अक्सर हिंदुत्व के समर्थकों के धर्मांतरण विरोधी विचारों की निंदा की जाती है। घर वापसी जैसे कार्यक्रमों का उपहास उङाया जाता है। ऐसे में यह जानना बहुत जरूरी है कि गाँधीजी के धर्मांतरण को लेकर क्या विचार थे ? गाँधीजी के जीवनकाल में धर्मांतरण का जोर अधिक था। जब हम यह कहते हैं कि भारत के ईसाई और मुसलमान कुछ पीढ़ी पहले तक हिंदू ही थे। तो वह पीढ़ी जिसका धर्मांतरण हुआ उनमें से ज्यादातर गाँधीजी के समकालीन थे। स्वयं गाँधीजी लम्बे समय तक देश से बाहर रहे| उनके ऊपर ईसाई धर्म का प्रभाव पङ सकता था। लेकिन गाँधीजी के विचार पढ़ने पर तो ऐसा लगता है, जैसे वे धर्मांतरण के कट्टर विरोधी थे।
महात्मा गांधी ने 1916 में क्रिश्चियन एसोसिएशन ऑफ मद्रास की एक सभा को संबोधित करते हुए स्पष्ट रूप से कहा था कि “धर्मांतरण राष्ट्रांतरण है.” धर्मांतरण पर बिल्कुल यही विचार तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का है। पिछले दिनों बिरसा मुंडा की जयंती पर झारखण्ड सरकार ने समाचार पत्रों में जारी विज्ञापन में गाँधीजी के विचारों का उल्लेख किया गया तो बवाल मच गया। केवल स्वयं को ही बुद्धिजीवी समझने वालों ने कहा कि संघ गाँधीजी को हथियाने की कोशिश कर रहा है। और उस विज्ञापन में लिखे विचारों को असत्य साबित करने के लिए तमाम कुतर्क दिए गए।
संघ पर चर्चा आगे किसी कङी में करेंगे । अभी गाँधीजी के विचारों को और समझने की कोशिश करते हैं ।
सबसे पहले बात उनकी आत्मकथा "सत्य के साथ मेरे प्रयोग" की | गाँधीजी के स्कूली शिक्षा के दिनों का एक किस्सा है। वे लिखते हैं “ उन्हीं दिनों मैने सुना कि एक मशहूर हिन्दू सज्जन अपना धर्म बदल कर ईसाई बन गये हैं। शहर में चर्चा थी कि बपतिस्मा लेते समय उन्हें गोमांस खाना पडा और शराब पीनी पडी। अपनी वेशभूषा भी बदलनी पडी तथा तब से हैट लगाने और यूरोपीय वेशभूषा धारण करने लगे। मैने सोचा जो धर्म किसी को गोमांस खाने, शराब पीने और पहनावा बदलने के लिए विवश करे वह तो धर्म कहे जाने योग्य नहीं है। मैने यह भी सुना नया कनवर्ट अपने पूर्वजों के धर्म को उनके रहन सहन को तथा उनके देश को गालियां देने लगा है। इस सबसे मुझसे ईसाइयत के प्रति नापसंदगी पैदा हो गई। ”

धर्मांतरण को लेकर यंग इंडिया के 23 अप्रैल, 1931 के अंक में वे लिखते हैं , ‘मेरी राय में मानव-दया के कार्यों की आड़ में धर्म-परिवर्तन करना नहीं कुछ तो, अहितकर तो है ही।" इसी लेख में गाँधीजी कहते हैं - ‘आजकल और बातों की तरह धर्म-परिवर्तन ने भी एक व्यापार का रूप ले लिया है. मुझे ईसाई धर्म-प्रचारकों की पढ़ी हुई एक रिपोर्ट याद है, जिसमें बताया गया था कि प्रत्येक व्यक्ति का धर्म बदलने में कितना खर्च हुआ, और फिर अगली फसल के लिए बजट पेश किया गया था.’ इसी लेख में उन्होंने लिखा था – ‘मेरी राय में मानव-दया के कार्यों की आड़ में धर्म-परिवर्तन करना नहीं कुछ तो, अहितकर तो है ही. ठीक ही यहां के लोग इसे नाराजी की दृष्टि से देखते हैं. कोई ईसाई डॉक्टर मुझे किसी बीमारी से अच्छा कर दे तो मैं अपना धर्म क्यों बदल लूं, या जिस समय मैं उसके असर में रहूं तब वह डॉक्टर मुझसे इस तरह के परिवर्तन की आशा क्यों रखे या ऐसा सुझाव क्यों दे? क्या डॉक्टरी सेवा अपने-आप में ही एक पारितोषक या संतोष नहीं है? या जब मैं किसी ईसाई शिक्षा-संस्था में शिक्षा लेता होऊं तब मुझ पर ईसाई शिक्षा क्यों थोपी जाए? ...धर्म की शिक्षा लौकिक विषयों की तरह नहीं दी जाती. वह हृदय की भाषा में दी जाती है. अगर किसी आदमी में जीता-जागता धर्म है तो उसकी सुगंध गुलाब के फूल की तरह अपने-आप फैलती है.’
इसके पहले यंग इंडिया के 8 सितंबर, 1920 के अंक में उन्होंने लिखा था - ‘यह मेरी पक्की राय है कि आज का यूरोप न तो ईश्वर की भावना का प्रतिनिधि है, और न ईसाई धर्म की भावना का, बल्कि शैतान की भावना का प्रतीक है. और शैतान की सफलता तब सबसे अधिक होती है जब वह अपनी जबान पर खुदा का नाम लेकर सामने आता है. यूरोप आज नाममात्र को ही ईसाई है. असल में वह धन की पूजा कर रहा है. ऊंट के लिए सुई की नोंक से होकर निकलना आसान है, मगर किसी धनवान का स्वर्ग में जाना मुश्किल है. ईसा मसीह ने यह बात ठीक ही कही थी. उनके तथाकथित अनुयायी अपनी नैतिक प्रगति को अपनी धन-दौलत से ही नापते हैं.’
संपूर्ण गाँधी वांग्मय में गाँधीजी के धर्मांतरण पर विचारों का विस्तार से उल्लेख है। उसके अंश पढ़ लीजिए ।
“ दूसरों के हृदय को केवल आध्यात्मिक शक्ति संपन्न व्यक्ति ही प्रभावित कर सकता है। जबकि अधिकांश मिशनरी बाकपटु होते हैं, आध्यात्मिक शक्ति संपन्न व्यक्ति नहीं। “
“भारत में ईसाइयत अराष्ट्रीयता एवं यूरोपीयकरण का पर्याय बन चुकी है।“ (क्रिश्चियम मिशन्स, देयर प्लेस इंडिया, नवजीवन, पृष्ठ-32)। उन्होंने यह भी कहा कि ईसाई पादरी अभी जिस तरह से काम कर रहे हैं उस तरह से तो उनके लिए स्वतंत्र भारत में कोई भी स्थान नहीं होगा। वे तो अपना भी नुकसान कर रहे हैं। वे जिनके बीच काम करते हैं उन्हें हानि पहुंचाते हैं और जिनके बीच काम नहीं करते उन्हें भी हानि पहुंचाते हैं। सारे देश को वे नुकसान पहुंचाते हैं। “मिशनरियों द्वारा बांटा जा रहा पैसा तो धन पिशाच का फैलाव है।“ उन्होंने कहा कि “ आप साफ साफ सुन लें मेरा यह निश्चित मत है, जो कि अनुभवों पर आधारित हैं, कि आध्यात्मिक विषयों पर धन का तनिक भी महत्व नहीं है। अतः आध्य़ात्मिक चेतना के प्रचार के नाम पर आप पैसे बांटना और सुविधाएं बांटना बंद करें।“
१९३५ में एक मिशनरी नर्स ने गांधी जी से पूछा “क्या आप कनवर्जन (धर्मांतरण) के लिए मिशनरियों के भारत आगमन पर रोक लगा देना चाहते हैं। गांधी जी ने उत्तर दिया “मैं रोक लगाने वाला कौन होता हूँ, अगर सत्ता मेरे हाथ में हो और मैं कानून बना सकूं, तो मैं धर्मांतरण का यह सारा धंधा ही बंद करा दूँ। मिशनरियों के प्रवेश से उन हिन्दू परिवारों में, जहाँ मिशनरी पैठे हैं, वेशभूषा, रीति-रिवाज और खान-पान तक में परिवर्तन हो गया है। आज भी हिन्दू धर्म की निंदा जारी हैं ईसाई मिशनों की दुकानों में मरडोक की पुस्तकें बिकती हैं। इन पुस्तकों में सिवाय हिन्दू धर्म की निंदा के और कुछ है ही नहीं। अभी कुछ ही दिन हुए, एक ईसाई मिशनरी एक दुर्भिक्ष-पीडित अंचल में खूब धन लेकर पहुँचा वहाँ अकाल-पीडितों को पैसा बाँटा व उन्हें ईसाई बनाया फिर उनका मंदिर हथिया लिया और उसे तुडवा डाला। यह अत्याचार नहीं तो क्या है, जब उन लोगों ने ईसाई धर्म अपनाया तो तभी उनका मंदिर पर अधिकार समाप्त। वह हक उनका बचा ही नहीं। ईसाई मिशनरी का भी मंदिर पर कोई हक नहीं। पर वह मिशनरी का भी मंदिर पर कोई हक नहीं। पर वह मिशनरी वहाँ पहुँचकर उन्हीं लोगों से वह मंदिर तुडवाला है, जहाँ कुछ समय पहले तक वे ही लोग मानते थे कि वहाँ ईश्वर वास है। ‘‘
‘लोगों का अच्छा जीवन बिताने का आप लोग न्योता देते हैं। उसका यह अर्थ नहीं कि आप उन्हें ईसाई धर्म में दीक्षित कर लें। अपने बाइबिल के धर्म-वचनों का ऐसा अर्थ अगर आप करते रहे तो इसका मतलब यह है कि आप लोग मानव समाज के उस विशाल अंश को पतित मानते हैं, जो आपकी तरह की ईसाइयत में विश्वास नहीं रखते। यदि ईसा मसीह आज पृथ्वी पर फिर से आज जाएंगे तो वे उन बहुत सी बातों को निषिद्ध् ठहराकर रोक देंगे, जो आ लोग आज ईसाइयत के नाम पर कर रहे हैं। ’लॉर्ड-लॉर्ड‘ चिल्लाने से कोई ईसाई नहीं हो जाएगा। सच्चा ईसाई वह है जो भगवान की इच्छा के अनुसार आचरण करे। जिस व्यक्ति ने कभी भी ईसा मसीह का नाम नहीं सुना वह भी भगवान् की इच्छा के अनुरूप आचरण कर सकता है।‘‘
एक यह वाकया भी पढ़ने योग्य है। भारत के सबसे प्रभावशाली ईसाई धर्मांतरणवादी स्टैनली जोन्स ने महात्मा गांधी के साथ रहकर उन्हें देखने जानने की कोशिश की थी. एक बार उन्होंने महात्मा गांधी से पूछा – ‘आप अक्सर ईसा के शब्द उद्धृत करते रहते हैं, फिर भी ऐसा क्यों है कि आप उनके अनुयायी (ईसाई) होने की बात को इतनी निष्ठुरता से ठुकरा देते हैं?’ गांधीजी का जवाब था– ‘अजी, मैं आपके ईसा को नहीं ठुकराता हूं. मैं तो उनसे प्रेम करता हूं. बात बस इतनी है कि आपके इतने ज्यादा ईसाइयों का जीवन बिल्कुल भी ईसा मसीह की तरह का है ही नहीं.’ गाँधीजी को उनके एक अमेरिकी मित्र और धार्मिक नेता मिल्टन न्यूबरी फ्रांट्ज ने ईसाई धर्म ग्रहण करने का प्रस्ताव देते हुए एक पत्र लिखा था।साबरमती आश्रम में रहने के दौरान मिल्टन का यह पत्र गांधीजी को मिला था। इस पत्र का जवाब देते हुए गाँधीजी जी ने लिखा था 'प्रिय मित्र, मुझे नहीं लगता कि मैं आपके प्रस्तावित पंथ को मान सकूंगा. दरअसल, ईसाई धर्म में किसी भी अनुयायी को यह मानना होता है कि जीसस क्राइस्ट ही सर्वोच्च हैं. लेकिन मैं अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद भी यह महसूस नहीं कर पा रहा हूं. पत्र में गांधीजी लिखते हैं कि वे मानते हैं कि ईसा मसीह इंसानियत के महान शिक्षक रहे हैं, प्रणेता रहे हैं, लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि धार्मिक एकता का मतलब सभी लोगों का एक धर्म को ही मानने लगना नहीं है, बल्कि यह तो सारे धर्मों को समान इज्जत देना है.'
कुछ समय पहले 50 हजार डॉलर नीलाम होने के कारण यह पत्र चर्चा में आया था।
(क्रमशः)
साभार: MANOJ JOSHI - 9977008211
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं
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