मनुष्य के चार पुरुषार्थों में "काम" क्यों शामिल किया गया है?... P ATUL VINOD


स्टोरी हाइलाइट्स

मनुष्य के चार पुरुषार्थों में काम क्यों शामिल किया गया है? P ATUL VINOD सनातन धर्म में मनुष्य के चार पुरुषार्थ रखे गये हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सवाल उठता है कि क्या जो ब्रह्मचारी है वो पुरुषार्थी नहीं है? उसके जीवन में काम का स्थान नहीं है| क्योंकि प्रचलित परिभाषा में काम से दूरी ही ब्रम्हचर्य है|  उसके चार पुरुषार्थ में से एक तो अधूरा रह गया| निश्चित ही ब्रम्हचर्य  की संकल्पना सिर्फ काम से दूरी नहीं रही होगी| उच्च कोटि के मर्मज्ञों के अनुसार ब्रम्हचर्य किसी सीमा में बंधने का नाम नहीं है| काम से दूरी बना लेना भी खुदको बाँध लेना है| ब्रम्हचर्य मनुष्य की वो चरम अवस्था है जब जीव  ब्रह्म में विचरण करने लगता है| सिर्फ सेक्स से दूरी बनाकर कोई व्यक्ति ब्रह्मचारी हो जाता है ये ज्ञान अधुरा है| श्रीकृष्ण, शंकर- महादेव, श्रीराम अपनी पत्नियों के साथ रहते थे, काम सेवन करते हुए भी क्रमशः योगेश्वर, आदियोगी और मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते थे, पुरातन काल में ऋषियों के पत्नियों का वर्णन मिलता है|   धर्म ग्रंथों में ब्रम्हचर्य का अर्थ ब्रह्म में विचरण या ब्रह्म जैसी चर्या से लिया जाता है| जो व्यक्ति ब्रह्म के अनुकूल आचरण करता है, जो ब्रह्म में रमण  करता है|  जो ब्रह्म-मय हो जाता है वो ब्रह्मचारी कहलाता है| ब्रह्मचर्य से तात्पर्य ब्रह्म का आचरण है। इसे ब्रह्म के समान जीवन को सुन्दर जीने की सहज प्रवृत्ति कहा जा सकता है। बहुत से लोग काम के विरोध एवं निरोध को ही ब्रह्मचर्य मानते हैं। यह अर्थ बहुत ही संकुचित है। ब्रह्म में विचरण करने के लिए मनुष्य को चार पुरुषार्थ से होकर गुजरना जरूरी है| वो चार पुरुषार्थ हैं धर्म अर्थ काम और मोक्ष|  इन चार स्तरों से उपर उठकर ही ब्रम्हचर्य घटित होता है| ब्रह्मचारी बना नहीं जा सकता|  ब्रम्हचर्य एक स्थिति है, जो घटित होती है, जो प्राप्त होती है|  सहज अवस्था| कोई व्यक्ति जबरदस्ती  ब्रह्मचारी नहीं बनाया जा सकता| अब सवाल यह उठता है कि क्या इस जीवन में धर्म अर्थ काम और  मोक्ष के पड़ाव के बाद ही ब्रम्हचर्य हासिल होगा? जरूरी नहीं|  कोई व्यक्ति अपने प्रारब्ध के कर्म फलों के कारण जन्मजात ब्रह्मचारी हो सकता है| वो आत्मा साधारण नहीं,  वो असाधारण आत्मा होती है जो ब्रम्हचर्य(ब्रम्ह्भाव) साथ लेकर आती है| जो व्यक्ति प्रारब्ध से परिपक्व होकर आया हो|  इन चारों से स्वाभाविक रूप से परे हो…वो “ब्रह्मचारी” है… क्योंकि उसे ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं देगा| उसे बनाने की ज़रूरत नहीं |  उसे बताने की जरूरत नहीं कि ये करो ये ना करो... वो सब छोड़ सकता है और सब कर सकता है ..वो परम स्वतंत्र होता है ... अधीन नहीं| यदि सामान्य मनुष्य को काम से  जबरदस्ती दूर कर दिया जाए , वो  काम को अपराध मानकर उससे डर कर दूर हो जाए,  या उसका ब्रेनवाश कर दिया जाए| तीनों ही स्थिति में वो ब्रह्मचारी नहीं होगा|  क्योंकि तीनो ही स्थितियां अस्वाभाविक है, अप्राकृतिक हैं| जैसे आजकल होता है| कृत्रिम ब्रम्हचारी बनने के कारण.... जब व्यक्ति ब्रम्हचर्य के गुणों का बखान सुनता है| काम यानी सेक्स की आलोचना सुनता है| उसे ब्रम्हचर्य अति बलिष्ट, तेजवान, ओजस्वी, मेघावी बनने का लालच मिलता है| ब्रम्हचर्य का पालन करके ईश्वर मिलने की बात सुनता है| बड़ा साधू संत कहलाना चाहता है| परिस्थितियों से हार कर पलायन क्र जाता है| किसी साधु  संत के प्रभाव में आकर इस मार्ग पर चलना चाहता है| ऐसा व्यक्ति आजकल के प्रचलित ब्रम्हचर्य को अपना लेता है|  लेकिन यह अप्राकृतिक ब्रह्मचारी है|  स्वाभाविक रूप से सहज बोध के कारण नहीं बना|  बल्कि बाहर के प्रभाव के चलते बना | ऐसे में मन में “काम” के भाव चल रहे होंगे ऊपर-ऊपर दिखावा हो रहा होगा| कम का वेग रोकने में कठिनाई होगी| पूरी उम्र खुदको काम से दूर रखने के प्रयास में निकल जाएगी| निषेध ही  निमंत्रण है| यदि सिर्फ “काम” से दूर रहकर कोई व्यक्ति ब्रह्मचर्य  में स्थित हो सकता तो फिर बात ही क्या थी| ऐसा व्यक्ति जब भी मौका मिलेगा काम में रत हो जायेगा| क्योंकि उसकी काम उत्कंठा  पूरी नहीं हुई| यदि यही सही मार्ग होता तो किसी को कुछ करने की जरूरत नहीं थी, सिर्फ सेक्स से दूरी बना लो और  ब्रह्म में स्थित हो जाओ| ब्रह्म में स्थित होने के लिए धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष इन चारों से ऊपर उठना होता है| सवाल यह उठता है कि धर्म से कोई कैसे ऊपर हो सकता है?  अर्थ और काम से तो ठीक है लेकिन मोक्ष से  आगे की भी कोई अवस्था है क्या? दरअसल धर्म है एक धारणा,  एक मान्यता,  एक पद्धति,  एक विधान  ईश्वर तक पहुंचने का|  धर्म एक मार्ग है,  धर्म साधन है साध्य नहीं| जब व्यक्ति मंजिल तक पहुंच जाता है तब  भी क्या वो रास्ते को पकड़ा रहता है?  जिस सीढ़ी से होकर छत पर पहुंचा जाता है क्या उसे छोड़ देना नहीं होता? जब व्यक्ति ब्रह्म में स्थित हो जाए ब्रह्म  के जैसा आचरण करने लगे तब उसके लिए धर्म यानी साधन की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती| ब्रह्म में स्थित व्यक्ति को मोक्ष की भी आवश्यकता नहीं होती,  कैसा मोक्ष?  मोक्ष में आकांक्षा जुड़ी हुई है| जो व्यक्ति ब्रह्म से जुड़ गया फिर उसे मोक्ष जैसी किसी इच्छा या आकांक्षा से क्या लेना देना? फिर ब्रह्म जैसा रखे| न मोक्ष/ न मुक्ति, न विरोध/ न प्रतिरोध|  फिर काम से भी दूरी कैसी और अर्थ से भी परहेज क्यों? सब उसकी रचना है उसी का क्रिएशन है तो फिर भेद/ अभेद क्या? फिर वो जो चाहे … नदी के बहाव के साथ बहते जाना है| जब सब कुछ परमात्मा का ही बनाया हुआ है उसी के विधान का हिस्सा है तो क्या अच्छा और क्या बुरा? ब्रह्म में स्थित व्यक्ति को ना  सन्यास में रस रह जाता है ना गृहस्थ में|  ना ही उसका सन्यासी या गृहस्थ से कोई विरोध होता| गृहस्थ लोग  साधना तो करना चाहते हैं लेकिन काम के प्रतिरोध के कारण डर जाते हैं|  उन्हें लगता है कि काम के साथ धर्म कैसे चलेगा?  चलेगा और बिल्कुल चलेगा धर्म अर्थ काम और मोक्ष चारों एक साथ चल सकते हैं| श्री कृष्ण ने कहा है बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् । धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ।।11।। श्री भगवान बोले-  हे भरतश्रेष्ठ! मैं बलवानों का आसक्ति और कामनाओं से रहित बल अर्थात् सामर्थ्य हूँ और सब भूतों में धर्म के अनुकूल अर्थात् शास्त्र के अनुकूल काम हूँ। मनुष्यों में धर्म से अविरूद्ध अर्थात् धर्मयुक्त ‘‘काम’’ मेरा स्वरूप है वो काम मनुष्य के अधीन होता है। मनुष्य उस काम के अधीन नहीं रहता|  जब काम मनुष्य के अधीन होता है तो वो धर्म होता है, लेकिन जब हम काम के अधीन हो जाएँ तो फिर उसके लिए दुराचार करने लगते हैं वो अधर्म हो जाता है| प्रेम युक्त काम धर्म है और यदि पति पत्नी प्रेम न  होने पर सेक्स करें तो वो भी अधर्म है| आसक्ति के लिए जो काम होता है, उस काम में मनुष्य पराधीन हो जाता है और उसके वश में होकर वो न करने लायक काम में प्रवृत्त हो जाता है। ब्रह्मचर्य की प्राप्ति से पहले भीतरी शक्ति का रूपांतरण हो जाता है। जो वासना नीचे गिराने वाली थी , वो ऊपर उठाने वाली हो जाती है। वो साधक को परमात्मा तक पहुंचा देती है। यदि वो मूलाधार में कामवासना की तरंग थी , तो वही सातवीं भूमिका पर समाधि हो जाती है। क्योंकि आपने अभ्यास किया और शक्ति का रूपांतरण हो गया। उस वक्त काम भी धर्म के स्वरूप बन जाता है| फिर भोग और योग में अंतर नहीं रह जाता| जब हमे अपने स्वरूप का ज्ञान हो जाता है, तो इन्द्रियां का दास न होकर , परम स्वतंत्र हो जाता है।  परमात्मा के समान ही उसका व्यापक दृष्टिकोण हो जाता है।