नानक देव जी की गुरुवाणी


स्टोरी हाइलाइट्स

नानक देव जी की गुरुवाणी सिखों के आदि गुरू सन्त श्री नानक देव जी की गुरूवाणी श्री गुरूग्रन्थ साहिब में दर्ज है। इन्होंने लगभग 974 शब्द और 19 राग लिखे हैं। उनके सभी शब्द और राग अनन्त परमेश्वर की तरफ ध्यान आकर्षित करते हैं। गुरूवाणी के शुरू में उन्होंने सबसे पहले जो दोहा लिखा है वह इस प्रकार से है – ओम् सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरू। अकाल मूरति अजूनी सैभं गुरू प्रसादि।। अर्थात् परमेश्वर का नाम ही सत्य है और सच्चा है। वह सम्पूर्ण सृष्टि का करता पुरूष है। यह ब्रहमाण्ड उसी परमेश्वर के इशारे पर चल रहा है। वह निर्भय है उसका किसी से बैर नहीं है। उसकी कोई मूर्ति नहीं है, उसका कोई रूप या आकार नहीं है, वह अजन्मा है। अर्थात् परमात्मा, योनि और जन्म-मरण से रहित है। और उस परमात्मा को पाना गुरू की कृपा पर ही निर्भर करता है। गुरू नानक देव जी के देव शब्द की व्याख्या करने के लिए बचपन से ही उनके द्वारा किये जाने वाले चमत्कार और उनकी शब्दावली पर कुछ गौर करें। कालू मेहता यानि उनके पिता जब उन्हें 10 साल की उम्र में पंडित को बुलाकर जनेउ पहनाने लगे, तो वे बोले, “यह क्या है?” पंडित ने कहा, “जनेउ हिन्दुओं की उच्च जाति होने की निशानी है। जनेउ धारण करने से आप पवित्र हो जायेंगे और संसार में आप एक उच्च जाति के हिन्दू माने जायेंगे।” तब गुरू नानक बोले, “नहीं पंडित जी यह धागा तो शरीर के साथ ही रह जायेगा। जब अन्तिम समय में शरीर जलेगा तो यह धागा भी जल जायेगा। मुझे आप कोई ऐसा धागा या जनेउ दें, जो मरने के बाद भी हर समय मेरे साथ रहे। मुझे जिस जनेउ की आवश्यकता है, उसके लिए दया रूपी कपास होना चाहिए, सन्तोष रूपी सूत होना चाहिए, संयम की गांठ होनी चाहिए और वह जनेउ सत्य की पूरक होनी चाहिए। वास्तव में प्रत्येक जीव के लिए यही आध्यात्मिक जनेउ है। इस जनेउ को न ही मैल लगता है, न ही वह टूटती है, न ही यह गुम होती है और न ही आग में जलती है। यह जनेउ आत्मा को परमात्मा से मिलाने में तार का काम करती है।” एक जगह भगवान जगन्नाथ जी की मूर्ति के आगे कुछ पूजा पाठ और आरती कर रहे थे, लेकिन नानक जी उस आरती से कुछ दूर जाकर बैठ गये। बाद में वहां के कर्ताधर्ताओं ने पूछा कि आप आरती में क्यों नहीं बैठे? गुरू नानक जी ने उत्तर दिया कि मैं तो एक दूसरी आरती कर रहा था। मैं इस मानव के द्वारा बनाई गई मूर्ति की आरती नहीं कर पाऊंगा। गुरू जी ने कहा कि यह सारा आकाश एक थाल है जिसमें सूर्य और चन्द्रमा रूपी दीपक जल रहे हैं। सुगन्ध वाले फूल और चन्दन के वृक्ष आदि धूत और अगरबत्ती के समान हैं। हवा की लहरें चंवर ढुला रही हैं। और दिनरात ये आरती होती रहती है। ऐसे प्रभु की आरती को इस मूर्ति के सामने की जाने वाली आरती से तुलना नहीं की जाती। नानक जी का अभिप्राय था कि मूर्ति पूजन से कोई लाभ नहीं है। मूर्ति पूजा करने से हमें कुछ नहीं मिल सकता। यह मूर्ति उस अगम अगोचर भगवान की नहीं है जो हमसे कोसों दूर हैं। इस पत्थर की मूर्ति के आगे माथा रगड़ना महज जंगल में चिल्लाने जैसा है। गुरू नानक जी ने अपने अनुयायियों को बहम शगुन-अपशगुन, अन्धविश्वास के चक्कर में रहना, शादी-विवाह या दूसरे शुभ कार्य का मुहूर्त निकलवाना, जाति-पाति के चक्कर में फंसना, मूर्ति रखना, पितृ कर्म श्राद्ध करना, राखी बांधनी और तिलक लगवाना, लोहड़ी जलाना, मौन व्रत रखना, पूजा के नाम पर नंगे या भूखे रहना अथवा नंगे पांव चलना सख्त मना किया है। गुरू जी ने आगे सिख समुदाय को आदेश दिया है कि कीरतन करें, नाम जपें, हक की कमाई खायें, समाज सेवा करें, ईश्वर का ध्यान करें, सबको एक नजर से देखें। मेहनत और ईमानदारी की कमाई करके उसमें से एक हिस्सा जरूरत मन्दों को दें। स्त्रियों को बराबर का दर्जा दें। ये सभी आदेश नानक जी ने शब्द और कीर्तन के जरिए समय समय पर कहे हैं और इनका उदाहरण गुरूवाणी में यथावत मिलता है। बचपन में जब गुरू नानक देव जी स्थानीय पंडित के पास पढ़ाई करने नहीं गये तो उनके पिता ने उन्हें गाय-भैंसे चराने के लिए जंगल में भेज दिया। जंगल में जाकर गाय-भैंसे चरते-चरते स्थानीय जमीदार राय बुलार के खेतों में घुस गईं और थोड़ी देर में सारे खेत चट कर गईं। राय बुलार को गुस्सा आया और उसने आदमी भेजकर कालू मेहता को बुलवाया। कालू मेहता और नानकी देवी जो कि उनकी बड़ी बहन थीं, अपने नानक की इस करतूत से बहुत खफा हुईं और उन्हें ढूंढने के लिए जंगल में निकल पड़ीं। जंगल में जाकर देखा कि नानक जी एक मेज के सहारे लेटे हुए ध्यान मग्न हैं। एक काला कोबरा सांप उनके पीछे से आकर फन फैलाये हुए चेहरे पर छाया किये हुए है। जैसे ही कालू मेहता और नानकी वहां पहुंचीं, सांप अन्तरध्यान हो गया। घरवालों को उस दिन पता लगा कि नानक दैवी शक्ति से युक्त कोई अवतारी सन्त हैं। 40 वर्ष के बाद जब नानक तीर्थाटन यानि देश भ्रमण को निकले, तो रास्ते में उनके अनुयायी एवं अन्य लोगों को एक स्थान पर बसेरा करना पड़ा। काफी लम्बा-चैड़ा गांव था, गांव में भाई मलिक पागो सेठ और भाई लालो जैसे गरीब किसान भी रहते थे। दोनों अपनी-अपनी रोटियां लेकर नानक जी के जत्थे में पहुंचे। नानक जी ने भाई लालो की रोटियां और साग बड़े प्रेम से खाया ओर भाई मलिक पागो सेठ की पूरियां और पकवान लौटा दिये। मलिक पागो विक्षिप्त होकर नानक जी के पास आया और अपने पकवान को लौटाने का कारण पूछने लगा। नानक जी ने दाहिने हाथ से भाई लालो गरीब की रोटी पकड़ी और बांये हाथ में मलिक पागो की पूरियां और पकवान। भाई लालो की रोटी से दूध टपकने लगा और सेठ की पूरियों से खून की बूंदें गिरने लगीं। नानक जी बोले भाई सेठ जी मैंने भाई लालो की रोटी इसलिए खाई कि यह सत्य की कमाई है। मेहनत-मजदूरी करके इसने रोटी की व्यवस्था की है। लेकिन आपने तो लोगों का खून चूसा है और आपकी अधिकांश कमाई असत्य की है। देख रहे हो! दोनों में कितना फर्क है इस कारण मैंने तुम्हारी रोटी वापिस लौटा दी। जब नानक देव जी पाकिस्तान से अफगानिस्तान की राह चले, तो रास्ते में एक स्थान पर विश्राम करने की सोची। उनके दो अनुयायी भाई बालाजी और भाई मरदाना जी पानी की प्यास से तड़प रहे थे। वहां कुछ ऊंचाई पर एक मुस्लिम सन्त वलि कन्धारी का आश्रम था। नानक जी ने कमंडल लेकर अपने अनुयायियों को कन्धारी के आश्रम में पानी लेने के लिए भेजा। कन्धारी ने पानी देने से इन्कार कर दिया। नानक जी ने कहा आप फिर जाओ। दोबारा जाने पर कन्धारी बोला कि तुम्हारे गुरू अगर इतने ही सर्वशक्तिमान हैं, तो वहीं पर पानी क्यों नहीं पैदा कर लेते। वलि कन्धारी को अपने सिद्ध होने का बहुत ही घमण्ड था। जब दोनों शिष्य वापिस आये तो वलि कन्धारी ने ऊपर से दो तीन भारी शिलायें नीचे को लुढका दी। गुरू नानक देव जी की महिमा ने यह छल कपट देख लिया और उन्होंने अपना पंजा आगे करके भारीभरकम शिलाओं को रोक दिया। पत्थर पर जहां उनका पंजा पड़ा, वहीं से पानी की धारा फूट गई। इस पंजा साहिब में आज भी विशाल गुरूद्वारा बना हुआ है और दूर दूर से लोग आकर गुरू नानक देव जी की महिमा को मत्था टेकते हैं। अपने पर्यटन काल में नानक जी देश विदेश घूमते रहे। यहां तक कि उन्होंने मक्का और मदीना की यात्रा भी कर डाली। मक्का के मस्जिद के आगे नीचे आंगन में जब वे पहुंचे, तो काफी थक गये और कोहनी टिका कर लेट गये। उतने में एक मुस्लिम खादिम आया और मक्का मस्जिद की तरफ पैर करके लेटने पर उन्हें बुरा भला कहने लगा। नानक जी बोले, “अरे भाई जिस तरफ मक्का की मस्जिद नहीं है, उस तरफ मेरे पैर कर दो।” खादिम को गुस्सा आया हुआ था। ऐसी अभद्रता करने वाले तीर्थ यात्री को वह सहन नहीं कर सका। उसने हाथ के बजाये अपने पैर से ही नानक जी के पैरों को विपरीत दिशा में घुमा दिया। लेकिन यह क्या? जिधर को भी नानक जी के पैर घूम गये मक्का की मस्जिद भी उसी तरफ घूम गई। खादिम ने पूरी गोलाई में जब नानक जी के पैर घुमाये, तो मस्जिद भी उसी प्रकार से पैरों की तरफ घूमती रही। नानक जी बोले, “अब तुम्हीं बताओं मैं कहां को पैर करूं। अल्लाह तो चारों तरफ विराजमान हैं। “ नानक अच्छे कवि भी थे। उनके भावुक और कोमल हृदय ने प्रकृति से एकात्म होकर जो अभिव्यक्ति की है वह निराली है। उनकी भाषा ’’बहता नीर’’ थी, जिसमें फारसी, मुल्तानी, पंजाबी, सिंधी, खड़ी बोली, अरबी, संस्कृत और ब्रजभाषा के शब्द समा गए थे। उनकी वाणी शब्द कीर्तन रूप में आज भी गुरूद्वारों में सुबह शाम गूंजती रहती है। उनके नाम लेने से सारा संसार तर जाता है। नानक नाम जहाज है। उनका जन्म चन्द्रमा की 16 कलाओं के बीच हुआ था इसका उदाहरण है:- नानक नाम चढदी कला, तेरे पहाणे सर्वद दा भला। कोई बोले राम राम कोई बोले खुदाया खुदाया।। कोई सेवें गुसईआ कोई अलाही, कारण करण करीम। कृपा धारी रहीम कोई नावे तीरथी कोई हज जाई। कोई करे पूजा कोई सिर निवाई।। कोई पढे वेद कोई कतेब कोई ओढे नील कोई सफेद। कोई कहे तुरकु कोई कहे हिन्दु कोई बाछे भीसतु कोई सुरगिन्दु।। कह नानक जिनि हुकम पछाना प्रभु साहिब का तिनि भेद जाना।। अन्त में उनके कीर्तन और राग इतने गम्भीर हैं कि सारे संसार में गुरू नानक जयन्ती पर इनका गायन शबद-कीर्तन के रूप में गुरूद्वारों सहित घर-घर में मधुर संगीत के साथ सुनाई पड़ेगा। गुरू नानक के इस प्रकाश पर्व पर सबको लख लख बधाईयां। वाहे गुरू! सतनाम! वाहे गुरू सतनाम! सतगुरू नानक प्रग्टया, मिट धुंध जग चानन होया कल तारन गुरू नानक आया। ज्योंकर सूरज निकलया, तारे छुपे अन्धेर पलोवा। पैया आनन्द जगत विच हिन्दु मुसलमान निवाया। Pt. Kewal Anand Joshi डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं