कुंभ खत्म होते ही कहां चले जाते हैं? नागा साधु


स्टोरी हाइलाइट्स

महाकुंभ, अर्धकुंभ या फिर सिंहस्थ कुंभ में आपने नागा साधुओं को जरूर देखा होगा. कौन हैं ये नागा साधु, कहां से आते हैं और कुंभ खत्म होते ही कहां चले जाते हैं? ऐसे सवाल आपके मन में जरूर आते होंगे तो आइए हम आपको बताते हैं हिंदू धर्म के इस बड़े रहस्य के बारे में...

कुंभ खत्म होते ही कहां चले जाते हैं? नागा साधु महाकुंभ, अर्धकुंभ या फिर सिंहस्थ कुंभ में आपने नागा साधुओं को जरूर देखा होगा. कौन हैं ये नागा साधु, कहां से आते हैं और कुंभ खत्म होते ही कहां चले जाते हैं? ऐसे सवाल आपके मन में जरूर आते होंगे तो आइए हम आपको बताते हैं हिंदू धर्म के इस बड़े रहस्य के बारे में... कुंभ या महाकुंभ में बड़ी संख्य़ा में नजर आने वाले नागा साधू कहां चले जाते हैं. वो हमें फिर कहीं नजर क्यों नहीं आते. दरअसल नागा साधू अपने आपने में बड़ा रहस्य भी लपेटे हुए हैं. ज्यादातर नागा साधू आम दिनों में हिमालय में साधना में लीन रहते हैं तो कुछ आम साधुओं का वेश धारण करके हमारे बीच घूमते रहते हैं| कुम्भ में श्रद्धालुओं पर अमृत वर्षा के बाद ये आम साधु संन्यासी की तरह पूजा-पाठ व जाप करते हैं या फिर हिमालय की कंदराओं और घने जंगलों में तप के लिए निकल जाते हैं. इन दिनों भी वो ऐसा ही कर रहे होंगे. बहुत से नागा साधू हिमालय की गुफाओं में साधना में लीन होंगे तो बहुत से साधू जिन्हें हम अक्सर शहरों और गांवों में देखते हैं, वो भी नागा साधु हो सकते हैं| नागा साधुओं का कहना है कि सालभर दिगम्बर अवस्था में रहना समाज में संभव नहीं है. निरंजनी अखाड़े के अध्यक्ष महंत रवींद्रपुरी जो खुद भी पेशवाई के दौरान नागा रूप धारण करते हैं, कहते हैं कि समाज में आमतौर पर दिगम्बर स्वरूप स्वीकार्य नहीं है. लिहाजा वो आम दिनों में सामान्य साधू के रूप में रहते हैं|   नागा साधू बताते हैं कि दिगंबर शब्द दिग् व अम्बर के योग से बना है। दिग् यानी धरती और अम्बर यानी आकाश। आशय कि धरती जिसका बिछौना हो और अम्बर जिसका ओढ़ना। मान्यता है कि कुम्भ क्षेत्र में देवताओं का वास होता है और आकाश से अमृत वर्षा होती है इसीलिए नागा साधु अपने असली रूप में होते हैं| पहले नागा साधु अपने वास्तविक रूप में ही पूरे साल रहते थे लेकिन जैसे-जैसे नागा साधुओं की संख्या बढ़ने लगी आश्रमों में जगह कम होने लगी। इसलिए नागाओं को समाज में रहना पड़ता है| आदिगुरु शंकराचार्य को लगने लगा था सामाजिक उथल-पुथल के उस युग में केवल आध्यात्मिक शक्ति से ही इन चुनौतियों का मुकाबला करना काफी नहीं है. उन्होंने जोर दिया कि युवा साधु व्यायाम करके अपने शरीर को सुदृढ़ बनायें और हथियार चलाने में भी कुशलता हासिल करें. इसलिए ऐसे मठ बने जहां इस तरह के व्यायाम या शस्त्र संचालन का अभ्यास कराया जाता था, ऐसे मठों को अखाड़ा कहा जाने लगा| नागा संन्यासी बनने के लिए वयस्क होना आवश्यक है. बाल्यकाल में बच्चों को अखाड़ा लेता है. इसके बाद वयस्क होने पर उन्हें गंगा की शपथ दिलाई जाती है कि वह परिवार में नहीं जाएगा और न ही विवाह करेगा. समाज से अलग रहेगा, ईश्वर भक्ति करेगा. उसके परिवार का पिंडदान कराया जाता है. उसका खुद का भी पिंडदान कराया जाता है. इसके बाद क्षौरकर्म कराकर संन्यास दीक्षा देते हैं. फिर वह नागा संन्यासी माना जाता है| प्राचीन काल में नागा साधू युद्ध कलाओं में निपुड़ होते थे. यहां तक कि स्थानीय राजा-महाराज विदेशी आक्रमण की स्थिति में नागा योद्धा साधुओं का सहयोग लिया करते थे. इतिहास में ऐसे कई युद्धों का वर्णन मिलता है जिनमें 40 हजार से भी ज्यादा नागा योद्धाओं ने हिस्सा लिया. अहमद शाह अब्दाली के मथुरा-वृन्दावन के बाद गोकुल पर आक्रमण के समय नागा साधुओं ने उसकी सेना का मुकाबला करके गोकुल की रक्षा की| नागा साधुओं के प्रमुख अखाड़े- भारत की आजादी के बाद इन अखाड़ों ने अपना सैन्य चरित्र त्याग दिया. इन अखाड़ों के प्रमुख ने जोर दिया कि उनके अनुयायी भारतीय संस्कृति और दर्शन के सनातनी मूल्यों का अध्ययन और अनुपालन करते हुए संयमित जीवन व्यतीत करें. इस समय 13 प्रमुख अखाड़े हैं जिनमें प्रत्येक के शीर्ष पर महन्त आसीन होते हैं.  श्री निरंजनी अखाड़ा, श्री जूनादत्त या जूना अखाड़ा, श्री महानिर्वाण अखाड़ा, श्री अटल अखाड़ा, श्री आह्वान अखाड़ा, श्री आनंद अखाड़ा, श्री पंचाग्नि अखाड़ा, श्री नागपंथी गोरखनाथ अखाड़ा, श्री वैष्णव अखाड़ा, श्री उदासीन पंचायती बड़ा अखाड़ा, श्री उदासीन नया अखाड़ा, श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा और निर्मोही अखाड़ा कुछ प्रमुख अखाड़े हैं| पद और उपाधि- इलाहाबाद के कुंभ में उपाधि पाने वाले साधुओं को नागा, उज्जैन में खूनी नागा, हरिद्वार में बर्फानी नागा, नासिक में उपाधि पाने वाले को खिचड़िया नागा कहा जाता है. इससे यह पता चल पाता है कि उसे किस कुंभ में नागा बनाया गया है|