एक बार फिर कांग्रेस में उठने लगी आदिवासी मुख्यमंत्री बनाने की मांग


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स्टोरी हाइलाइट्स

सिंघार का कहना है कि प्रदेश में सत्ता की चाबी आदिवासियों के हाथ में है तो फिर उन्हें मुख्यमंत्री बनाए जाने से परहेज क्यों किया जा रहा है..!

भोपाल:  मध्य प्रदेश कांग्रेस के सबसे वरिष्ठ आदिवासी नेता एवं पूर्व मंत्री कांतिलाल भूरिया को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाए जाने के बाद से ही पार्टी में आदिवासी मुख्यमंत्री बनाए जाने की मांग उठने लगी है. यह मांग भी आदिवासी स्वाभिमान यात्रा के दौरान पूर्व मंत्री उमंग सिंघार ने उठाई है. सिंघार का कहना है कि कांतिलाल भूरिया पांच बार के विधायक, मंत्री और केंद्रीय मंत्री रहे हैं. प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी रह चुके हैं तो क्यों न  उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया जाए?  सिंघार का कहना है कि प्रदेश में सत्ता की चाबी आदिवासियों के हाथ में है तो फिर उन्हें मुख्यमंत्री बनाए जाने से परहेज क्यों किया जा रहा है?

तीन बार के विधायक रह चुके उमंग सिंघार का एक वीडियो वायरल हो रहा है. इसमें वे आदिवासी सम्मान यात्रा को संबोधित करते हुए कांग्रेस हो या बीजेपी यही मांग करता हूं कि प्रदेश का मुख्यमंत्री आदिवासी वर्ग से हो. उन्होंने कहा कि मैं मुख्यमंत्री पद की दौड़ में नहीं हो मुझे भगवान की कृपा से सब कुछ मिल गया है. मैं चाहता हूं कि कांग्रेस के सबसे वरिष्ठ आदिवासी नेता कांतिलाल भूरिया है, उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जाना चाहिए. सिंघार यहीं नहीं रुके, उन्होंने सभी आदिवासी वर्ग के नेताओं कार्यकर्ताओं और मतदाताओं से आग्रह किया है कि अगला मुख्यमंत्री आदिवासी हो, इस मांग को अपने सोशल स्टेटस पर डालें. उन्होंने भाजपा पर आरोप लगाया कि वह हमेशा ही आदिवासियों का राजनीतिक उपयोग वोटों के लिए करती आ रही है. पिछले डेढ़ दशकों से आदिवासी वर्ग ने उन पर विश्वास जताया किंतु उन्होंने अभी तक किसी भी आदिवासी नेता को आगे बढ़ने नहीं दिया. यही कारण है कि 2018 के विधानसभा चुनाव में आदिवासी के लिए आरक्षित 47 सीटों में से भाजपा को महक 15 सीटें ही मिली और वह सत्ता से बाहर भी हो गई. यानी सत्ता की चाबी आदिवासियों के पास ही रही है. 

45 के अलावा 75 सीटों पर भी निर्णायक की भूमिका

राज्य में आरक्षित 47 सीटों के अलावा 75 सीटें ऐसी है, जहां आदिवासियों का वोट निर्णायक होता है. यह सीटें हैं, श्योपुर, विजयपुर, बदनावर, बमोरी, कोलारस, केवलारी, मांधाता, कोतमा, सेमरिया, सिरमौर, त्यौथर, नागौद, सिंगरौली, चुरहट, रामपुर बघेलान, गुढ़, पन्ना, सीधी, सिवनी, खातेगांव, बरगी, सिहावल, जबेरा, सिवनी मालवा, बुधनी, विजयराघवगढ़, पाटन, पिपरिया, पन्ना, मुड़वारा,  परसवाड़ा, आमला, बैतूल, मुलताई, भोजपुर, बहोरीबंद, सिलवानी, देवरी, गोटेगांव, महू, खरगोन, कसरावद, महेश्वर, पवई, सिंगरौली, हरदा, मैहर, पनागर, अमरपाटन, मऊगंज, त्यौथर, चित्रकूट, छिंदवाड़ा, सौसर, चौरई, परासिया, चाचौड़ा, बीना सांची, बड़वाह, लांजी, कटंगी, पोहरी, जावद, पिछोर, खंडवा, बालाघाट, राघौगढ़, तेंदूखेड़ा नरसिंहपुर खुरई और शिवपुरी है.

प्रदेश की राजनीति में हमेशा ठगे गए आदिवासी नेता

राज्य के गठन के बाद से आदिवासी कांग्रेस से जुड़े रहे और कांग्रेस 42 सालों तक सत्ता में रही. इन 42 सालों में 20 साल ब्राह्मण, 18 साल ठाकुर और तीन साल बनिया (प्रकाश चंद्र सेठी) मुख्यमंत्री रहे. यानी 42 सालों तक कांग्रेस राज में सत्ता के शीर्ष सवर्ण रहे. केवल  आदिवासी राजा केवल नरेश चंद्र सिंह (13 मार्च 1969 से 25 मार्च 1969 तक ) 26 दिनों के लिए ही मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रह पाए. इसके बाद से आज तक कोई भी आदिवासी नेता प्रदेश का मुख्यमंत्री नहीं बन पाया. चुनाव में जरूर आदिवासी वोट बैंक भुनाने की कोशिश होती रही.

आदिवासी वोट बैंक मूलरूप से कांग्रेस के साथ रहा है. इंदिरा गांधी की निधन के बाद कांग्रेस में आदिवासी नेता राजनीतिक रूप से असुरक्षित महसूस करने लगे. इसकी वजह भी साफ थी कि मुखर आदिवासी नेताओं को कांग्रेस में हाशिए पर धकेलने की एक अंतहीन साजिश शुरू हो गई. यह सिलसिला 80 के दशक से शुरू हुआ जो अब तक निरंतर चल रहा है.  दिवंगत मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह और उसके बाद उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी दिग्विजय सिंह भी आदिवासी नेताओं को मुख्यमंत्री की दौड़ से पीछे धकेलते रहे. यही वजह रही कि आदिवासी नौकरशाह से राजनीति में आए स्वर्गीय अजीत जोगी अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री तो नहीं बन पाए. मध्यप्रदेश के विभाजन के बाद अजीत जोगी छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री  बने. ऐसा नहीं था कि मुख्यमंत्री पद के योग्य दावेदारों में आदिवासी नेता नहीं थे. दिलीप सिंह भूरिया, झूमक लाल भेड़िया, बिसाहूलाल महंत, बसंत राव उईके, जमुना देवी (ये सभी दिवंगत हो गए है) में नेतृत्व और प्रशासनिक क्षमता भरपूर थी किंतु साजिशन उन्हें सीएम कुर्सी के नजदीक तक पहुंचने नहीं दिया गया.

बीजेपी में भी आदिवासी नेता नहीं बढ़ पाए आगे

कांग्रेस में राजनीतिक असुरक्षा की वजह से ही आदिवासियों का कांग्रेस से मोहभंग होने लगा. इसका परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे आदिवासी वोट बैंक बीजेपी की तरफ शिफ्ट होने लगा. इतना ही नहीं, कांग्रेस के आदिवासी नेता भी भाजपा में शामिल होने लगे. स्वर्गीय दिलीप सिंह भूरिया, अरविंद नेताम, प्रेम नारायण ठाकुर, निर्मला भूरिया और सुश्री अनसूइया उईके ने बीजेपी का दामन थाम लिया. कांग्रेसी से बीजेपी में गए आदिवासी नेताओं को कोई महत्वपूर्ण मुकाम हासिल नहीं हुआ. हां, अनुसुइया उइके इसका अपवाद जरूर रहीं है. वह न केवल राज्यसभा सदस्य बनी, बल्कि भाजपा ने उन्हें राज्यपाल भी बनाया हुआ है. यह उल्लेख करना उचित होगा कि कमलनाथ सरकार गिराने साजिश में शामिल आदिवासी नेता बिसाहू लाल सिंह को जरूर विभीषण की भूमिका अदा करने पर भाजपा सरकार में उन्हें मंत्री पद मिला. इनके अलावा कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में गए आदिवासी नेताओं का कोई बड़ा राजनीतिक मुकाम हासिल नहीं हुआ.