यदि गाँधीजी के नजरिए से हिंदुत्व और रामराज्य को समझना है तो यह जानना पहले जरुरी है कि इस बारे में गाँधीजी के विचार क्या थे ? इसके बाद हमें देखना होगा कि संघ जिस हिंदुत्व की बात करता है (कल मैंने सरसंघचालक जी के एक वक्तव्य का जिक्र किया है, इस पर विस्तृत अगली किसी कङी में ) उसमें और गाँधीजी के हिंदुत्व में क्या अंतर और समानता है ?
यंग इंडिया , नवजीवन और हरिजन में महात्मा गाँधी द्वारा समय - समय पर लिखे लेखों को पढ़ें तो उनके विचार स्पष्ट होंगे ।
उदाहरण के लिए गांधीजी ने 20 अक्टूबर 1927 को 'यंग इंडिया' में एक लेख लिखा "मैं हिंदू क्यों हूं". इसमें उन्होंने लिखा, "मेरा जन्म एक हिंदू परिवार में हुआ, इसलिए मैं हिंदू हूं. अगर मुझे ये अपने नैतिक बोध या आध्यात्मिक विकास के खिलाफ लगेगा तो मैं इसे छोड़ दूंगा "| वे इसी लेख में यह भी लिखते हैं "अध्ययन करने पर जिन धर्मों को मैं जानता हूं, उनमें मैने इसे सबसे अधिक सहिष्णु पाया है. इसमें सैद्धांतिक कट्टरता नहीं है, ये बात मुझे बहुत आकर्षित करती है. हिंदू धर्म वर्जनशील नहीं है, इसलिए इसके अनुयायी ना केवल दूसरे धर्मों का आदर कर सकते हैं बल्कि वो सभी धर्मों की अच्छी बातों को पसंद कर सकते हैं और अपना सकते हैं."

हिंदू धर्म पर गाँधीजी का एक लेख "यंग इंडिया" के छह अक्टूबर 1921 के अंक में भी मिलता है। गाँधीजी लिखते हैं , "मैं अपने को सनातनी हिंदू इसलिए कहता हूं क्य़ोंकि, मैं वेदों, उपनिषदों, पुराणों और हिंदू धर्मग्रंथों के नाम से प्रचलित सारे साहित्य में विश्वास रखता हूं और इसीलिए अवतारों और पुनर्जन्म में भी. मैं गो-रक्षा में उसके लोक-प्रचलित रूपों से कहीं अधिक व्यापक रूप में विश्वास रखता हूं. हर हिंदू ईश्वर और उसकी अद्वितीयता में विश्वास रखता है, पुर्नजन्म और मोक्ष को मानता है."" मैं मूर्ति पूजा में अविश्वास नहीं करता." यंग इंडिया' में उन्होंने यह भी लिखा कि,'सिवाय अपने जीवन के और किसी अन्य ढंग से हिन्दू धर्म की व्याख्या करने के योग्य मैं खुद को नहीं मानता.'
गाँधीजी का हिंदू धर्म पर एक और लेख नवजीवन" में 07 फरवरी 1926 के अंक में भी है। इसमें उन्होंने लिखा लिखा, "जब जब इस धर्म पर संकट आया, तब तब हिंदू धर्मावलंबियों ने तपस्या की है. उसकी मलिनता के कारण ढूंढे और उनका निदान किया. उसके शास्त्रों में वृद्धि होती रही. वेद, उपनिषद, स्मृति, पुराण और इतिहासदि का एक साथ एक ही समय में सृजन नहीं हुआ बल्कि प्रसंग आने पर विभिन्न ग्रंथों की सृष्टि हुई. इसलिए उनमें परस्पर विरोधी बातें तक मिल जाएंगी."
'गांधी वांगमय' के खंड 23 के पेज 516 में गाँधीजी की ओर से लिखा है "अगर मुझसे हिंदू धर्म की व्याख्या करने के लिए कहा जाए तो मैं इतना ही कहूंगा-अहिंसात्मक साधनों द्वारा सत्य की खोज. कोई मनुष्य ईश्वर में विश्वास नहीं करते हुए भी अपने आपको हिंदू कह सकता है." लेकिन ऐसा नहीं है कि गाँधीजी हिंदू धर्म की बुराइयों को नहीं जानते थे। वे उन पर भी मुखरता से बात रखते थे। यंग इंडिया में उन्होंने लिखा "मैं काली के आगे बकरे की बली देना अधर्म मानता हूं और इसे हिंदू धर्म का अंग नहीं मानता. इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी समय धर्म के नाम पर पशु-बली दी जाती थी लेकिन ये कोई धर्म नहीं है और हिंदू धर्म तो नहीं ही है."
यंग इंडिया में वे लिखते हैं " अपृश्यता को मैं हिंदू धर्म का एक सबसे भारी दोष मानता आया हूं. ये सच है कि ये दोष हमारे यहां परंपरा से चला आ रहा है. यही बात दूसरे बहुत से बुरे रिवाजों के साथ भी लागू होती है।"
जितना मैं जानता हूँ संघ के संस्थापक डा केशव बलिराम हेडगेवार से लेकर वर्तमान सरसंघचालक तक सब हिंदू धर्म के इसी स्वरूप की बात करते हैं बल्कि आगे बढ़ कर संघ तो अखण्ड भारत की भूमि पर जन्मे सभी व्यक्तियों को हिंदू मानता है।
(क्रमशः )