मध्य प्रदेश के लोकनाट्य 3 : तमाशा और रास मंडल को जानें... 


स्टोरी हाइलाइट्स

मंच के बीचोबीच कागज का बना कदंब वृक्ष लगाया जाता है, इसके नीचे राधा-कृष्ण की मूर्तियाँ स्थापित की जाती हैं। दर्शक इसके चारों ओर बैठते हैं। सारे अभिनय स्थल व दर्शकों के बैठने के स्थल को 360 दीपकों से प्रकाशित किया जाता है

शहडोल और उसके आसपास के गाँवों में तमाशा लोकप्रिय है। यह छोटी अलिखित कहानियों पर आशु प्रदर्शन होता है। संवाद तत्काल जोड़ दिये जाते हैं और गीतों में निर्गुणिया भजनों, ददरिया आदि का उपयोग किया जाता है। मंच चार खंभे गाड़ कर बनाया जाता है, जिसके ऊपर चादर से शामियाना ताना जाता है। प्रकाश के लिये मिट्टी के तेल की मशाल होती है, जिसे भपका कहते हैं।

रासमंडल:

रासमंडल का आयोजन कृष्णजन्माष्टमी के आसपास नीमाड़ में किया जाता है। नीमाड़ का रासमंडल कृषिप्रधान संस्कृति से उपजा है। इसमें बम की महिमा और कृषक के जीवन की कथा प्रस्तुत की जाती है। वर्षा आते ही इसकी तैयारियाँ शुरू हो जाती है। गाँव गाँव में रासमंडल खेला जाता है। इसके लिये गाँव के चौराहे पर मंच बनाया जाता है। 

मंच का निर्माण एक सभा गाड़ कर उस पर रस्सों के सहारे चादर तान कर किया जाता है। मंच चारों तरफ से खुला होता है। लीला रात में आरंभ होती है। रंगमच के एक कोने में बालमुकुंद की मूर्ति स्थापित की जाती है। आरंभ में गणेश और माँ भवानी की वंदना की जाती है, फिर मंच पर स्त्री पात्र के साथ चार पाँच पुरुष पात्र प्रहसनात्मक संवाद करते हैं। दर्शक उनकी बातचीत और उल्टी सीधी हरकतों से हँसते हँसते लोटपोट हो जाते हैं। फिर नाटक शुरू हो जाता है।

रासलीला छत्तीसगढ़ के अंचलों में रहस के नाम से प्रचलित रही है। यह नृत्य नाट्य है, और इसका स्वरूप आनुष्ठानिक होता है। सतनामी जाति में रहस विशेष प्रचलित है। यह अनुष्ठान सात से ग्यारह दिन चलता है। रहस का मंच दो भागों में विभाजित रहता है। एक में अभिनय क्षेत्र रहता है, दूसरे में विभिन्न पात्रों की मूर्तियों ये मूर्तियां मिट्टी की होती हैं और इनकी संख्या तीस के आसपास रहती है। 

मंच के बीचोबीच कागज का बना कदंब वृक्ष लगाया जाता है, इसके नीचे राधा-कृष्ण की मूर्तियाँ स्थापित की जाती हैं। दर्शक इसके चारों ओर बैठते हैं। सारे अभिनय स्थल व दर्शकों के बैठने के स्थल को 360 दीपकों से प्रकाशित किया जाता है, जो वर्ष भर मंगल होने की कामना व्यक्त करता है। मंडली में दो नच कहार (नर्तक), दो चिकरहा (चिकारा बादक), एक तबलहा (तबला वादक), एक मंजीरहा (मंजीरा वादक) तथा एक पुरोहित (व्यास) जी रहते है। मूल कथा में समकालीन प्रसंग भी दर्शकों की रुचि के अनुसार जोड़ लिये जाते हैं।

प्रयाग प्रसाद तिवारी (मँझला महाराज) हेमराम विश्वकर्मा (बिलासपुर), नत्थूलाल (करंगी) आदि रहस की परंपरा से जुड़े कुछ कलाकार अभी भी सक्रिय हैं।