• India
  • Fri , Oct , 04 , 2024
  • Last Update 01:51:AM
  • 29℃ Bhopal, India
Podcast
प्रेरणा

रोजी के लिए मौत देश को कब रुलाएगी ? झूठ की सियासत को क्या कभी शर्म आएगी..!

04-04-2022

रोजी के लिए मौत देश को कब रुलाएगी ? झूठ की सियासत को क्या कभी शर्म आएगी..! जैसे डॉक्टरों के लिए हर मौत एक आंकड़ा होती है, वैसे ही विधायी सदनों के भारसाधक सदस्यों के लिए यह आंकड़े वक्तव्य का एक अवसर भर देते हैं| लोग बेरोजगारी के कारण आत्महत्या कर रहे हैं, और सरकारी सिस्टम हत्याओं को भी “इवेंट” बनाने से नहीं चूक रहा है| आज हालात ऐसे हो गए हैं कि पेट्रोल महंगा हो गया है, और जान सस्ती हो गई है| गरीब की बाईक पेट्रोल नहीं उसका खून पी रही है| जन्म के बाद रोजगार के लायक बनने तक, बालक बालिका उत्साह के साथ जीवन गुजारते हैं| जैसे ही रोजगार की उम्र में आते हैं, भटकाव और तनाव शुरू हो जाता है| नौकरियां नहीं हैं और स्वरोजगार को सफल बनाना बहुत आसान नहीं है| बेरोजगारी में पढाई सबसे बड़ा अभिशाप लगने लगती है| पढ़ाई ना की होती तो कुछ छोटे-मोटे काम भी कर सकते थे| लेकिन बड़ी-बड़ी डिग्रियों के बाद वह भी नहीं कर सकते| बेरोजगारी का तनाव, बेरोजगार का ही सपना नहीं तोड़ता, परिवार और रिश्ता भी तोड़ देता है| समाज और राष्ट्र के प्रति सोच को भी नकारात्मक कर देता है| तीन सालों में यानि 1095 दिनों में, बेरोजगारी के कारण 9000 और आर्थिक तंगी से दिवालिया होने के कारण 16000 आत्महत्या होना राष्ट्रीय शर्म की बात है| इसका मतलब हर दिन 9 लोग बेरोजगारी के कारण और 16 लोग आर्थिक तंगी के कारण आत्महत्या कर रहे हैं| क्या सिस्टम में किसी भी स्तर पर आत्महत्याओं के इस राष्ट्रीय शर्म पर जूं रेंगती दिखाई पड़ती है ?उल्टा शर्म के इस विषय को भी राजनीतिक हथियार बनाया जाता है| आत्महत्या के आंकड़ों पर फिर राजनीतिक बयानबाजी होगी, विपक्षी दल प्रदर्शन भी करेंगे, ऐसा लगता है कि आत्महत्यायें राजनीति की खुराक होती हैं| “भाषण ही शासन” की प्रशासनिक शैली में, नौकरियों और स्वरोजगार के लिए लोन वितरण के वक्तव्य सुन सुनकर आम इंसान ऊब चुका है| जब कभी भर्तियां होती भी हैं तो “व्यापक” गड़बड़ी और घोटाले “योग्य” को बाहर धकेल देते हैं| सरकारी भर्तियां  तो शायद अब होती नहीं हैं| आउटसोर्सिंग का सिस्टम हावी हो गया है| राजनीति की सोच को क्या लकवा मार गया है कि महंगाई की मार में 10,000 रूपये का बिना ब्याज लोन देकर उन्हें विकसित मान लिया जाता है?  आत्महत्या ईश्वर के विधान के विरुद्ध है| आत्महत्याओं की परिस्थितियों के अध्ययन, शोध और उसके मुताबिक कल्याण की नीतियों का निर्माण करने की शासन की शैली अब नहीं बची है| अब तो सत्ता के नेताओं की सनक सरकार का संविधान बन रही है| सिस्टम में जवाबदेही और जिम्मेदारी तो लुप्त सी हो रही है| इसी देश में रेल दुर्घटना पर नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए रेल मंत्री पद छोड़ दिया करते थे| आज नैतिक जवाबदारी तो छोड़िए सिस्टम में संवैधानिक जिम्मेदारी और जवाबदारी भी लेने से लोग कतराते हैं| जवाबदारी टरकाते  रहना सरकारों का अलिखित संविधान बन गया है| लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकारों में किए गए अनैतिक, अवैधानिक, अपराधिक लापरवाही, वित्तीय अपराध, जनहित के साथ धोखाधड़ी, साधु के रूप में शैतानी प्रवृत्ति के काम करना आम बात है| चुनाव में हार के बाद सरकारों के हटने के साथ ही, यह सारे अपराध समाप्त मान लिए जाते हैं| ऐसी धारणा है कि चुनाव में जनता ने हराकर दंड दे दिया है| यह धारणा बदलने की जरूरत है| सरकार में रहते हुए जो लापरवाही और जनविरोधी काम हुए हैं, उनकी जवाबदेही सरकार से हटने के बाद भी, तय होना चाहिए, तभी सिस्टम सुधरेगा| अभी सिस्टम उसी तरह काम करता है जैसे बड़े से बड़े अपराधी के अपराध को मौत के बाद भुला दिया जाता है|