क्या हम सिर्फ लोकतंत्र का ढोल पीटते रह जायेंगे


स्टोरी हाइलाइट्स

क्या हम सिर्फ लोकतंत्र का ढोल पीटते रह जायेंगे! संसदीय लोकतंत्र को बचाने तत्काल सुधार ज़रूरी भारतीय संसदीय लोकत्रंत्र प्रणाली को लेकर आज कई सवाल खड़े हो रहे हैं. चुनाव की प्रक्रिया ऐसी है, कि जनता का सही प्रतिनिधित्व नहीं होता. ऐसा देखा जा रहा है कि अधिक मत प्रतिशत वाला दल कम सीटे पाता है और सत्ता से बाहर होता है. कम मत पाने वाला दल अधिक सीटे पाकर सत्ता पर काबिज हो जाता है. जाति , उपजाति, संप्रदाय के वोट बैंक के आधार पर चुनाव राजनीतिक दलों की जनता के साथ बेईमानी है. चुनाव चोषणा-पत्र लफ्फाजी हो गए हैं. चुनाव परिणामो के बाद सत्ता के लिए दलों के बीच जिस प्रकार के बेमेल समझौते हो रहे हैं, वह लोकतंत्र के साथ क्रूर मजाक है. एक- दूसरे के खिलाफ चुनाव में गाली- गलौज करने वाले विचारधारा में धुर विरोधी दल हाथ मिलाकर सत्ता में आ जाते हैं. जनता ठगी- सी रह जाती है. हाल में महाराष्ट्र, हरियाणा और केरल में ऐसा ही हुआ है. चुनाव में पैसा बाँटने की घटनाएँ पूरी चुनाव प्रक्रिया को हाईजैक करने जैसी हैं. ,राजनीतिक दल हारने पर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन को गलत बताकर उसपर सवालिया निशान लगाते हैं. इस तरह की अनेक बाते हैं, जिनके कारण व्यवस्था पर जनता का विशवास उठ रहा है. अब स्थिति ऐसी आ है रही है कि यदि इसे सुधारा नहीं गया, तो लोकतंत्र की आत्मा मर जाएगी. हम लोकतंत्र का सिर्फ ढोल पीटते रह जाएँगे . आज देश के सामने बहुत विचित्र स्थिति है. राजनीतिक लाभ के लिए देश को भी दांव पर लगाने से लोग नहीं चूक रहे हैं. आस्थाविहीन देश, नैतिकताविहीन राजनीतिक दल, निष्पक्षता रहित शासन प्रणाली, शुचिताविहीन सार्वजनिक जीवन, राष्ट्र को विघटन और पतन की और धकेल रहे हैं. राज्य और केंद्र की सरकारें अस्थिरता, हड़बड़ी और विवशता की शिकार हैं. कई राज्यों में कम बहुमत की सरकार विधायकों साधने के लिए अनुचित लाभ पंहुचा रही हैं. इसी प्रवृति के कारण लाभ के पद मामले में कई विधायकों और सांसदों की सदस्यता समाप्त हो चुकी है. निर्वाचित जनप्रतिनिधि कानून बनाने की प्रक्रिया में सक्रियता से भाग लेने की बजाय कार्यपलिका में अपने हित साधने में जुट जाते हैं. संसदीय लोकतंत्र को बचाने के लिए कदम उठाना आज समय की मांग है. चुनाव सुधार भी जरूरी हैं. सबसे पहले राजनितिक दलों को अपनी व्यवस्था में सुधार की जरूरत है. उन्हें चाहिए कि वोट बैंक की खातिर राजनीति के अपराधीकरण, बाहुबलीकरण, जातीय- उपजातीयकरण, साम्प्रदायीकरण, क्षेत्रीयकरण और भाषाईकरण से बाज आयें.. चुनाव सुधार के लिए तुरंत काम करने की जरूरत है. सबसे बुनियादी बात तो यह है कि चुनाव पर होने वाला खर्च सरकार द्वारा वहन किया जाए तो चुनावी खर्च के लिए भ्रष्टाचार की जो भूमिका चुनाव में तैयार होती है उससे बचा जा सकता है. राजनीतिक दलों के लिए दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि मतदान के समय प्रत्याशियों के चयन में ज्यादा सतर्कता बरतें. शिक्षित और योग्य लोगों को अधिक मौका दें. वोट बैंक के लिए ऐसे लोगों को ज्यादा प्रोत्साहित नहीं करें जिनका समाज में कोई खास योगदान नहीं है. चुनाव प्रक्रिया में भी सुधार की जरूरत है. सबसे पहले तो मतदान को या तो अनिवार्य किया जाए या ऐसी व्यवस्था की जाए कि वही प्रत्याशी जीता हुआ माना जाएगा जिसे मतदाता सूची के कुल मतदाताओं का न्यूनतम 50 प्रतिशत मत प्राप्त हों. अभी ऐसा हो रहा है कि लोकसभा और विधानसभा के लिए 50 से 60 प्रतिशत मतदान होता है. विभिन्न प्रत्याशियों के बीच मतों का विभाजन हो जाता है और 30 प्रतिशत मत प्राप्त कर भी प्रत्याशी जीत जाता है. अब जरा सोचिए क्षेत्र के 70 प्रतिशत लोगों का जिस व्यक्ति को समर्थन नहीं है, उसे उस क्षेत्र का जनप्रतिनिधि कहना क्या सही है? इसी प्रकार सरकार गठन के समय भी ऎसी स्थिति बनती है कि बहुमत का आंकड़ा नहीं होने के बाद भी निर्दलीय और छोटे-छोटे दलों को मिलाकर सरकार बना ली जाती है. दूसरा बड़ा दल, जिसने सरकार बनाने वाले दल से अधिक मत प्राप्त किये हैं, सरकार नहीं बना पाता. क्या इसे वास्तविक बहुमत की सरकार कहा जा सकता है? कहीं ऐसी परिस्थिति बनने पर देखा गया है कि सांसदों और विधायकों को खुश रखने के लिए कप जतन किये जाते हैं वे जनहित में नहीं होते और सरकार के लिए बोझ होते हैं. जिस तरह के प्रत्याशी विजयी होकर विधानसभा और लोकसभा में जा रहे हैं और उनके जो अनुभव देश के सामने आये हैं उससे लगता है कि विषय विशेषज्ञों को ज्यादा मौका देने की जरूरत है. ऐसी प्रणाली भी सोची जा सकती है जिसमें की 50 प्रतिशत सीटों पर प्रत्यक्ष निर्वाचन हो और 50 प्रतिशत सीटों पर पर राजनीतिक दल अपने प्रत्याशी घोषित करें. निर्वाचन प्रत्याशी के लिए न होकर दल के लिए हो और समग्र रूप से उन दलों द्वारा प्रतिनिधियों को निर्वाचित घोषित किया जाए. इससे यह लाभ होगा कि जनता से चुने जाने में जो विषय विशेषज्ञ पिछड़ जाते हैं, उन्हें मौका मिलेगा और व्यवस्था में सुधार हो सकेगा. इस पर भी सोचा जा सकता है कि राजनीतिक दल विधानसभा या लोकसभा क्षेत्रों में प्रत्याशी घोषित करने से पहले दल के स्तर पर उस क्षेत्र में अपने सदस्यों के बीच मतदान कराएं. इस प्रक्रिया से चयनित व्यक्ति को ही चुनाव के लिए मौका दिया जाए. चुनाव घोषणा-पत्र पर भी ध्यान दिए जाने की जरूरत है. घोषणा-पत्र में लोकलुभावन वायदे करने से राजनीतिक दलों को रोका जाए. इसके लिए दंड की व्यवस्था की जाए. चुनाव को संवैधानिक स्वरूप में शामिल किया जाए सरकार गठन के साथ ही घोषणा-पत्र को पूरा करना दल की जिम्मेदारी हो. इसके लिए एक संवैधानिक संस्था निर्मित होनी चाहिए, जो इस बात की निगरानी करे कि चुनाव में किए गए वायदों को पूरा किया जा रहा है या नहीं. यदि ऐसा पाया जाए की वायदों को पूरा नहीं किया गया, तो ऐसे दल गर्ल को अगले चुनाव में लड़ने से रोकने के बारे में भी व्यवस्था शुरू की जानी चाहिए.