महा भक्त-कवि सूरदास की पहली गुरु एक वैश्या थी
-दिनेश मालवीय
हिन्दी साहित्य के आकाश में महा भक्त-कवि सूरदास को सूर्य कहा गया है. वह जो काव्य रचना कर गये वह सदियों बाद आज भी भक्तों के मन में भक्ति की अमृत-धार बहा देती है. उनकी रचनाएँ पढ़-सुनकर भक्तों की आँखों से भगवत-प्रेम की अश्रुधारा बहने लगती है, जिससे उनका भवरोगों से ग्रसित मन पवित्र हो जाता है. आँख से अंधे होने के बावजूद भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का उन्होंने जैसा सजीव और मन मोहक वर्णन उन्होंने किया है, वह भारत ही नहीं विश्व के साहित्य में कहीं नहीं मिलता. ऐसी काव्य-रचना चेतना की बहुत ऊँची अवस्था में पहुँचने पर ही संभव होती है.
लेकिन उनकी चेतना के इस स्तर तक पहुँचने की कहानी बहुत आश्चर्य से भरी और शिक्षाप्रद है. इससे यह भी सिद्ध होता है कि बहुत अच्छे कुल में जन्म लेकर उत्तम संस्कारों में पला-बढ़ा व्यक्ति भी गलत संगति में पड़कर अधम से अधम हो सकता है. लेकिन बहुत अधम अवस्था में पहुँच कर भी यदि कोई उसके मर्म पर चोट कर दे या किसी संत का साथ मिल जाए तो वह महापुरुष भी बन सकता है.
सूरदास का जन्म दक्षिण भारत में कृष्णवीणा नदी के तट पर स्थित एक गाँव में संस्कारित ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनका नाम बिल्वमंगल रखा गया. उन्हें अपने पिता से विधिवत धर्म-ग्रंथों की शिक्षा भी मिली. दुर्योग से वह गलत लोगों की संगति में पड़ गया, जिसके कारण उसके शुभ संस्कार दब गये और वह बहुत अधम जीवन जीने लगा. वह चिंतामणि नाम की वैश्या के फेर में पड़कर उसका इतना दीवाना हो गया कि अपने पिता की श्राद्ध के दिन भी वह जैसे-तैसे श्राद्धकर्म पूरा कर उस वैश्य के घर पहुँच गया. रास्ते में नदी की बाढ़ और दूसरी बाधाएँ उसका मार्ग नहीं रोक पायीं. उसके दिल पर तो सिर्फ चिन्तामणि से मिलने का भूत सवार था. कामातुर व्यक्ति को न तो भय होता है और न लज्जा. जैसे-तैसे वह उसके घर पहुँचा. लेकिन वैश्य चिन्तामणि को भी जीवन का बहुत अनुभव था. वह इस बात को समझ गयी कि इस संस्कारित व्यक्ति के मन को मेरे मोह ने जकड़ लिया है. बिल्वमंगल ने जब दरवाजा खटखटाया तो भीतर से चिन्तामणि ने उसकी भर्त्सना करते हुए कहा- “तू कैसा ब्राह्मण है? अरे, आज तेरे पिता का श्राद्ध दिवस है. तू आज भी मुझ हाड़-मांस की पुतली पर आसक्ति के कारण इतना कामातुर होकर यहाँ चला आया. तू आज जिस शरीर को परम सुंदर समझकर इतना पागल हो रहा है, उसका हाल भी एक दिन उसी सड़े मुर्दे जैसा होना है, जिसपर सवार होकर तू नदी पारकर यहाँ आया है. धिक्कार है तेरी इस नीच वृत्ति पर! यदि तू भगवान् श्यामसुंदर पर इतना आसक्त होता, तो अबतक उन्हें पाकर कृतार्थ हो चुका होता.”
बिल्वमंगल के भीतर अच्छे संस्कार तो छुपे ही थे. उसने जैसे ही उस वैश्या की मर्मान्तक बात सुनी, तो वे सभी संस्कार फिर जीवित हो गये. उसके मोह का अंत हो गया. उसने वैश्या चिन्तामणि के चरण पकड़ कर कहा-“ माता! तूने आज मुझे दिव्यदृष्टि देकर कृतार्थ कर दिया. मन ही मन चिन्तामणि को गुरु मानकर उसने उसे प्रणाम किया और वहाँ से चल दिया. चिन्तामणि के मन में भी वैराग्य जाग गया. वह भी उसके साथ चल दी.
लौटते हुए रास्ते में चिन्तामणि ने हरिद्वार की और बिल्वमंगल ने संत सोमगिरी महाराज के आश्रम की राह पकड़ ली. उसने उनसे दीक्षा लेकर एक वर्ष तक आश्रम में ही भजन-पूजन किया और इसके बाद वृन्दावन के लिए चल पड़ा. वह भगवान के दर्शन के लिए पागलों की तरह भटकने लगा. बहुत दिन बाद उसे अचानक रास्ते में एक बहुत सुंदर युवती दिखी. उस पर से कुसंगति का प्रभाव अभी पूरी तरह गया नहीं था. उसके नेत्र चंचल हो उठे और वह फिर से कामासक्त हो गया. वह उसका पीछा करते हुए उसके घर तक गया और उसके दरवाजे पर बैठ गया. उस स्त्री के पति ने उसे देखकर वहाँ बैठने का कारण पूछा तो उसने सारी घटना उसे सुना दी. बिल्वमंगल ने उस युवती को देखने की इच्छा व्यक्त की. वह व्यक्ति ज्ञानी था और पूरी स्थिति को समझ गया. उसने पत्नी को बुलाकर उसे दिखा दिया.
इस बीच भगवान की कृपा से बिल्वमंगल को अपनी गलती का अहसास हुआ कि वह फिर से कामासक्त हो गया है. ऐसा कहा जाता है कि सूरदास ने बेल के पेड़ से दो काँटे तोड़कर उनसे अपनी आँखों को अंधा कर लिया. वह भगवान श्रीकृष्ण के वियोग की अग्नि में जलने लगा. गाँव-गाँव, घर-घर घूमने लगा. उसकी यह दुर्दशा देखकर भगवान श्रीकृष्ण बालक रूप में उसके पास आकर बोले-“ सूरदासजी! आपको बड़ी भूख लगी होगी. कुछ मिठाई और जल लाया हूँ, इसे ग्रहण कर लीजिए.” भगवान की वाणी में ऎसी माधुरी थी कि उसका मन हर्ष से हिलोरे मारने लगा. बिल्वमंगल ने पूछा-“ भैया तुम कौन हो, तुम्हारा नाम क्या है? तुम्हारा घर कहाँ है? तुम क्या करते हो?”.
बालक ने कहा-“ मेरा घर पास ही है. मेरा कोई विशेष नाम नहीं है. जो मुझे जिस नाम से पुकारता है, मैं उसीसे बोलता हूँ. गाय चराता हूँ. मुझसे जो प्रेम करते हैं, उनसे मैं प्रेम करता हूँ.”
इसके बाद बालक यह कहकर चला गया कि मैं रोज भोजन आदि लेकर आया करूँगा. बिल्वमंगल ने कहा कि अच्छी बात है, तुम रोज़ आया करो. अपने वचन के अनुसार भगवान बालक के रूप में पास आकर रोज जाते और स्वादिष्ट भोजन कराने लगे. उसका उस बालक के प्रति मोह हो गया. वह सोचने लगा कि स्त्री के मोह से छूटा तो इस बालक पर आसक्त हो गया. वह ऐसा सोच ही रहा था कि बालक आया और बोला कि –“बाबाजी! वृन्दावन चलोगे? वृन्दावन का नाम सुनते ही बिल्वमंगल के मन में अपार हर्ष हुआ. लेकिन वह बोला कि मैं कैसे जा सकता हूँ, मैं तो अंधा हूँ. बालक ने उसके हाथ में लाठी पकड़ा कर कहा कि मैं इसके सहारे तुम्हें वहाँ ले चलता हूँ.
कुछ देर बाद बालक ने कहा कि- “लो! वृन्दावन आ गया. अब मैं जाता हूँ.” बिल्वमंगल ने बालक का हाथ पकड़ लिया. हाथ का स्पर्श होते ही उसके सारे शरीर में बिजली दौड़ गयी और उसका मन सात्विक प्रकाश से भर गया. वह फ़ौरन समझ गया कि यह स्वयं भगवान् श्यामसुंदर हैं. उसने कहा कि मैंने तुम्हें पहचान लिया है. अब छोड़ने वाला नहीं हूँ. भगवान् ने झटके से हाथ छुड़ा लिया. इस पर बिल्वमंगल ने , जिसे भगवान ने सूरदास नाम दिया था, कहा कि-
“बांह छुडाए जात हो निबल जानि कै मोहि
ह्रदय तें जब जाहुगे, सबल बदौंगो तोहि.
इसके बाद सूरदास भगवान के प्रति अपनी दीन-हीनता दिखाने वाले पद-भजन गाने लगे. इस दौरान उनकी भेंट पुष्टिमार्ग के श्री वल्लभाचार्य से हुयी. उन्होंने कहा कि अरे यह क्या दीनता के भजन गाते हुए रिरियाते रहते हो. भगवान की लीलाओं को गाओ. बस तभी से उन्होंने भगवान की बाल लीआलों के ऐसे अद्भुत पद रचे कि वह भक्ति साहित्य के सूर्य बन गये. उनके इन पदों को सुनकर लाखों भक्तों के मन का क्लेश धुल गया और आज भी उनका उतना ही प्रभाव है.