भारतीय संस्कृति में व्रत केवल उपवास नहीं, आत्मशुद्धि की साधना है — वह तप है, जो शरीर से अधिक मन को अनुशासित करता है, और आत्मा को ईश्वर के समीप ले जाता है। व्रत का अर्थ केवल भोजन का त्याग नहीं, बल्कि अपनी वृत्तियों का संयम है। हमारे शास्त्रों में कहा गया है — “व्रतं परं तपः” — अर्थात व्रत ही सर्वोच्च तप है।
‘व्रतना’ का अर्थ है किसी श्रेष्ठ उद्देश्य के प्रति स्वयं को समर्पित करना। यह शरीर, मन और आत्मा की त्रिवेणी है — जहाँ संयम से शुद्धि, श्रद्धा से संकल्प और साधना से संतुलन उत्पन्न होता है।
नारी — व्रत की साधिका, संस्कृति की संवाहिका
भारतीय नारी सदैव से व्रत की आधारशिला रही है। वह केवल गृहिणी नहीं, गृहलक्ष्मी है — उसकी साधना में परिवार की समृद्धि, उसके जप में गृह की रक्षा और उसके संयम में पीढ़ियों के संस्कार बसते हैं।
हरतालिका तीज, करवा चौथ, सावन सोमवार — ये व्रत केवल रीति नहीं, नारी की अटूट श्रद्धा, प्रेम और त्याग के प्रतीक हैं। माँ पार्वती की तपस्या से प्रेरित होकर नारी आज भी अपने संकल्पों को निभाती है — मौन में शक्ति, संयम में सौंदर्य और श्रद्धा में समर्पण पाती है।
परंतु अब समय बदल गया है।
जहाँ पहले चाँद को निहारकर प्रार्थना की जाती थी, अब वही दृश्य कैमरे की चमक में कैद हो जाता है। जहाँ उपवास साधना था, वहाँ अब परिधान, मेकअप और फोटोशूट की प्रतिस्पर्धा है। श्रद्धा अब "कॉन्टेंट" बन गई है — और साधना, "सेलिब्रेशन"।
व्रत — विज्ञान और अध्यात्म का अद्भुत संगम
हमारे ऋषियों ने व्रत को केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं, एक वैज्ञानिक अनुशासन माना।
उपवास शरीर को विश्राम देता है, पाचन तंत्र को संतुलित करता है और मानसिक स्पष्टता को बढ़ाता है।
मौन और जप मन की एकाग्रता के साधन हैं।
चंद्रमा की गति, ऋतुचक्र और शरीर की जैविक लय के अनुसार निर्धारित व्रत यह दर्शाते हैं कि सनातन धर्म केवल आस्था नहीं, एक वैज्ञानिक जीवनशैली है — प्रकृति के साथ सामंजस्य का अद्भुत विधान।
बाजारीकरण — जब साधना ‘सेलिब्रेशन’ बन जाए
आज का युग उपभोग और प्रदर्शन का है। बाजार ने धर्म को भी पैकिंग और प्रचार के फ्रेम में बाँध दिया है। देवीत्व की साधना अब थीम्ड पार्टी में बदल चुकी है। करवा चौथ अब ‘फेस्टिव शूट’ का विषय बन गया है।
जब बाजार व्रत में प्रवेश करता है, तो तप ‘इवेंट’ बन जाता है और श्रद्धा ‘ब्रांडिंग’।
पर व्रत का मर्म तो यही था —
शरीर का अनुशासन, मन की स्थिरता और आत्मा का ईश्वर से मिलन।
यह भीतर की यात्रा थी, बाहर की नहीं।
व्रत मौन की भाषा में बोला गया संवाद था — न कि प्रदर्शन की चमकती हुई तस्वीर।
सनातन जीवन की कला — साधना, न कि प्रदर्शन
सनातन धर्म हमें सिखाता है कि जीवन स्वयं एक साधना है।
हर कर्म में भावना, हर क्रिया में संतुलन और हर व्रत में आत्मज्ञान छिपा है।
नारी जब व्रत करती है, तो वह केवल पति की दीर्घायु का संकल्प नहीं लेती — वह परिवार, समाज और सृष्टि के कल्याण का प्रण करती है।
वह अन्नपूर्णा है जो पोषण देती है, लक्ष्मी है जो संपन्नता लाती है, और दुर्गा है जो अनिष्ट का नाश करती है।
व्रत को व्रत रहने दो — साधना को फैशन मत बनाओ
व्रत एक संकल्प है, सजावट नहीं।
उसका सौंदर्य उसकी सादगी में है, न कि झिलमिलाहट में।
जब साधना प्रदर्शन बन जाती है, तब संस्कृति की आत्मा क्षीण हो जाती है।हमारी सभ्यता तब तक जीवित रहेगी जब तक व्रत में साधना का सत्य जीवित रहेगा।
आज आवश्यकता है ,कि हम व्रत की मूल भावना को पुनः जागृत करें। परंपरा और आधुनिकता में संतुलन रखें, पर श्रद्धा को बाजार की वस्तु न बनने दें।व्रत का सम्मान करें — क्योंकि यही हमारी नारी की गरिमा, हमारी संस्कृति की पहचान और हमारे सनातन जीवन की सच्ची कला है।
व्रत को व्रत रहने दो — साधना को फैशन मत बनाओ।इसी में है जीवन की पवित्रता, नारी की प्रतिष्ठा और भारत की सनातन आत्मा की अमरता।
डॉ. नवीन आनंद जोशी
E 100/22 शिवाजी नगर भोपाल