नारद दासीपुत्र से बने देवर्षि
-दिनेश मालवीय
व्यक्ति परिश्रम, सच्ची साधना, लगन और दृढसंकल्प से कुछ भी बन सकता और कुछ भी हासिल कर सकता है. नयी पीढी के लोगों ने इस सन्दर्भ में देश-विदेश के अनेक उदाहरण पढ़े-सुने होंगे. लेकिन हमारे ही देश में देवर्षि का सर्वोच्च पद पाने वाले नारदजी बहुत श्रेष्ठ उदाहरण हैं. वह एक दासीपुत्र से इन स्थान तक पहुँचे. देवर्षि नारद ने अपने जीवन के संघर्ष और सफलता की कथा स्वयं अपने मुँह से महर्षि व्यास को सुनाई है.
नारदजी ने व्यासजी को बताया कि वह पिछले जन्म में वह एक दासीपुत्र थे. वह सत्संग के कारण ही अपने जीवन को दिव्य बना सके. उन्होंने बताया कि दासीपुत्र होने के कारण उन्हें आचार-विचार का कुछ ज्ञान नहीं था. लेकिन उन्होंने श्रीकृष्ण की कथा सुनी, जिससे उन्हें इसका विवेक जाग्रत हुआ. नारदजी ने बताया कि जब उनकी उम्र करीब आठ वर्ष की थी, तभी उनके पिता का देहांत हो गया. उनकी माँ दूसरों के घर काम करती थी, जिससे उनका जीवन चलता था.
वह जिस गाँव में रहते थे, वहाँ एक बार कुछ साधु आये. उन्होंने वहाँ चातुर्मास किया. गाँव वालों ने मुझे उन साधुओं की सेवा में लगा दिया. इस प्रकार उन्हें संतों की सेवा और उनके साथ सत्संग का लाभ भी मिला. एक संत ने उसे अपना शिष्य बना कर उसका नाम हरिदास रख दिया.वह संत प्रभुरंग में रंगे सच्चे भक्त थे उनके इष्टदेव बालकृष्ण थे. उनकी कृपा से मुझ पर भी भक्ति का रंग चढ़ गया.
नारदजी ने बताया कि वह रात-दिन गुरुजी की सेवा में संलग्न रहते थे और उनके द्वारा की जाने वाली चर्चा को बहुत ध्यान से सुनते थे. वह ज्ञान और भक्ति का अद्भुत समन्वय थे. दिन में ब्रह्मसूत्र पर चर्चा करते थे तो रात में कृष्ण-कथा और संकीर्तन करते थे. वह हमेशा यही सीख देते थे कि व्यक्ति को बहुत कम बोलना चाहिए. विशेष कर आध्यात्मिक साधकों को तो इस बात का बहुत ध्यान रखना चाहिए.
एक दिन बालक हरिदास संतों की झूठी पत्तलें उठा रहा था. गुरुजी ने उसे देखकर पूछा कि क्या तुमने प्रसाद ग्रहण कर लिया है. उसके द्ववारा न कहने पर गुरुजी ने कहा कि मैंने पत्तों में महाप्रसाद रखा है, वह तुम खा लो. गुरु जब अपना जूठा किसी शिष्य को ग्रहण करने की आज्ञा देते हैं, तो यह उस शिष्य के भाग्योदय का कारण बनता है.उनके द्ववारा वह प्रसाद ग्रहण करते ही उनके सब पाप नष्ट हो गये.
गुरूजी ने हरिदास को गुरुमंत्र दिया, जिसका उसने चार माह गुरुसेवा के साथ ही तक खूब मन लगाकर जाप किया. गुरु की आज्ञा के अनुसार वह गिनकर जप नहीं करता था. गुरु का कहना था कि गिनकर जप करने से अहंकार बढ़ता है.
चार माह बाद गुरुजी का गाँव से जाने का दिन आया. हरिदास को बहुत दुःख हुआ. उसने गुरूजी से उसे साथ ले चलने की प्रार्थना की. लेकिन गुरुजी ने कहा कि अभी तुझ पर अपनी माता का ऋण है, पहले उसको चुकाना चाहिए. इसलिए तू माता का त्याग मत कर. घर पर रहकर माता की सेवा करते हुए, भगवान का भजन कर. इस कार्य में जो भी विघ्न बने उसे त्याग देना. हर माता की तरह हरिदास की माता भी चाहती थी कि उसका बेटा गृहस्थी बसाए, लेकिन हरिदास तो हरिरंग में रंग चुका था. हरिदास ने सोलह वर्ष तक इस मंत्र का जाप किया.
एक दिन माँ का स्वर्गलोक गमन हो गया. उसने घर में जो कुछ था वह माता के अंतिम कर्म में लगा दिया और ईश्वर की इच्छा के भरोसे जीने लगा. उसे विशवास था कि संसार का पोषण करने वाले ईश्वर उसका भी पोषण करेंगे. पहने हुए कपड़ों में ही उसने घर त्याग दिया.
हरिदास ने कभी भीख नहीं माँगी. स्वाभाविक रूप से जो मिल जाता, उसे ग्रहण कर लेता. ईश्वर की कृपा से उसे कभी भूखा नहीं रहना पड़ा.उसने किसी भी चीज का संग्रह नहीं किया. बारह वर्ष तक अनेक तीर्थों का सेवन करते हुए वह गंगा तट पर पहुँचा और वहीं जप-ध्यान करता रहा. भावना में भाव में उसे श्रीकृष्ण दीखते थे, लेकिन प्रत्यक्ष दर्शन नहीं दिए. उसकी दर्शन की तीव्रता दिन-दूनी रात-चौगनी बढती रही. फिर एक दिन बालकृष्ण ने उसे दर्शन दिए. फिर वह अंतर्धान हो गये. आकाशवाणी हुयी कि किसके मन में सूक्ष्म वासना रह गयी हो, मैं उसे दर्शन नहीं देता. इस जन्म में अब तुझे मेरे दर्शन नहीं होगा. तू लगातार जप कर. मरने से पहले हरिदास को अपने शरीर से अपनी भिन्नता का अहसास होने लगा. इसके बाद वह ब्रह्मलोक सिधार गया.
इसके बाद वही हरिदास बालक ब्रहमाजी के मानसपुत्र के रूप में जन्मा और अपनी पवित्रता और ईश्वर में एकनिष्ठता के कारण देवर्षि के सर्वोच्च पद पर पहुँचा. नारद भगवान श्रीविष्णु को बहुत प्रिय हैं. उन्हें तीनों लोकों में कभी भी कहीं भी जाने का वरदान प्राप्त है. देव और दनुज दोनों उनका समान रूप से आदर करते हैं.
हमारी फिल्मों और टीवी सीरियलों ने देवर्षि नारद की जो विदूषक जैसी छवि बना दी है, वह उसके एकदम विपरीत हैं. देवर्षि नारद तत्वज्ञानी और अनेक विद्याओं के महान ज्ञाता हैं. वह संगीत के मर्मज्ञ हैं. हनुमानजी को संगीत की शिक्षा उन्होंने ही दी. उनके हाथ में सदा वीणा रहती है और वह उसे बजाते हुए “नारायण नारायण” का उच्चारण करते रहते हैं. उनके द्वारा अनेक अनमोल ग्रंथों की रचना की गयी. भक्ति का सही स्वरूप समझने के लिए उनकी रचना “नारद भक्ति-सूत्र” का अध्ययन-मनन करना चाहिए.