मध्यप्रदेश में वन विभाग की गतिविधियां कैसे और कब शुरू हुई... 


स्टोरी हाइलाइट्स

जंगल-सत्य और जंगल सत्याग्रह के लेखक घनश्याम सक्सेना ने अपनी किताब में इस बात का उल्लेख किया है कि मध्य प्रदेश में अंग्रेजों द्वारा सामुदायिक वन संसाधनों को बर्बाद करने का कार्य शुरू किया था।

जाने मध्यप्रदेश के वन विभाग का इतिहास…. 

अतीत गाथा : मध्य प्रदेश में वन विभाग की गतिविधियां सन् 1860 के आसपास प्रारंभ होना माना जाता है। वैसे मध्य प्रदेश को देश के वन विभाग की स्थापना के केन्द्र में भी माना जाता है। सन् 1861 में पचमढ़ी में वन विभाग के सबसे पहले भवन की नींव रखी गई। यह भवन सन् 1862 में बनकर तैयार हो गया था। 

आज कल यह भवन बायसन लॉज के नाम से विख्यात है। कर्नल जी. एफ. पियर्सन को मध्य प्रदेश में वन विभाग का संस्थापक माना जाता है। जिन्हें देश के मध्य स्थित तत्कालीन सी.पी. और बरार राज्य का पहला वनसंरक्षक बनाया गया था। डेढ़ सदी पूर्व एक ब्रिटिश अधिकारी ने भारत में भू-उपयोग का वर्गीकरण करते हुए उस समय सारे रकबे को जो खेती के तहत नहीं था को पड़त वेस्टलैंड की संज्ञा दी थी। 

जंगल इसी के अंतर्गत आते थे। शुरू में अंग्रेजों की सोच थी कि जहां खेती नहीं होती वहां वेस्टलैंड यानी पड़त भूमि है, इसलिये जंगलों को वेस्टलैंड मान लिया गया। इतिहास यह बताता है कि भारत में जमीन और जंगल पर निजी मिल्कियत का बोलबाला रहा है। जंगल लोगों के थे, समाज के थे। चाणक्य ने वनों की सुरक्षा को रेखांकित किया, लेकिन उन्हें सरकारी नहीं बनाया। 

चंद्रगुप्त मौर्य ने मुगलों तक किसी भी हुकूमत ने इस व्यवस्था में कोई दखलंदाजी नहीं की थी। कर्नल पियर्स ने लिखा है कि सन् 1860 में सी.पी. सागर और नर्मदा के क्षेत्रों को मिलाकर वन विभाग का गठन किया गया। वहीं 1863 में डॉ. डीट्रिच ब्रांडिस को भारत का प्रथम इंस्पेक्टर जनरल ऑफ फॉरेस्ट बनाया गया था।

जंगल-सत्य और जंगल सत्याग्रह के लेखक घनश्याम सक्सेना ने अपनी किताब में इस बात का उल्लेख किया है कि मध्य प्रदेश में अंग्रेजों द्वारा सामुदायिक वन संसाधनों को बर्बाद करने का कार्य शुरू किया था। इसकी बानगी होशंगाबाद जिले के संदर्भ में उन्होंने बताई है कि इस जिले में बोरी का जंगल महादेव की पहाड़ियों में हर्राहट के कोरकू मालगुजार भभूत सिंह का था। 

अंग्रेजी शासनकाल में एक दरोगा से मालगुजार की कुछ कहा सुनी हो गई और इसका खामियाजा उसे कैम्प के लिए मुर्गियां देने को लेकर उठाना पड़ा। इतना ही नहीं बाद में मालगुजार का बोरी का जंगल ही अंग्रेजों ने जब्त कर लिया और सरकारी रिजर्व घोषित कर दिया। बाद में भभूत सिंह पर राजद्रोह का मामला भी बनाया गया। इस मामले के बाद उनकी गिरफ्तारी हुई और उन्हें फांसी पर भी लटकाया गया। इस घटना के बाद अंग्रेजों ने पचमढ़ी के जंगलों को शासकीय जंगल बनाने के लिए इसी तरह की कार्यवाही की। उन्होंने अपने शासन काल में यहां के अधिकतर जंगल आदिवासियों से लेकर शासकीय बना दिया।

जंगलों पर अपना आधिपत्य बनाए रखने के लिए आदिवासियों का जंगल सत्याग्रह भी प्रदेश में हुआ, लेकिन अंग्रेजों के आगे उनकी एक नहीं चली। फिर भी यह बात तो सामने आती है कि आदिवासी अपने अधिकार के लिए अंग्रेजी शासनकाल में भी सजग थे। उन्होंने फांसी पर लटकना मंजूर किया मगर अधिकार पाने के लिए वे लाचार नजर नहीं हुए। 

वर्ष 1930-31 में मध्य प्रदेश में जंगल सत्याग्रह होने का उल्लेख मिलता है। ऐसा माना जाता है कि मध्य प्रदेश के दक्षिणी भाग में पश्चिम में निमाड़ से लेकर मध्य में होशंगाबाद और छिंदवाड़ा होकर पूर्व में सिवनी, बालाघाट और मंडला में इस तरह के आंदोलन को लेकर यहां के लोगों में जंगल सत्याग्रह की जागृति आई थी। इस सत्याग्रह में शामिल होने वाले गोंड, कोरकू और भील समाज के लोग थे। बैतूल जिले के आदिवासियों ने भी इस सत्याग्रह में अपनी अहम भूमिका का निर्वाह किया। 

इस बात का उल्लेख मिलता है कि यहां के आदिवासियों ने अंग्रेजों की इस कार्यवाही के विरोध में वनों को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाने का काम किया। इन आदिवासियों का ऐसा करना अपनी सम्पदा को बचाने से ज्यादा इसे अंग्रेजों की संपदा मानकर उसे क्षति पहुंचाना था। इन आदिवासियों ने आगजनी तक की कार्यवाही सत्याग्रह के तहत की। इस तरह की कार्यवाही में आदिवासियों को अंग्रेजों के कोप का भागी भी बनना पड़ा। 

कुछ उदाहरण तो अंग्रेजों द्वारा गोली चालन के भी मिलते हैं। इस जिले में गॉड सरदार विष्णुसिंह इस तरह के आंदोलन का नेता था जिसको घोड़ाडोंगरी के डिपों में रखे बांसों में आग लगाने पर पुलिस की गोली लगी थी। महाकौशल के ही सिवनी जिले में भी आदिवासियों पर जंगल सत्याग्रह करने पर गोली चालन की वारदातें अंग्रेजों द्वारा की गई। इस सत्याग्रह के कारण अंग्रेज कुछ इस तरह भड़के कि आदिवासियों पर उन्होंने कहर बरपाना शुरू कर दिया, जो आदिवासी जंगल कानून तोड़ता उसे कड़ी सजा मिलनी शुरू हो गई थी। 

सिवनी जिले के गजेटियर में इस बात का उल्लेख है कि इस सत्याग्रह के तहत विदेश सरकार के स्वदेशी पुलिस अफसरों ने भी अंग्रेजों के इशारे पर आदिवासियों पर खूब कहर बरपाया। सिवनी में इसका उदाहरण गजेटियर में यह कर दिया गया है कि यहां के तत्कालीन अफसर के आदेश पर सदरुद्दीन नामक दरोगा ने सत्याग्रहियों पर गोली चलवा दी थी। इस घटना में तीन महिलाओं और एक पुरुष की मौत होने का उल्लेख किया गया है। वर्ष 1930 में सिवनी में इस सत्याग्रह ने काफी जोर पकड़ा था इसके चलते जो सत्याग्रही अंग्रेजों के हाथ लग जाते उन पर कोड़े बरसाते और पेड़ों से बांध भी दिया जाता था।

महाकौशल के साथ-साथ बुंदेलखंड में भी जंगल सत्याग्रह की आग लगी थी। यहां इसकी शुरुआत ओरछा से लालाराम वाजपेयी के नेतृत्व में होने का उल्लेख मिलता है। ओरछा जंगल सत्याग्रह 1930 में वीर सिंह जूदेव के गद्दी पर बैठते ही शुरू हुआ था। वीरसिंह तो इस मामले में उदासीन रुख अपनाये हुए थे, लेकिन ओरछा स्टेट के उनके दीवान सज्जन सिंह सत्याग्रहियों के खिलाफ नजर आए थे। 

उन्होंने यह संदेश दिया था कि जो भी जंगल में घुसेगा उसे वे जेल में डाल देंगे। इतना ही नहीं रियासत बदर और संपत्ति कुर्क करने की भी धमकी उनके द्वारा दी गई थी, मगर वाजपेयी के नेतृत्व में यहां शुरू हुआ जंगल सत्याग्रह कुछ ऐसी गति पकड़ी कि अंग्रेज भी परेशान हो उठे। 

लंबे समय तक किसी भी सत्याग्रही को वे नहीं पकड़ पाए। हालांकि सत्याग्रहियों के नेता वाजपेयी की पहली गिरफ्तारी 1937 में होना बताई जाती है। इसके बाद दूसरी बार इसी सत्याग्रह के कारण उनकी गिरफ्तारी 1940 में हुई थी। यहां के इस सत्याग्रह के दूरगामी राजनीतिक परिणाम भी देखने को मिले हैं। 

वर्ष 1947 में टीकमगढ़ में उत्तरदायी शासन बना तो उसमें लालाराम वाजपेयी मुख्यमंत्री बनाए गए। 1948 में उन्हें बुंदेलखंड के मंत्रिमंडल में भी स्थान दिया गया। इसके बाद 1951 के विधानसभा चुनाव में वे विधायक के रूप में निर्वाचित भी हुए।

विंध्य क्षेत्र में पंडित शंभूनाथ शुक्ल के नेतृत्व में यहां जंगल सत्याग्रह की शुरुआत रीवा रियासत के शहडोल क्षेत्र से होने का उल्लेख मिलता है। उन्होंने अपने साथियों के साथ 1930 के आसपास घुनघुटी के जंगलों में सुलकू बैगा और करीब पचास आदिवासियों के साथ इस सत्याग्रह की शुरुआत की थी। इस तरह के सत्याग्रह के बाद इस क्षेत्र में जागृति कुछ इस तरह देखी गई कि लोग सत्याग्रह के रास्ते पर चल पड़े। कई लोगों की गिरफ्तारियां हुई तो कुछ अंग्रेजों के हाथ पिटे भी और जेल भी गए।