कुंडलिनी शक्ति जागे बिना कोई साधना,उपलब्धि संभव नहीं, योग की सबसे रहस्यमय साधना विधि.. दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

भारत की आध्यात्मिक विरासत की समृद्धि की बात बहुत की जाती है, लेकिन इसकी समृद्धि, व्यापकता और गहराई की समझ कम..............

कुंडलिनी शक्ति जागे बिना कोई साधना,उपलब्धि संभव नहीं, योग की सबसे रहस्यमय साधना विधि.. दिनेश मालवीय भारत की आध्यात्मिक विरासत की समृद्धि की बात बहुत की जाती है, लेकिन इसकी समृद्धि, व्यापकता और गहराई की समझ कम ही लोगों को ही होती है।हम आपको योग और ध्यान की एक ऐसी विधि के बारे मे बताने जा रहे हैं, जिसके बारे मे कम ही लोग जानते हैं। योग, संसार को भारत की सबसे बड़ी देन है। वैसे तो गणित, ज्योतिष,चिकितसा सहित अनेक लौकिक क्षेत्रों मे भारत ने दुनिया को बहुत कुछ दिया है, लेकिन भारत की सबसे बहुमूल्य देन अध्यात्म है।इसमें योग,ध्यान, प्राणायाम सहित अनेक साधन और विधियां शामिल हैं। पिछले कुछ वर्षों से भारत की पहल पर 21 जून को "विश्व योग दिवस" मनाया जाने लगा है। इससे योग के विषय मे लोगों की जागरूकता और इसके लाभों के बारे मे ज्ञान न काफी बढ़ा है। लेकिन इसमें एक कमी यह है कि अधिकतर लोग। इसे व्यायाम ही मानते हैं। निश्चित ही यह शरीर और मन के स्वास्थ्य के लिये सबसे अच्छा व्यायाम है। यह विशुद्ध विज्ञान है, जिसे पूरी दुनिया के चिकित्सा विशेषज्ञ भी मान्यता दे रहे हैं। लेकिन योग इससे कहीं अधिक बड़ी और गहरी चीज़ है। यह आध्यात्मिक प्रगति का सबसे महत्त्वपूर्ण माध्यम है। जिस योग को व्यायाम माना जा रहा है, वह आध्यात्मिक भूमि मे क़दम रखने का प्रारंभ मात्र है। जो लोग इसे व्यायाम मानकर करते हैं, उन्हें भी बहुत लाभ होता है। योग अनेक तरह के हैं, जैसे हठयोग, मंत्रयोग, लययोग, भक्ति योग, ज्ञानयोग आदि। योग का अर्थ है जुड़ना। किससे जुड़ना है ? किसी से नहीं, ख़ुद से जुड़ना है। अभी हम अपने शरीर और मन को ही सबकुछ मानकर बैठे हैं। इनसे आगे हमारी जो चेतना है उससे हम अनभिज्ञ हैं। योग हमे इसी चेतना का अनुभव करके अफने असली स्वरूप को पहचानने और उससे जुड़ने मे मदद करता है। अब हम सिद्धयोग की ओर चलते हैं। यह एक ऐसी योग परंपरा है, जिसमे दीक्षित व्यक्ति को सभी योग,प्राणायाम, मुद्राएं और ध्यान स्वयं घटित होते हैं। उसे इनमें मे किसी के लिये भी प्रयास नहीं करना पड़ता। यह भी जानें: योग के विकास का इतिहास… सिद्धयोग परंपरा के अधिकृत गुरु से दीक्षा होने पर शिष्य की कुंडलिनी शक्ति जाग्रत हो जाती है। इस शक्ति की जाग्रति के बिना कोई भी साधना और उपलब्धि संभव नहीं है। इस शक्ति को हठयोग मे कुंडलिनी, वेदांत मे प्रज्ञान, मंत्रशास्त्र मे चैतन्यता, तंत्र मे जगदंबा प्रत्यक्षीकरण और भक्तियोग मे आह्लादिनी शक्ति कहा जाता है। इसके जागरण के बिना साधना मे सहज स्वाभाविकता नहीं आती। कुंडलिनी शक्ति को जगाने के अनेक उपाय विभिन्न ग्रंथों मे वर्णित हैं। हठयोग मे इसे हठपूर्वक साधना के द्वारा जगाया जाता है। और भी अनेक विधियाँ हैं। ये विधियाँ बहुत कष्टसाध्य होने के साथ साथ पूरी तरह सुरक्षित नहीं होतीं। सबसे सरल और सुरक्षित उपाय गुरुकृपा है। समर्थ और अधिकृत कुरु शक्तिपात के माधयम से शिष्य मे इस शक्ति को सक्रिय करते हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण स्वामी विवेकानंद का है। उनके गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें शक्तिपात के माध्यम से अध्यात्म की बहुत ऊँची अवस्था का अनुभव कराया था। शक्तिपात पाँच तरह से किया जाता है- शिष्य को स्पर्श करके, मंत्र देकर, अपना जूठा खिलाकर, संकल्प से और दृष्टि से। किसी भी तरह से किया गया शक्तिपात समान रूप से प्रभावशाली होता है। यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि सिद्धयोग मे कुंडलिनी शक्ति, शक्ति जागरण के बाद क्या होता है। इसमे दीक्षा के समय से ही शिष्य को अनेक तरह की अनुभूतियां होने लगती हैं। उसे उसकी शारीरक, मानसिक और आध्यात्मिक आवश्यकता के अनुसार योगिक क्रियाएँ अपने आप होने लगती हैं। गुरु द्वारा दिये गये आसन पर बैठते ही उसे अनेक अनुभव होने लगते हैं। ऐसे ऐसे आसन, मुद्राएं और प्राणायाम बिना किये ही होते हैं, जिन्हें करने के लिये हठयोगी बहुत वर्षों तक अभ्यास करते हैं। अनुभूतियों का विस्तार बहुत अधिक है, जिसे शब्दों मे बताना असंभव है। धीरे धीरे शिष्य का मन विकारों से मुक्त होने लगता है। उसे सहज ही ध्यान लगने लगता है। अंत मे समाधि अवस्था आती है, जो योग का सर्वोच्च लक्ष्य है। सिद्धयोग की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि शिष्य के सांसारिक और पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन मे कोई बाधा नहीं आती। इसके विपरीत उसकी एकाग्रता बढ़ने से वह अपने सभी कार्य और बेहतर तरीक़े से करता है। सारे दायित्वों का कुशलता से निर्वाह करते हुये वह आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करता है। यह भी जानें: योग के उद्देश्य ? आत्मा को परमात्मा में मिला देना,आनन्द की प्राप्ति; दुःख से मुक्ति ही मोक्ष..