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यूसीसी का विचार, वसुधैव कुटुंबकम का आधार

सार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भोपाल में ‘एक घर-एक परिवार-एक कानून’ की जब से बात की है, पूरे देश में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) पर गरमा गरम बहस शुरू हो गई है. राजनीतिक क्षेत्र से जो प्रतिक्रियाएं आ रही हैं वह कमोबेश उसी तरीके से हैं जैसा कि कुछ धार्मिक समूह इसके विरोध में प्रतिक्रिया दे रहे हैं.

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विस्तार

देश में यूसीसी की बात पहली बार नहीं हो रही है. भारतीय संविधान निर्माताओं ने भी इसका उल्लेख भारतीय संविधान में किया है. भारत की सर्वोच्च अदालत समान नागरिक संहिता के लिए ना मालूम कितनी बार देश की सरकारों को इसे नहीं लागू करने के लिए कटघरे में खड़ा कर चुकी हैं.

जगत में जन्म और मृत्यु में पूरी तरह से समानता है. कोई भी धर्म-जाति या संप्रदाय कुदरती रूप से असमान नहीं है. समानता का समाज कुदरत की आवाज है. जब मनुष्यता के जन्म, विकास और संरक्षण में धर्म-जाति और संप्रदाय के आधार पर कोई विभेद नहीं है तो फिर जीवन में शादी-विवाह, उत्तराधिकार, संपत्ति, तलाक जैसे दूसरे सामाजिक आधारों में असमानता न केवल गैर वाजिब है बल्कि संविधान और प्रकृति के नियमों के भी खिलाफ है.

संविधान के अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता के प्रावधानों को स्वतंत्रता के इतने सालों के बाद अब तक लागू नहीं किया जा सका है. इसका कारण वोट बैंक की राजनीति ही रही है. कांग्रेस आजादी के बाद देश का शासन संभालती रही. कांग्रेस की सरकारों ने धार्मिक आधार पर सामाजिक मुद्दों पर भी अलग-अलग कानूनों को मान्यता दी. धीरे-धीरे प्रगति और विश्वव्यापी जनचेतना के एकीकरण से यह बात विभाजनकारी दिखने लगी कि एक देश में जीवन से जुड़े सामाजिक मुद्दों पर दो कानून कैसे चल सकते हैं?

राजनीति में बीजेपी ने जब से उभार लेना शुरू किया तब से ही उसके बुनियादी मुद्दों में समान नागरिक संहिता का मुद्दा चल रहा है. बीजेपी कोई मुद्दा राष्ट्र के सामने लेकर आए, उस पर आगे बढ़ने का प्रयास करे और उसका राजनीतिक विरोध ना हो यह तो देश के लिए आश्चर्यजनक घटना ही होगी. यूसीसी के मामले में तो धार्मिक समूह जुड़ा हुआ है. मुस्लिम समुदाय को ऐसा लगता है कि यूसीसी के बहाने बीजेपी उन पर हिंदू कोड बिल लागू करना चाहती है. लोकतंत्र में चुनाव में वोट बैंक की राजनीति के कारण कई बार देशहित के मुद्दे भी इस ढंग से आगे बढ़ाए जाते हैं कि मनुष्यता और कुदरत के नियम भी शर्माने लगते हैं.

समान नागरिक संहिता पर पीएम मोदी ने जिस ढंग से विचार रखे हैं उसी से लगता है कि अब इस पर सरकार की ओर से निर्णायक कदम उठाए जा रहे हैं. मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड इसका विरोध कर रहा है. लॉ कमीशन की ओर से इस पर सुझाव मांगे जा रहे हैं. यूसीसी का मामला सरकार और बीजेपी के लिए भी आसान नहीं कहा जाएगा. इसको लेकर राजनीतिक ढंग से भ्रम और अफवाह फैलाई जा रही है. न केवल मुस्लिम समुदाय में बल्कि हिंदू समुदाय में दलित आदिवासियों में परंपरा के नाम पर यूसीसी को विलेन के रूप में बताने का प्रयास किया जा रहा है.

अभी तक सरकार की ओर से यूसीसी का कोई ड्राफ्ट तो सामने नहीं आया लेकिन जो विचार सार्वजनिक रूप से सामने आ रहे हैं उनसे यह विश्वास हो रहा है कि समान नागरिक संहिता में शादी-तलाक, जमीन जायदाद के बंटवारे में सभी धर्मों के लिए एक ही कानून लागू होगा. दुनिया के किसी भी देश में जाति और धर्म के आधार पर अलग-अलग कानून नहीं हैं. यहां तक कि पाकिस्तान में भी समान नागरिक संहिता लागू है. दुर्भाग्य की स्थिति है कि भारत में अलग-अलग पंथों के लिए मैरिज एक्ट हैं. इस वजह से विवाह-जनसंख्या समेत कई तरह का सामाजिक ताना-बाना बिगड़ा हुआ है.
 
शादी-जनसंख्या और संपत्ति में महिलाओं की भागीदारी हमेशा से महत्वपूर्ण रही है. धार्मिक मान्यताओं के आधार पर इन मामलों में महिलाओं के साथ भेदभाव होता रहा है. समान नागरिक संहिता से महिलाओं की स्थिति ना केवल सुधरेगी बल्कि उनके जीवन में गरिमा और समानता का आविर्भाव होगा.

यूसीसी की राह आसान नहीं है. इसमें बहुत सारे बुनियादी और कठिन मुद्दे शामिल हैं. शादी के मामले में आज तो ऐसे हालात बने हुए हैं कि क्या महिला पुरुष के विवाह को ही शादी माना जाएगा? आज तो लिव इन रिलेशन भी कानूनी है. यहां तक की पुरुष-पुरुष और महिला-महिला के बीच शादी को भी मान्यता देने के संबंध में मामले सर्वोच्च अदालत में निर्णय के लिए लंबित हैं. 

यूसीसी में शादी की डेफिनिशन में इन सारी बातों को शामिल करना होगा. शादी के मामले में बालिका की उम्र का बड़ा मुद्दा है. हिंदू मैरिज एक्ट में शादी की उम्र निर्धारित है. मुस्लिम पर्सनल ला में इस पर अलग नियम है. इस बात से तो कोई भी व्यक्ति इनकार नहीं कर सकता कि सभी धर्मों में महिलाओं के लिए वैज्ञानिक दृष्टि से विवाह योग्य उम्र कानून में एक समान होना जरूरी है.

इसी तरह से तलाक और पुनर्विवाह के मामले में भी एक जैसा कानून महिलाओं के जीवन के लिए बेहतर अवसर प्रदान करेगा. यूसीसी का मामला बहुत पेचीदा है. इस पर बहुत सोच समझ कर ही आगे बढ़ने की जरूरत है. जैसे तीन तलाक के मामले में बीजेपी सरकार ने कानून बनाया उसी प्रकार से एक साथ कई विषयों को जोड़ने की बजाय बुनियादी विषयों पर एक एक कर कानून बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ की जाना चाहिए.

यूजीसी का विरोध करने वाले खास करके मुस्लिम समुदाय के लोग ऐसा मानते हैं कि यह सभी धर्मों पर हिंदू कानून थोपने का प्रयास जैसा है. जबकि यूसीसी का उद्देश्य साफतौर से सभी को समान नजर से देखना और न्याय करना है. कई मुस्लिम धर्मगुरु और मुस्लिम स्कॉलर यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने के पक्ष में नहीं है. उनका कहना है कि हर धर्म की अपनी मान्यताएं और आस्थाएं होती हैं. ऐसे में उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.

ऐसा नहीं हो सकता कि समान नागरिक संहिता में एक समुदाय के नियम सभी पर लागू हो जाएँ. ऐसा भी संभव है कि दूसरे धर्म की अच्छी विधि और परंपराओं को भी यूसीसी में शामिल कर लिया जाए और वह सभी पर लागू हो जिसमें हिंदू समुदाय भी शामिल होगा. इसलिए यूसीसी पर व्यापक विचार विमर्श की जरुरत है. विरोध के लिए विरोध देशहित में नहीं होगा.

बीजेपी पर यह राजनीतिक आरोप लगाया जा रहा है कि लोकसभा चुनाव में वोटों के ध्रुवीकरण के लिए यूसीसी को लाया जा रहा है. यूसीसी को ध्रुवीकरण के नजरिए से ना तो सरकार को देखना चाहिए और ना ही राजनीतिक दलों को. यह देश का सुधार है, सिस्टम का सुधार है. इतिहास में जो सुधार अब तक नहीं हो सका है उस सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का सुधार है.

इसके पहले भी जब कश्मीर में धारा 370 को हटाया गया था तब भी इसी तरह के राजनीतिक आरोप लगाए गए थे. एनआरसी लागू करते समय भी इसी तरीके से विरोध की आवाजें उठाई गई थी. स्वछंदता और स्वतंत्रता इंसानी स्वभाव हो सकता है लेकिन राष्ट्रीय स्वभाव और अनिवार्यता संविधान और संहिता ही है. सामाजिक सुधार और सामाजिक जीवन से जुड़े नियमों में समानता के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण अंतर्दृष्टि की कमी ही कही जाएगी. कुदरती संहिता समान है तो फिर कानून की संहिता में अलग रहने की मानसिकता कुदरत के साथ भी नाइंसाफी ही कही जाएगी.