वनाधिकार कानून में बड़ी राहत — गैर आदिवासियों को भी मिलेंगे वनभूमि के पट्टे


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स्टोरी हाइलाइट्स

जनजातीय कार्य विभाग के प्रमुख सचिव गुलशन बामरा, एसीएस वन अशोक बर्णमाल, एसीएस पंचायत दीपाली रस्तोगी तथा प्रमुख सचिव राजस्व विवेक पोरवाल के संयुक्त हस्ताक्षरों से जारी परिपत्र में सभी जिला कलेक्टरों को विस्तृत दिशा-निर्देश दिए गए हैं..!

भोपाल। मध्यप्रदेश सरकार ने वनाधिकार कानून के क्रियान्वयन में एक महत्वपूर्ण निर्णय लेते हुए उन गैर-आदिवासी वर्गों को राहत दी है जो तीन पीढ़ियों का प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करने में असमर्थ रहे हैं। अब ऐसे पात्र व्यक्तियों को भी वन भूमि के पट्टे प्रदान किए जाएंगे।

इस संबंध में जनजातीय कार्य विभाग के प्रमुख सचिव गुलशन बामरा, एसीएस वन अशोक बर्णमाल, एसीएस पंचायत दीपाली रस्तोगी तथा प्रमुख सचिव राजस्व विवेक पोरवाल के संयुक्त हस्ताक्षरों से जारी परिपत्र में सभी जिला कलेक्टरों को विस्तृत दिशा-निर्देश दिए गए हैं।

परिपत्र के अनुसार वर्ष 1980 के पटवारी मानचित्र में अंकित वन ग्राम सीमाओं के भीतर ऐसे पट्टाधारी, जिन्हें वन ग्राम स्थापना नियम 1977 के अंतर्गत भूमि प्रदान की गई थी, यदि वे तीन पीढ़ियों का प्रमाण-पत्र नहीं दे पा रहे हैं, तो 13 दिसम्बर 2005 की स्थिति में उनके अथवा उनके पात्र वारिसों के कब्जे को मान्य माना जाएगा।

ऐसे पट्टे ढाई हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र के भी हों, तब भी उन्हें वैध माना जाएगा, क्योंकि वे 1977 के पूर्व प्रदत्त नियमों के अंतर्गत दिए गए हैं।

साथ ही यह भी निर्देशित किया गया है कि—जिन पट्टों के धारक 13 दिसम्बर 2005 के पूर्व ग्राम छोड़ चुके हैं, अथवा जिनकी मृत्यु हो चुकी है और वारिस का कोई पता नहीं, तो ऐसे पट्टे शून्य माने जाएंगे।

भविष्य में यदि उनके वारिसों की जानकारी प्राप्त होती है, तो पात्रता परीक्षण के पश्चात प्रकरणों का नियमानुसार निराकरण किया जाएगा।

जिन वन ग्रामों का कोई भाग अब भी वन आच्छादित है, वहां खेती संभव न होने पर उस भूमि को वन प्रबंधन क्षेत्र में सम्मिलित किया जाएगा।

इसके साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि वन ग्रामों के भीतर अथवा बाहर कब्जे में भूमि रखने वाले आदिवासी वर्ग को अधिकतम 4 हेक्टेयर तक के पट्टे वनाधिकार कानून के तहत प्रदान किए जा सकेंगे। यदि उन्हें 1977 के पूर्व के नियमों के अंतर्गत ढाई हेक्टेयर से अधिक भूमि के पट्टे दिए गए हैं, तो वे भी पूर्णतः मान्य रहेंगे।

यह निर्णय वनवासी क्षेत्रों में भूमि स्वामित्व से जुड़े पुराने विवादों के समाधान की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम माना जा रहा है।