हिन्दी फिल्म जगत को फिरसे संस्कृति के प्रति जिम्मेदार होना ज़रूरी -दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

Till two or three decades ago, people who have seen Hindi films believe that they had a message for society.

हिन्दी फिल्म जगत को फिरसे संस्कृति के प्रति जिम्मेदार होना ज़रूरी उद्योग का दर्जा देना जरूरी -दिनेश मालवीय दो-तीन दशक पहले तक जिन लोगों ने हिन्दी फ़िल्में देखी हैं, वे इस बात को मानते-समझते हैं कि उनमें समाज के लिए कोई मेसेज होता था. यह मेसेज भी इतने मनोरंजक ढंग से दिया जाता था कि दर्शक आनंद लेते हुए उस मेसेज को सहज ही आत्मसात कर लेते थे. देह में हिन्दी भाषा के साथ ही भारतीय संस्कृति और सभ्यता को प्रसारित करने में बहुत अहम् भूमिका निभाई है. फिल्मों में जीवन के सारे भाव होते थे, लेकिन उन्हें इतने कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया जाता था कि कहीं भी फूहड़ता नहीं आ पाती थी. हमारी फिल्मी दुनिया में अनेक धाराएं एक साथ चलती हैं. आज भी अच्छा सामाजिक सन्देश देने वाली कुछ बहुत अच्छी फ़िल्में बनती हैं. “नदिया के पार”, “बागवान”, “हम आपके हैं कौन” जैसी बहुत सुन्दर साफ़-सुथरी मनोरंजक फ़िल्में बनी हैं. समानांतर सिनेमा में भी बहुत अच्छी फ़िल्में बनी हैं. इन्हें अच्छी व्यावसायिक सफलता भी खूब मिली है. फिल्म जगत में आज भी ऐसी फिल्म संस्कृति के पक्षधार फिल्मकारों की कमी नहीं है. वे अपने स्तर पर इसकी कोशिश भी करते हैं.   एक और धरा चलती रही, तो यथार्थवाद के नाम पर सिर्फ भारत की गरीबी, बदहाली, बुराइयों, शोषण आदि को एकतरफा इस तरह दिखाती रही, कि जिससे दूसरे देशों के लोगों का भारत के प्रति बहुत नेगटिव परसेप्शन बन गया.   इसके बाबजूद यदि मेनस्ट्रीम सिनेमा की बात करें तो यह भारतीय नेरेटिव की तरफ से न केवल उदासीन, बल्कि काफी हद तक इसके विरोध में ही काम करता है. इसका एक दुखद पहलू यह है कि इस तरह के स्वस्थ मनोरंजन के पक्षधर लोग अल्पमत में हैं. फिल्म जगत में ऐसे लोग हाबी हैं, जो व्यवसायिक सफलता के लिए घटियापन की किसी भी हद तक चले जाते हैं. इसके अलावा, एजेण्डा के तहत संस्कृति को विकृत करने वाले लोगों की भी खासी घुसपैठ हो गयी है. उनकी कोशिश यही रहती है कि किस तरह भारत की संस्कृति और सभ्यता को विरूपित रूप में पेश किया जाए.   फिल्मों में समाज और संस्कृति को विकृत करने वाले अक्सर यह तर्क देते हैं कि हमें फिल्म को सफल करने के लिए यह ज़रूरी है. उनका यह भी तर्क रहता है कि लोगों की मांग को ध्यान में रखकर फिल्म बनानी पड़ती है. इस बहाने से वे किसी भी सामाजिक दायित्व को नहीं मानते. वे अपने इस दायित्व को भूल जाते हैं कि समाज की रुचियों का परिष्कार करना भी मनोरंजन जगत का महत्वपूर्ण कर्तव्य है. इसमें साहित्य भी शामिल है. ये लोग कभी-कभी तो देश और देश की संस्कृति को इतना विकृत कर देते हैं कि अन्तराष्ट्रीय स्तर पर पूरे देश की छबि खराब होती है.   हमारे जीवन-मूल्यों, भाषा, पौराणिक चरित्रों, युगों से आदर्श रहे महापुरुषों, शास्त्रों, धारणाओं की खिल्ली उड़ाने की पृवृत्ति आजकल खूब बढ़ गयी है. फिल्म को सफल बनाने की जो रणनीति बनती है, उसमें जानबूझ कर कोई ऐसी चीज डालने को सफलता का फार्मूला मान लिया गया है, जिससे विवाद पैदा हो, लोगों की भावनाएँ भड़कें और फिल्म के खिलाफ प्रदर्शन हों. कई बार तो यह भी देखने में आया है कि ऐसे विरोध-प्रदर्शन फिल्मकार खुद प्रायोजित करते हैं. पैसा लेकर प्रदर्शन करने वाले भी कम नहीं हैं.   इसके विपरीत दूसरे देशों की स्थति एकदम अलग है. होलीवुड की फिल्में देख लीजिये. उनमें अमेरिका को एक सुपर पॉवर और दुनिया का सबसे सभी-सुसंस्कृत, उदार  और प्रगतिशील देश के रूप में पेश किया जाता है. इसी तरह इंग्लैंड हो या कोई अन्य दूसरा देश, वहाँ का फिल्म जगत अपने देश की संस्कृति को अच्छे रूप में पेश करने के प्रति अतिरिक्त रूप से सजग रहता है. भाषा की शुद्धता पर भी उनका विशेष ध्यान रहता है.   इसका एक कारण यह भी है कि अमेरिका और इंग्लैंड जैसे देशों में फिल्म उद्योग को सरकार आर्थिक मदद करती है. वह पूरी तरह प्राइवेट प्लेयर्स के हाथों में नहीं है. भारत में भी फिल्मों को उद्योग का दर्जा देने की मांग लम्बे समय से चल रही है, लेकिन अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा सका है. ऎसी स्थिति में कुछ ऐसी बातें फिल्मों में डालना फिल्मकार की बहुत हद तक मजबूरी भी होती है, जो सफलता की गारंटी हों. भले ही उनसे देश और संस्कृति का विकृत रूप दुनिया के सामने आये. सामाजिक संघर्षों को भी एक एजेण्डा के तहत फिल्मों में आगे बढाया जाता है.   फिल्म जगत की इन बुराइयों को दूर कर, उसे सामाजिक और राष्ट्रीय रूप से अधिक जिम्मेदार बनाने की दिशा में फिल्मोद्योग को उद्योग का दर्जा दिया जाकर वे सभी सुविधाएँ देना उपयोगी हो सकता है, जो दूसरे उद्योगों को मिलती हैं. ऐसी स्थति में फिल्म के असफल होने की स्थिति में भी फिल्मकार को वैसा झटका नहीं लगेगा जैसाकि आज लगता है. उसे फिल्म को सफल बनाने के लिए सामाजिक मूल्यों और संस्कृति को विकृत रूप में पेश नहीं करना पड़ेगा.