्त हो  जाते हैं. तीर्थ-स्थल अपनी आस्था और श्रद्धा के समर्पण से हमारे भीतर सकारात्मक ऊर्जा बढ़ती है. इसलिए जीवन की व्यस्तताओं से समय निकाल कर तीर्थ-सेवन ज़रूर करें. इसके लिए बुढ़ापे का इंतज़ार न करें. यह धारणा गलत है कि तीर्थयात्रा तो बुढ़ापे का काम है. रजोगुण प्रधान और घुमक्कड़ लोगों के लिए तीर्थयात्रा बहुत मुफीद होती है. जब भटकना ही है तो भगवान् के लिए क्यों न भटकें.