ऐसे थे मालवा के होल्कर, जब मालवा में हुए सिंधिया और होल्कर आमने सामने: जानें इतिहास... 


स्टोरी हाइलाइट्स

अतएव उसकी आक्रमण नीति मालवा पर विजय की उस मराठा नीति का पहला कदम सिद्ध हुई, जो मुगल साम्राज्य पर प्रहार करने के लिए अपनाई गई थी।

मालवा के होल्कर: मुगल शासन के कमजोर पड़ने के साथ ही अठारहवीं शताब्दी में मालवा मराठों की शिकारगाह बन गया था। इस दौर में मराठा सेनाओं ने मालवा पर कई बार हमले किए। सन् 1720 में बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र बाजीराव प्रथम को पेशवा का पद सौंपा गया। उसे योजनाएं बनाने तथा उन्हें पूरी करने की यथेष्ट बुद्धि थी। 

अतएव उसकी आक्रमण नीति मालवा पर विजय की उस मराठा नीति का पहला कदम सिद्ध हुई, जो मुगल साम्राज्य पर प्रहार करने के लिए अपनाई गई थी। अतः दिसम्बर, 1723 को पेशवा ने अपने सेनापतियों, ऊदाजी पंवार, मल्हारराव होल्कर और राणोजी सिंधिया के नेतृत्व में एक बड़ी सेना के साथ मालवा पर आक्रमण करने का निर्णय किया। 

27 जनवरी, 1724 को उसने सतारा से कूच किया, 8 मई को अकबरपुर घाट पर नर्मदा पार की तथा बड़वाह के राजा सबल सिंह से मिला। इसी समय दिल्ली से लौटते समय निजाम 18 मई, 1724 को नालछा में पेशवा से मिला और उसने उससे अनेक वायदे किए। उसने दक्षिण (दक्खन) के छह सूबों में चौथ और सरदेशमुखी वसूल करने की पेशवा की मांग स्वीकार कर ली और इस प्रकार उसका विश्वास प्राप्त किया। तब पेशवा ने वार्षिक अंशदान वसूल करने के लिए अपने प्रतिनिधियों के रूप में ऊदाजी पंवार को धार में, मल्हारराव को इंदौर में और राणोजी सिंधिया को उज्जैन में छोड़ दिया और लौट गया। 

सन् 1720 से मालवा पर मराठों के आक्रमण स्वयं पेशवा के मार्ग निर्देशन में किए जाते रहे और इस सूबे में मराठों के पैर मजबूती से जमने लगे। उन्होंने नंदलाल मंडलोई से अच्छे संबंध स्थापित कर लिए थे। नर्मदा के घाटों का प्रभारी होने के कारण वह सूबे का सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति था। उसने मराठों की बहुत सहायता की और सूबे के करों का भुगतान करना स्वीकार कर लिया। 

यह कहा जाता है कि मालवा के सभी सरदारों के मन उसकी मुट्ठी में थे तथापि, मालवा में मराठों का प्रभुत्व बना रहा और 1725 में ही पेशवा ने मालवा में मौकास देय वसूल करने का अधिकार प्रदान किया था। सन् 1726 में साहू ने गुजरात और मालवा के शुल्क ऊदाजी पंवार को सौंप दिए।

सन् 1727 में मल्हार राव होल्कर को सूबे के पांच महलों की पहली सनद प्राप्त हुई। होल्कर की नियुक्ति ऊदाजी पंवार की बढ़ती हुई शक्ति को रोकने के अभिप्राय से की गई थी, जिसकी गतिविधियां धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थीं। अक्टूबर, 1728 में पेशवा के भाई चिमनाजी अप्पा के सभापतित्व में उदाजी पवार, राणोजी सिंधिया और मल्हार राव होल्कर सहित मराठों की एक बड़ी सेना तेजी से दक्खन से आगे बढ़ी। 

अमझेरा के युद्ध (29 नवंबर, 1728) में उन्होंने शाही सेना को बुरी तरह परास्त किया, जिसमें मालवा के सूबेदार गिरधर बहादुर और उसके चचेरे भाई दया बहादुर ने वीरगति पाई। मालवा के भविष्य पर भी इस विजय का अत्यधिक प्रभाव पड़ा। तत्पश्चात् मराठों ने उज्जैन पर घेरा डाल दिया किन्तु दया बहादुर के अनुज भवानी राम की सतर्कता के कारण, जिसने अमझेरा के युद्ध में अपने चचेर भाई गिरधर बहादुर की मृत्यु के पश्चात् सूबे का शासन भार स्वयं संभाल लिया था, उन्हें शीघ्र ही पीछे हटना पड़ा। घेरा उठा लिए जाने पर वे सूबे में सर्वत्र फैल गए और शुल्क की मांग करने लगे। 

16 सितंबर, 1729 को होल्कर और पवार की सनदों की पुष्टि की गई। वर्षाऋतु के तुरंत बाद उन्होंने बड़वाह में नर्मदा पार की, धरमपुरी को लूटा और ध्वस्त किया तथा नवंबर, 1729 में मांडू के किले पर अधिकार कर लिया। किंतु शीघ्र ही शांति स्थापित हो गई और जनवरी, 1730 में जय सिंह को मांडू पुनः सौंप दिया गया।

नवंबर, 1727 को मालवा का सूबेदार नियुक्त किए जाने के पश्चात् जय सिंह ने यह अनुभव कर लिया था कि इन परिस्थितियों में केवल तुष्टीकरण की नीति ही सफल हो सकती है। अतएव, उसने स्थायी समझौता और चिरस्थायी शांति स्थापित करने के अभिप्राय से राजा शाहू से वार्ता प्रारंभ की, किन्तु इस शांति वार्ता के समाप्त होने के पहले ही शाही राजनीति में परिवर्तन हुआ और जयसिंह के स्थान पर मुहम्मद शाह बंगश को मालवा का सूबेदार नियुक्त किया गया। (19 सितंबर, 1730)। इसके पश्चात्, शीघ्र ही पेशवा ने होल्कर को पुनः मालवा जाने का आदेश दिया।

वर्ष 1730-31 के दौरान मराठा कमान में कतिपय महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। 3 अक्टूबर, 1730 को होल्कर, मालवा का सर्वोच्च शासक नियुक्त किया गया। उसे मालवा के 74 परगनों का सरंजाम भी प्रदान किया गया। 

20 अक्टूबर, 1731 को मालवा के शासन कार्य में मल्हार राव की सहायता के लिए राणोजी सिंधिया को नियुक्त किया गया और उन्हें सूबे के सरदारों तथा जमींदारों से समझौता करने के लिए प्राधिकृत किया गया। मालवा से एकत्र किए गए शुल्कों में होल्कर का हिस्सा 35 प्रतिशत नियत किया गया। 

सन् 1731 में सूबे से एकत्र किए गए शुल्कों में राणोजी सिंधिया को होल्कर के बराबर हिस्सा दिया गया। होल्कर को सूबे में उसके द्वारा किए गए प्रयत्नों के लिए मालवा से बाहर का अतिरिक्त हिस्सा भी प्राप्त होता था। 2 नवम्बर, 1731 को पेशवा ने मालवा का शासन होल्कर और सिंधिया को सौंप दिया। साथ ही उसने उन्हें सूबे के समस्त कार्यों में उपयोग के लिए अपनी राजमुद्रा भी सौंप दी। स्वर्गीय नन्दलाल के पुत्र तेजकरण को पेशवा द्वारा कम्पेल का मंडलोई स्वीकार कर लिया गया।

सन् 1732 के वर्षा काल के दौरान बाजीराव ने 29 जुलाई, 1732 के एक औपचारिक दस्तावेज द्वारा सिंधिया, होल्कर और तीन पवार सरदारों के बीच मालवा के जिलों का एक प्रकार का कामचलाऊ विभाजन कर दिया। इससे पूर्व 22 जून, 1732 के एक पत्र द्वारा बाजीराव प्रथम ने मालवा प्रांत का दो पंचमांश भाग अपनी सेना के अनुरक्षण के लिए सौंप दिया। 

इस प्रदेश में इंदौर, देपालपुर और बेटमा सहित कुल मिलाकर साढ़े अट्ठाईस परगने शामिल थे। इस बंदोबस्त द्वारा ही मालवा में मराठा राज्यों की अर्थात उन राज्यों की वास्तविक नींव पड़ी, जो होल्कर (इंदौर), सिंधिया (ग्वालियर), आनंद राव पवार (धार) तथा दो पवार बंधुओं, तुकोजी (देवास बड़ी पांती) तथा जीवाजी (देवास छोटी पांती) द्वारा शासित थे। 

जय सिंह के अनुरोध पर 1736 में सम्राट ने बाजीराव प्रथम को मालवा का नायब सूबेदार नियुक्त किया तथा जय सिंह सूबे का नाममात्र का सूबेदार बना रहा। औपचारिक रूप से न सही, यह वस्तुतः प्रांत का अर्पण ही था। प्रारंभ में मालवा में सनद कुछ संशोधनों परिवर्तनों के साथ प्रतिवर्ष नवीकृत की जाती थी। किन्तु 20 जनवरी 1734 को होल्कर को, उसके परिवार के नाम पर हमेशा के लिए सनद प्रदान कर विशेष रूप से सम्मानित किया गया। उसे दक्खन में कुछ भूमि और इंदौर जिले के नौ गांवों सहित महेश्वर जिला प्रदान किया गया। 

मालवा की इन खासगी भूमियों से प्रतिवर्ष 3,36,000 रुपए की आय होती थी तथा यह रकम होल्कर के सरंजाम में शामिल नहीं की गई थी। होल्कर परिवार को खासगी भूमियों के इस अनुदान से ही इंदौर राज्य की स्थापना का सूत्रपात हुआ। मालवा में की गई सेवाओं के बदले होल्कर ने जिन अन्य भूमियों पर अधिकार प्राप्त किया था, उन्हें दौलत शाही कहा गया। सूबे का यह प्रबंध सन् 1766 में मल्हार राव की मृत्यु तक रहा।

25 जून, 1740 को सतारा में बालाजीराव को, उसका पदभार सौंपा गया। वह सदा के लिए मालवा के मामले को सुलझा देने के लिए कटिबद्ध था। अतएव, उसने सिंधिया, होल्कर तथा अन्य मराठा सरदारों को मालवा की ओर बढ़ने का आदेश दिया। मार्च, 1741 में पेशवा भी एक विशाल सेना लेकर पूना से निकल पड़ा। मई में वह धौलपुर पहुंचा और उसी माह की 11 तारीख को सवाई जय सिंह से मिला। यह तय किया गया कि जय सिंह छह महीनों के भीतर मालवा के लिए शाही फरमान प्राप्त करेगा। शीघ्र ही मुगल सम्राट द्वारा एक फरमान जारी किया गया और उसके द्वारा उसे नायब सूबेदारी का पद प्रदान किया गया। 

बाद में एक और फरमान जारी किया गया, जिसके द्वारा सूबे के सिविल तथा आपराधिक क्षेत्राधिकार सहित मालवा सूबे का संपूर्ण प्रबंध पेशवा को सौंप दिया गया। पेशवा द्वारा स्वीकार की गई शर्तों के सम्यक पालन के लिए राणोजी सिंधिया, मल्हार राव होल्कर, यशवंत राव पवार और पीलाजी जाधव ने 21 अप्रैल, 1743 को मुगल सम्राट को एक लिखित गारंटी दी गई। इस प्रकार सर्व 1741 से मालवा के इतिहास का एक नया अध्याय प्रारंभ होता है। 

सम्राट द्वारा मराठों को मालवा प्रदेश के अर्पण से मुगल-मराठा संघर्ष समाप्त हो गया और मराठा उसके एकमात्र स्वामी बन गए। होल्कर ने शीघ्र ही सूबे में अपने अधिकृत क्षेत्र को समेकित करने के कदम उठाए। हिंदुस्तान में मराठों की स्थिति को सुदृढ़ बनाने के लिए दिल्ली जाते समय पेशवा का अनुज रघुनाथ राव सन् 1753 में मालवा से होकर गुजरा। महेश्वर के समीप मल्हार राव, मराठा सेना के साथ उससे आ मिला।

इसके पश्चात् मराठा सेना इंदौर और उज्जैन होती हुई मुकुन्द दर्रा पहुंची और 13 नवंबर, 1753 को उसने चंबल नदी पार की मार्च, 1757 में यह अफवाह फैली कि अब्दाली आगरा को अपना मुख्यालय बनाकर मालवा पर आक्रमण करने वाला है। अतः पेशवा ने होल्कर और रघुनाथ राव को अब्दाली का प्रतिरोध करने के लिए मालवा की सीमा पर जाने का आदेश दिया। वे 14 फरवरी, 1757 को इंदौर पहुंचे। 

किन्तु अब्दाली अप्रैल, 1757 में काबुल लौट गया तथा दिल्ली के मामलों को सुलझाने के पश्चात् मराठा सेनाएँ वापस लौट गई। इसी बीच लंबे समय से चली आ रही गलतफहमियों को दूर करने की दृष्टि से होल्कर ने सिंधिया से भेंट की। तत्पश्चात् वह 1758 में इंदौर लौटा, जहाँ वह बीमार हो गया। स्वस्थ होने पर वह पेशवा के मन से कुछ गलतफहमियां दूर करने के लिए पूना पहुँचा तथा पुनः विश्वास और शक्ति प्राप्त कर मालवा लौटा। 

14 जनवरी, 1761 को पानीपत के युद्ध में मराठा सेना अब्दाली द्वारा बुरी तरह पराजित हुई। यह एक भयंकर पराजय थी। मल्हार राव को मराठा सेना पर आने वाली इस विपत्ति का आभास पहले ही हो चुका था। अतएव, वह उस दिन सुबह ही युद्ध क्षेत्र से हट गया। इस प्रकार उसने स्वयं को विपत्ति से बचा लिया और कुछ सुरक्षा के साथ पीछे हट गया। 

बाद में उससे मराठा शक्ति को स्थापित करने के पूर्ण प्रयास किए। मल्हारराव एक छोटे से भू-स्वामी का पुत्र था किन्तु अब वह एक ऐसे विशाल क्षेत्र का अधिपति हो गया था, जिसकी वार्षिक आय 60 लाख रुपए थी। तथापि 27 मई, 1766 को आलमपुर में उसकी अचानक मृत्यु हो गई, जहां उसकी स्मृति में एक छतरी का निर्माण किया गया है।

मल्हार राव का एकमात्र पुत्र खण्डेराव पहले ही भरतपुर के उत्तर पूर्व में स्थित कुंभेर के किले की घेराबंदी के दौरान 17 मार्च, 1754 को एक तोप के गोले से मारा जा चुका था। अत: मल्हार राव होल्कर की मृत्यु के उपरांत खंडेराव का पुत्र मालेराव होल्कर गद्दी का उत्तराधिकारी हुआ। किंतु मालेराव में मानसिक विक्षिप्त होने के लक्षण प्रकट होने लगे थे। वह अपने पितामह की मृत्यु के पश्चात् अधिक दिनों तक जीवित नहीं रहा। 

सिंहासनारूढ़ होने के एक वर्ष के भीतर ही 27 मार्च, 1767 को उसकी मृत्यु हो गई। उसके पश्चात उसकी माता अहिल्या बाई ने स्वयं ही राज्य की बागडोर संभाली और मल्हार राव के एक विश्वासपात्र अधिकारी तुकाजी होल्कर को अपनी सेना का सेनापति बनाया।

मराठा और इंदौर के इतिहास में अहिल्या बाई होल्कर का शासन आज भी अपनी परंपराओं और जनहितैषी कार्यों के लिए याद किया जाता है। मार्च, 1767 में स्वर्गीय पेशवा बालाजी राव का भाई रघुनाथ राव दक्षिण मालवा आया और यह ज्ञात होने पर कि उसी माह की 27 तारीख को भालेराव की मृत्यु हो गई है, उसने अपनी स्वार्थ पूर्ति की अभिलाषा से अवसर का लाभ उठाते हुए इस बहाने होल्कर की संपत्ति पर अधिकार करना चाहा परन्तु अहिल्या बाई ने अब शासन की बागडोर अपने हाथों में संभाली तुकोजी होल्कर ने सेना का सेनापतित्व ग्रहण किया और उन कर्तव्यों का निर्वहन किया, जो महिला होने के नाते अहिल्या बाई स्वयं करने में असमर्थ थी। 

अपनी नियुक्ति के पश्चात तुकोजी ने पेशवा को नजर के रूप में 15.5 लाख रुपए भेंट किए और बदले में उसे होल्कर परिवार के उत्तराधिकारी की मान्यता प्राप्त के प्रतीक स्वरूप खिलात प्राप्त हुई। 13 अगस्त, 1795 को 70 वर्ष की दीर्घायु में अहिल्या बाई की मृत्यु हो गई। उन्होंने होल्कर परिवार द्वारा अधिकृत क्षेत्रों पर विलक्षण दक्षता और कुशलतापूर्वक 30 वर्षों तक शासन किया। इतिहासकारों द्वारा उसके शासन की सराहना की गई है। अहिल्याबाई होल्कर के बाद वयोवृद्ध तुकोजी ने प्रशासन कार्य संभाला और उसने होल्कर परिवार द्वारा अधिकृत क्षेत्रों पर अहिल्या बाई की भांति ही प्रशासन करने का प्रयास किया। 

किन्तु तुकोजी का स्वास्थ्य गिरता जा रहा था और 15 अगस्त, 1797 को पूना में अपने ही शिविर में उसकी मृत्यु हो गई। तुकोजी राव की मृत्यु होल्कर वंश के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण सिद्ध हुई, क्योंकि इससे उसके चार पुत्रों के बीच गद्दी के लिए एक दीर्घकालिक संघर्ष का सूत्रपात हुआ। काशीराव और मल्हार राव उसके धर्मगुरु थे तथा यशवंत राव (जसवंत राव) और बिठोजी उसके जारज पुत्र थे।

काशीराव मूढ व्यक्ति थे। उसका अनुज मल्हार राव भी दुराचारी और अविवेकी था मल्हार राव, विठोजी और यशवंत राव यद्यपि पराक्रमी थे किन्तु किसी ऐसे व्यक्ति के न होने के कारण जो उनकी शक्तियों को किसी सत्कार्य में लगाकर उन्हें नियंत्रित कर सकता, ये परिवार के लिए अमंगलकारी ही सिद्ध हुई। तुकोजी ने अपना उत्तराधिकार अहिल्याबाई के जीवनकाल में ही काशीराव को सौंप दिया था। तुकोजी राव ने निवेदन कर 29 जनवरी, 1797 को पेशवा द्वारा भी इसकी पुष्टि कर दी गई थी। 

अतः 1795 में अहिल्या बाई के गंभीर रूप से अस्वस्थ होने पर काशीराव को पूना से महेश्वर बुलाया गया था। यद्यपि काशीराव होल्कर गद्दी का वैध उत्तराधिकारी था तथापि वह राज्य का शासन संभालने के अयोग्य था। अन्य तीनों भाइयों ने एक ही उद्देश्य से षड्यंत्र रचकर काशीराव को उखाड़ फेंकने के लिए खुला विद्रोह कर दिया। 

दौलत राव सिंधिया ने होल्कर के नेता मल्हार राव को गिरफ्तार करने या संघर्ष के दौरान, संभव होने पर मार डालने के उद्देश्य से तत्काल कदम उठाए। 14 सितम्बर, 1797 को अरक्षित स्थिति में उस पर आक्रमण किया गया और उसके कुछ साथियों सहित उसे मार डाला गया। विठोजी और यशवंत राव किसी प्रकार बचकर पूना से भाग निकले। पूना से भाग कर यशवंत राव ने नागपुर के राजा भोंसला से शरण मांगी। वहां उसे भोंसला ने दौलत राव सिंधिया और पेशवा के कहने पर बंदी बनाकर रखा गया। विठोजी भाग कर कोल्हापुर पहुंचा और पेशवा के इलाके में लूटपाट मचाने लगा। बाद में उसे मार डाला गया।

यशवंत राव नागपुर के राजा के बंदीगृह से भाग निकलने तथा वह ताप्ती और नर्मदा के वन्य क्षेत्रों में भटकते रहे। यहां उसे एक विश्वस्त सेवक और सलाहकार लाला भवानी शंकर मिल गया, जिसने समस्त संकटों में उसका साथ दिया। यशवंत राव ने दो चार सौ भील सैनिकों को एकत्र कर उत्तर खानदेश (सुल्तानपुर और नंदुरबार) में छापा मारना प्रारंभ कर दिया। 

यह ज्ञात होने पर कि उसका सामना करने के लिए उसका भाई काशीराव बढ़ा आ रहा है, वह नर्मदा पार कर बड़वानी होता हुआ धार की ओर भाग गया। यहाँ धार के शासक आनंद राव पंवार ने उसे कुछ काल तक आश्रय प्रदान किया। किन्तु शीघ्र ही आनंदराव पंवार को सिंधिया ने विवश किया वह यशवंत राव को अपने क्षेत्र से निकाल दें। अब तक यशवंतराव भीलों, अफगानों और पिन्डारियों की एक विशाल सेना संगठित कर चुका था। इसके पश्चात् यशवंत राव देपालपुर की ओर अग्रसर हुआ और उसको काशीराव की सेना से छीनकर अपने अधिकार में कर लिया। अपने पक्ष की दुर्बलता को अनुभव कर यशवंत राव ने यह घोषणा की कि वह होल्कर राज्य के वैध उत्तराधिकारी मल्हार राव की मृत्यु के उपरांत उत्पन्न पुत्र खंडेराव के पक्ष का समर्थन कर रहा है। उसने अपने भाई काशीराव के विरुद्ध खुला युद्ध छेड़ दिया और मालवा में सिंधिया के क्षेत्र को भी हथियाने लगा। 

होल्कर घराने के अनेक पुराने सेवक उससे आ मिले। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि अपनी विशाल सेना सहित अमीर खान, जो बाद में टॉक का नवाब हुआ और सारंगपुर के वजीर खान ने भी उसका साथ दिया। उसने महेश्वर में सुरक्षित अहिल्या बाई की विशाल संपत्ति पर कब्जा किया और मालवा में सिंधिया के विरुद्ध भयंकर युद्ध आरंभ कर दिया।

दौलतराव सिंधिया यशवंत राव के सामना करने के लिए दिसंबर, 1800 में पूना से उत्तर की ओर अग्रसर हुआ, किन्तु नर्मदा नदी तक पहुँचने में उसे काफी समय लग गया। इसी बीच यशवंत राव ने 2 जुलाई, 1801 को उज्जैन स्थित सिंधिया सेना को बुरी तरह परास्त किया। उसने उज्जैन में लूटपाट की और ऐसी सारी संपत्ति अपने साथ ले गया, जो वह शहर के निवासियों से जबरदस्ती वसूल कर सका। 

इस विजय से यशवंत राव की कीर्ति में पर्याप्त वृद्धि हुई। सन् 1801 के ग्रीष्मकाल में यशवंतराव सिंधिया के क्षेत्रों में विध्वंस मचाता रहा। युद्धक्षेत्र नर्मदा के दक्षिणी किनारे से उत्तर में इंदौर और उज्जैन तक विस्तीर्ण हो चुका था। निरंतर चार महीनों तक घमासान युद्ध होता रहा जिसमें भीषण नरसंहार हुआ तथा संपूर्ण क्षेत्र उजाड़ हो गया।

दो वर्ष बाद यशवंत राव के बड़े भाई काशीराव बीजागढ़ के समीप एक संघर्ष में मारे गए। यशवंत राव अपनी चंचल मन स्थिति के कारण शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत नहीं कर सका। उसने अपने दौर में अनेक संग्रामों में हिस्सा लिया। अंग्रेजों के साथ हुए युद्ध से उसे अनुभव हो चुका था कि बड़ी संख्या में तोपें रखना आवश्यक है। अतः भानपुरा में उसने एक गनफैक्टरी स्थापित की, वहां एक भयंकर गर्मी में भी दिन रात तोपें बनवाने के कार्य में लगा रहा, जिसका उसके मस्तिष्क पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। उत्तेजना प्राप्त करने के लिए वह अत्यधिक मदिरापान में भी लिप्त रहने लगा। इसके परिणामस्वरूप अक्टूबर, 1808 में वह विक्षिप्त हो गया और उसे महल में बंद रखा गया। वह दो वर्ष तक उसी अवस्था में रहा और अंतत: 28 अक्टूबर, 1811 को भानपुरा में उसकी मृत्यु हो गई।

यशवंत राव के विक्षिप्त हो जाने पर राज्य का शासन प्रबंध उसके मंत्री द्वारा राम सेठ के हाथ में चला गया, जो राजपुर घाट की संधि सम्पन्न करवाने में होल्कर का प्रतिनिधि था। तथापि वह पूर्णतः यशवंत राव की प्रिय रखेल तुलसा बाई के प्रभाव में था। वह सुंदर, विदुषी, अत्यधिक मृदु व्यवहार वाली और पर्याप्त गुण सम्पन्न महिला थी। 

तथापि वह क्रूर, हिंसक और प्रतिशोधात्मक स्वभाव की तथा दुराचारिणी थी। तुलसाबाई लगभग दस वर्षों तक होल्कर वंश की भाग्य विधाता बनी रही। अपने पति की मृत्यु से पूर्व उसने एक अन्य रखैल केशरी बाई की संतान मल्हार राव को अपने पति के उत्तराधिकारी के रूप में गोद लिया। तुलसा बाई ने अब मल्हार राव के नाम पर राजकाज का संचालन किया होल्कर साम्राज्य ने अपनी इस शासित के हमकदम चले हुए अनेक सोपान देखे। अंग्रेजों के तुलसाबाई से शंकित होने पर उन्होंने उसे 20 दिसंबर, 1817 का महिदपुर में शिप्रा नदी के तट पर खुलेआम फांसी देकर शव को नदी में फेंक दिया गया। जिस समय तुलसा बाई की हत्या की गई, उसकी आयु 30 वर्ष से भी कम थी।

1818 होल्कर की राजधानी इंदौर बन गई थी। इतिहास भी करवट ले रहा था। उत्तराधिकार के तमाम द्वंद्वों और व्यक्तियों के बीच 17 अप्रैल, 1834 को ब्रिटिश फौजों की मदद से हरिराव का राज्याभिषेक हुआ। हरिराव को राज्याभिषेक के बाद से ही प्रतिरोधों और बगावत का सामना करना पड़ा। इससे उसका स्वास्थ्य भी साथ नहीं दे रहा था। 

इस कारण उसने ब्रिटिश रेजीडेंस की सलाह पर जो तिसखेड़ा ग्राम के जमींदार बापू होल्कर के पुत्र खंडेराव होल्कर को अपने उत्तराधिकारी के तौर पर गोद ले लिया। तत्पश्चात् बीमारी के चलते 24 अक्टूबर, 1843 को हरिराव होल्कर का निधन हो गया। हरिराव के स्थान पर 13 नवंबर, 1843 को बालक खंडेराव इंदौर की गद्दी पर बैठा। वहीं राज्य का प्रशासन हरिराव के दामाद राजाभाऊ फड्से के हाथ रहा।

बालक खंडेराव ज्यादा समय तक जीवित नहीं रहा और 15 वर्ष की आयु में 17 फरवरी, 1844 को उसका देहांत हो गया। होल्कर साम्राज्य के सामने फिर एक बार बारिश का संकट सामने आ गया था। ब्रिटिश शासन ने माँ साहिब (स्व. हरिराव की माँ) की सलाह पर भाऊ होल्कर के छोटे पुत्र को तुकोजीराव होल्कर द्वितीय के नाम से 27 जून, 1844 को गद्दी पर बैठाया गया। 

1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश शासन ने उनके रिश्तों के कुछ खटास आई। पर उनके शासन में इंदौर ने खूब तरक्की की। 17 जून, 1886 को उनका देहांत हो गया। तुकोजीराव द्वितीय के पश्चात् उनका पुत्र शिवाजी राव 1886 में गद्दी पर बैठा। उसने इंदौर में अनेक निर्माण कराए और आज के सियागंज (तब शिवगंज) को कर मुक्त व्यापार का केंद्र बनाया। 

जनवरी 1903 में शिवाजी राव ने अपने पुत्र तुकोजीराव होल्कर तृतीय के पक्ष में सिंहासन को त्याग दिया। कुछ समय तक राज करने के बाद फरवरी 1926 में तुकोजीराव तृतीय ने अपनी अवयस्क पुत्र यशवंत राव द्वितीय के पक्ष में सत्ता छोड़ दी वे स्वतंत्रता प्राप्ति तक होल्कर साम्राज्य के प्रमुख रहे।