इन सोशल मीडिया साइट्स पर सरकार नकेल डाल पाएगी ? -अजय बोकिल


स्टोरी हाइलाइट्स

इन सोशल मीडिया साइट्स पर सरकार नकेल डाल पाएगी ? -अजय बोकिल सोशल मीडिया क्षेत्र में इन दिनो दिलचस्प टकराव और कुछ खिसियाहट भरी स्थिति है।.....

इन सोशल मीडिया साइट्स पर सरकार नकेल डाल पाएगी ?

अजय बोकिल

ajay bokilसोशल मीडिया क्षेत्र में इन दिनो दिलचस्प टकराव और कुछ खिसियाहट भरी स्थिति है। जहां केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी पर आरोप लगाया कि ‘ट्विटर पर राजनीति करना ‘उनका पसंदीदा कार्य है, वही मोदी सरकार ट्विटर जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्म को भारत की सम्प्रभुता पर खतरा मानकर उसे नोटिस थमा रही है। लेकिन ट्विटर पर स्थायी प्रतिबंध लगाने की हिम्मत अभी तक नहीं जुटा पाई है। उसी ट्विटर को हाल में नाइजीरिया जैसे अफ्रीकी देश ने ‘राष्ट्रपति ‍िवरोधी’ बताकर एक झटके में बैन कर दिया। यूं भारत सरकार ट्विटर, व्हाट्स एप जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स को भारत के कानून मानने की बाध्यता के नोटिस पहले भी दे चुकी है, लेकिन ये कंपनियां अभी भी आदेश मानने में आकाकानी करते हुए सरकार को ही झटके दे रही हैं। अगर ये प्लेटफार्म भारत सरकार के कानूनो को नहीं मान रहे हैं तो इनकी मुश्कें कसने में दिक्कत क्या है? क्या सरकार सचमुच ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ की प्रबल पक्षधर हो गई है या फिर वह स्वयं इन प्लेटफार्म्स का सिलेक्टिव इस्तेमाल होने देना चाहती है? हालांकि सिलेक्टिव सोच ( अगर है तो) अपने आप में ‘अंतरराष्ट्रीय नेट स्वतंत्रता’ और सोशल मीडिया पर लोगों के मनमाफिक बोलने की आजादी के अधिकार के खिलाफ है। बावजूद इस सचाई के कि सोशल मीडिया पर घोर अराजकता है। कई लोगों का मानना है कि भारत सरकार के आदेश में आम आदमी की स्वच्छंद अभिव्यक्ति के साथ-साथ ‍उसकी निजता के अधिकार की रक्षा भी दांव पर है। इस नियम के तहत सरकार जब चाहे, जिसकी चाहे बातचीत या मैसेजिंग को मांग सकती है, पढ़ सकती है।

इक्कीसवीं सदी की पहली चौथाई के आखिरी सालों में इन वैश्विक और अब बेहद ताकतवर हो चुकी सोशल मीडिया कंपनियों और वैधा‍िनक सरकारों के बीच जनमत बनाने के तंत्र पर नियंत्रण को लेकर खुली जंग शुरू हो गई है। कुछ देशों ने इन कंपनियो पर नकेल भी डाली है। लेकिन लोग भी अब सोशल मीडिया के ‘गुलाम ‘हो चुके हैं। क्योंकि ये कंपनियां हमारे जैसे आम आदमी को अपनी बात रखने का ( जिसमें अंध भक्ति से लेकर अंध विरोध और बेहूदा सामग्री पोस्ट करना तक शामिल है) प्लेटफार्म देती हैं। इससे जहां सच छुप नहीं पाता तो वहीं, कई बार झूठ ही सच के रूप में परोसा जाता है। यूं मोटे तौर पर एक यूजर सोशल मीडिया पर ‘दिल की बात’ कहकर हल्का हो जाता है, लेकिन ये कंपनियां ऐसे करोड़ों यूजरों के डाटा का बेखौफ इस्तेमाल अपने व्यावसायिक हितों के लिए करती हैं। इन कंपनियों को इतना ताकतवर भी हमी ने बनाया है। शायद इसीलिए करीब सात साल पहले भाजपा और मोदी सरकार को ‘अत्यंत प्रिय’ लगने वाला सोशल मीडिया प्लेटफार्म अपनी अब ‘हरकतों’ के कारण उन्हें चुभने लगा है। याद करें वर्ष 2011 में यूपीए- 2 सरकार में तत्कालीन संचार मंत्री कपिल सिब्बल ने जब सोशल मीडिया पर नकेल कसने की बात कही थी तो उसका कितना ‍विरोध हुआ था। सिब्बल को सफाई देनी पड़ी थी कि सरकार ऐसा कुछ नहीं करने जा रही। वो भारत में ट्विटर, व्हाट्सएप का शुरूआती दौर था। तब सिब्बल के बयान का विरोध इसलिए हुआ था, क्योंकि सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर राजनीतिक विरोध और ‘मन की बात’ कहने की सुविधा थी।

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गौरतलब है कि माइक्रो ब्लागिंग सोशल साइट ट्विटर और भारत सरकार के बीच पहला टकराव दिल्ली के सीमा पर किसान आंदोलन के चरम पर पहुंचने के समय ही हो गया था, जब सरकार ने आईटी एक्ट के सेक्शन-79 के तहत ट्विटर से उन 1178 ‍’खालिस्तान एवं पाकिस्तान समर्थित ’ अकांउट्स को सस्पेंड करने को कहा था, जो किसान आंदोलन के बारे में ‘गुमराह करने वाली सूचनाएं’ डाल रहे थे।‘ टविटर ने कुछ खाते सस्पेंड भी किए। साथ में दलील दी कि’ भारत सरकार ने जिस आधार पर ट्विटर अकाउंट्स बंद करने को कहा, वो भारतीय क़ानूनों के अनुरूप नहीं हैं।" इस के बाद भारत सरकार के सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने ट्विटर को सरकारी निर्देशों का अनुपालन न करने का नोटिस थमा दिया। लेकिन मोदी सरकार सबसे ज्यादा 'टूलकिट मैनिपुलेशन मीडिया' प्रकरण से भड़की। इसमें ट्विटर ने भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा द्वारा लगाए कांग्रेस पर टूलकिट इस्तेमाल कर बीजेपी और देश की छवि ख़राब करने के आरोप को ‘मैनिपुलेटेड’ श्रेणी में रखा। मैनिपुलेटेड बोले तो ऐसी तस्वीर, वीडियो या स्क्रीनशॉट है, जिसके ज़रिए किए जा रहे दावों की प्रामाणिकता पर संदेह हो और इसके मूल रूप से कोई छेड़छाड़ की गई हो। इसके बाद दिल्ली पुलिस ने मामले की जांच के बहाने ट्विटर के दिल्ली दफ्त र पर छापा मारा। इस पर ट्विटर ने दिल्ली में अपने स्टाफ की सुरक्षा को लेकर चिंता जताई। जवाब में भारत सरकार के आईटी मंत्रालय ने कहा कि "सरकार ट्विटर के दावों को पूरी तरह से खारिज करती है। भारत में बोलने की आज़ादी और लोकतांत्रिक तरीक़ों को मानने की एक शानदार परंपरा रही है। लेकिन ट्विटर का बयान दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र पर अपने शर्तें थोपने की कोशिश है। इसके पूर्व इस साल फरवरी में भारत सरकार ने सभी सोशल मीडिया कंपनियों से नए भारतीय नियम लागू करने का अल्टीमेटम‍ ‍िदया था, जो 26 मई को खत्म हो गया। ट्विटर पर इसका भी खास असर नहीं दिखा, क्योंकि उसने हाल में देश के उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू व सरसंघचालक मोहन भागवत सहित आरएसएस के पांच बड़े नेताअोंके अकाउंट से भी ब्लू टिक हटा दिया था। कारण कि ये अकाउंट काफी समय से ‘इनेक्टिव’ थे। भाजपा प्रवक्ता सुरेश नखुआ ने इसे ‘भारतीय संविधान पर हमला’ बताया। हालांकि बाद में ये ‘टिक’ रिस्टोर कर दिए गए। लेकिन अब भारत सरकार ने ट्विटर को ‘फाइनल नोटिस’ दे दिया है। कहा गया है कि अगर ट्विटर तत्काल नियमों का पालन करने में नाकाम रहता है तो आईटी एक्ट की धारा 79 के तहत उसे प्राप्त कानूनी संरक्षण समाप्त हो जाएगा।

उधर व्हाट्सएप के साथ भी भारत सरकार की तनातनी चल रही है। सरकार के नए आईटी नियमों का विरोध करते हुए व्हाट्सएप ने कहा कि वह ट्रेसेबिलिटी कानून ‘एंड-टू-एंड एन्क्रिप्शन’ के खिलाफ है। दिल्ली हाई कोर्ट में कंपनी ने कहा कि नए कानून में ट्रेसेबिलिटी का प्रावधान असंवैधानिक और लोगों के निजता के अधिकार का हनन करता है। इस पर भारत के कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने साफ कहा कि अगर सोशल मीडिया कंपनियों को भारत में काम करना है तो उन्हें यहाँ के क़ानूनों को मानना होगा। सरकार चाहती है कि ये सोशल मीडिया कंपनियां उनके बारे में शिक़ायतों का निपटारा पंद्रह दिनों में करें और इस बाबत सरकार को महीने में एक रिपोर्ट सौंपें। साथ ही सरकारी नियमों का पालन कराने कम्प्लायंस अफ़सर की नियुक्ति करें।

यहां बुनियादी सवाल ये है कि ये कंपनियां किसी सरकार को इतनी आंख कैसे दिखा सकती हैं और सरकार भी इतनी सहनशीलता क्योंकर‍ दिखा रही है? ध्यान रहे कि इन सोशल मीडिया कंपनियों ने दुनिया के दूसरे कुछ देशों में भी ऐसा ही करने की कोशिश की तो वहां सरकारों ने इन कंपनियों की मुश्कें कस दीं। लेकिन अगर हमारे यहां ये कंपनियां आसानी से नहीं मान रही तो इसका कारण करोड़ों भारतीयों का डेटा इनके पास है। अकेले ट्विटर के ही भारत में करीब 18 करोड़ यूजर्स हैं और वर्ष 2019 में इस कंपनी की भारत से कमाई 56.9 करोड़ रू. थी। कंपनी यह कमाई विज्ञापनों और डेटा लायसेंसिंग से करती है। यूं कहने को ट्विटर के मुकाबले एक स्वदेशी माइक्रो ब्लाॅगिंग सोशल वेब साइट ‘कू’ पिछले साल वजूद में आई है। भारत सरकार के कई मंत्री और भाजपा से जुड़े लोग इससे शुरू में ही जुड़ चुके हैं। फिर भी ट्विटर-सी लोकप्रियता और विश्वास अभी इसे नहीं मिला है। ‘कू’ के भारत में अभी साढ़े 4 करोड़ यूजर हैं। सरकारों और सोशल साइट कंपनियों के व्यावसायिक हितों और दुराग्रहों के बरक्स तीसरा पक्ष उन नेटीजनों का है, जो इंटरनेट पर अपनी बात बेलाग ढंग से कहने के पक्षधर हैं। उनका तर्क है कि सांडों की इस लड़ाई में अपनी बात कहने का उनका हक न प्रभावित हो। अगर सरकारें पिछले दरवाजे से भी सोशल मीडिया कंपनियों की मुश्कें कसना चाहती हैं तो वह इन्हें नामंजूर है।

यहां असल सवाल वही है कि अभिव्यक्ति की आजादी की हद क्या है? उसे किस हद तक मान्य किया जाए? इसे कौन पारिभाषित करेगा? कोई सरकार इतनी उदार कभी नहीं होगी कि वह उसे गालियां देने वालों को गुलाब के फूल भेंट करती रहे। जबकि सरकार या व्यवस्था विरोधी कभी नहीं चाहेंगे कि ‘गालियां दे सकने’ का उनका यह प्लेटफार्म कैदखाना बनकर रह जाए।

यानी असल जंग उस पब्लिक नरेटिव को नियं‍त्रित, निर्देशित और उसे संचालित करने की है, जो सरकारें बनाता, मिटाता है। मसलन कुछ देशों में सोशल मीडिया साइट्स पर चुनावों को प्रभावित करने के गंभीर आरोप लगे हैं। वोटरों तक व्यक्तिगत रूप से पहुंच के चलते इन कंपनियों ने चुनाव नतीजों को किसी के पक्ष में झुकाने की ताकत दिखाई। इसका तात्पर्य यही है कि यदि सोशल मीडिया साइट्स यदि सरकार और उसके हितों के पक्ष में काम करें तो सरकारें उन्हें ‘सही’ मानती हैं, लेकिन अगर विप‍क्षी हित में काम करें तो ‘देश विरोधी’ ठहराने में देर नहीं होती। क्योंकि ‘सरकार के हित’ और ‘देशहित’ में सूक्ष्म विभाजन रेखा है। जबकि इन सोशल मीडिया साइट्स का मकसद अपनी ताकत और कमाई बढ़ाते जाना है। यकीनन इस पर कहीं तो अंकुश लगाना ही होगा, लेकिन क्या सभी सरकारों में इतना नैतिक साहस है?