जानिए सुभद्रा कुमारी चौहान को, जिनके लिए गूगल ने दिया डूडल|
गूगल ने भारत की पहली महिला साहित्यकार, लेखक और स्वतंत्रता संग्राम में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने वाली सुभद्रा कुमारी चौहान की लाइफ को सम्मान देते ते हुए एक डूडल जारी किया है|
आखिर कौन थी सुभद्रा कुमारी चौहान? जिनके लिए गूगल ने बनाया डूडल?
सर्च इंजन गूगल ने 16 अगस्त गूगल को सुभद्रा कुमारी चौहान को अपना डूडल समर्पित किया है|
गूगल हर खास मौके पर डूडल का निर्माण करता है| इस डूडल में सुभद्रा कुमारी चौहान नजर आ रही है| इसे न्यूजीलैंड की गेस्ट आर्टिस्ट प्रभा माल्या ने निर्मित किया है|
16 अगस्त 1904 को सुभद्रा कुमारी का जन्म हुआ|
https://twitter.com/MIB_India/status/1427161435063263233?s=20
"आधुनिक हिंदी-काव्य के भावोल्लास काल में जिन कविवाणियों ने जनता को उत्स्फूर्त किया, उसे प्रेम और देशभक्ति के आवेग तथा आह्लाद में सराबोर कर दिया, उसमें स्वर्गीया सुभद्रा कुमारी चौहान का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है।"
“माधव मुक्तिबोध”

पावन संगमस्थली प्रयाग (इलाहाबाद) को भारतीय धर्म-संस्कृति में साक्षात् मोक्षभूमि कहा जाता है, उसके निहालपुर मुहल्ले में ठाकुर रामनाथ सिंह का सुशिक्षित और संपन्न परिवार रहता था। ठाकुर साहब के परिवार में उनकी पत्नी और सात बच्चे थे। पुत्रियों और पुत्रों से भरे-पूरे उस परिवार के मुखिया ठाकुर रामनाथ सिंह कृषि और व्यापार से धनार्जन करके अपने परिवार का पालन-पोषण कर रहे थे। धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में परिवार की धाक सारे इलाहाबाद में जमी हुई थी। दीन-दुखियों की सहायता में सदैव तत्पर रहनेवाले परिवार पर लक्ष्मी की भरपूर कृपा थी।
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में, जबकि देश में नवजागरण की लहर दौड़ रही थी और स्वतंत्रता आंदोलन गतिशील हो रहा था, समाज में रूढ़िवाद को समाप्त करने के अनेक प्रयास हो रहे थे। ठाकुर साहब का सुशिक्षित परिवार आरंभ से ही रूढ़िवाद से दूर था और स्वयं ठाकुर साहब कई सामाजिक संस्थाओं के साथ मिलकर इस नवजागरण में सक्रिय थे। उनकी पत्नी भी
धार्मिक विचारों की महिला थीं और एक कुशल गृहिणी की तरह परिवार को सँभाल रही थीं। घर के बच्चे भी माता-पिता और परिवार की भाँति संस्कारवान व धार्मिकता से पूर्ण थे, किंतु शरारती भी बहुत अधिक थे।
ठाकुर साहब के घर में आरती हो रही थी कि तभी एक चीख गूँजी, जो तत्काल ही दब गई। ठाकुर साहब ने क्रोध से अपनी पत्नी को देखा, जैसे कह रहे हों कि इन बच्चों को समझाती क्यों नहीं! पत्नी ने भी असहाय भाव से अपने कंधे झटके।
आरती संपन्न हुई और सबने भगवान् के समक्ष अपने सिर झुका दिए । फिर सबने एक-एक करके पूर्ण श्रद्धाभाव से आरती के दीपक की ज्योति को प्रणाम किया। छोटे बच्चे संभवतः इसी क्षण की प्रतीक्षा कर रहे थे और वे सभी वहाँ से खिसक लिये।
"क्या हुआ ?" ठाकुर साहब ने घूरकर पुत्र से पूछा।
"पिताजी! वो वो सुभद्रा ने " 'पिताजी! सुभद्रा ने चिकोटी काट ली थी।"
IMAGE SOURSE TWEETER
सुभद्रा ठाकुर साहब की सातवीं संतान थी, जिसकी आयु इस समय 8 वर्ष थी। सभी बच्चों में सबसे अधिक शरारती सुभद्रा माता-पिता सहित सभी की अत्यंत प्रिय थी, जो जितनी शांत और सौम्य दिखाई देती थी, उतनी ही शरारती भी थी।
"उसके बाद ।" ठाकुर साहब ने अपनी दस वर्षीया पुत्री से पूछा।
"म म मुझे भी उसने चिकोटी काटी।"
ठाकुर साहब ने असहाय भाव से अपनी पत्नी को देखा।
"मैं इसमें क्या कर सकती हूँ।
आपका ही लाड़-प्यार तो है, जिसने नन्ही को इतनी शरारतें करने की छूट दी है।
समझाने बैठती हूँ तो ऐसे बैठ जाती है, जैसे उससे ज्यादा मासूम कोई है ही नहीं।" पत्नी ने कहा।
"है कहाँ वह ? आज मैं समझाता हूँ उसे।" रामनाथ सिंह ने क्रोध में भरकर कहा।
"ढूँढ़ लीजिए। होगी घर में कहीं। मैं तो चलती हूँ। रसोई भी बनानी है। चलो, सब अपने-अपने काम पर लगो।"
सभी नौकर-चाकर अपने-अपने काम पर लग गए। रामनाथ सिंह मंदिर के कार्यों से निपटकर सुभद्रा को खोजने लगे तो वह उन्हें बगीचे में एक किताब खोलकर पढ़ती मिली। वह बड़ी जोर-जोर से किसी कविता का पाठ कर रही थी। रामनाथ सिंह का सारा क्रोध काफूर हो गया।
वे अपनी प्यारी बिटिया को स्नेह से देखने और मुसकराने लगे। "सुभद्रा ! मेरी रानी बिटिया! अब अँधेरा हो रहा है। घर में चलो और रोशनी में जाकर पढ़ो।" ठाकुर साहब ने प्रेम से कहा।
"चलती हूँ पिताजी! बस दो पंक्तियाँ याद करनी शेष हैं। पता है न, कल से स्कूल में प्रार्थना मुझे ही गानी है। अन्य सभी विद्यार्थी मेरे पीछे-पीछे प्रार्थना गाएँगे, जैसे आप आरती गाते हैं और हम पीछे-पीछे गाते हैं।"
ठाकुर साहब अपनी बिटिया की बात सुनकर गर्व से भर उठे।
"मेरी रानी बिटिया ! तू बहुत योग्य है।" ठाकुर साहब उसके समीप बैठ गए और उसके सिर पर हाथ फिराने लगे, "लेकिन तू शरारत कुछ ज्यादा ही करती है।"
"पढ़ाई भी तो करती हूँ, पिताजी!"
"वह तो सभी करते हैं, लेकिन भगवान् की पूजा के समय इस प्रकार शरारत करना उचित भी तो नहीं है। इससे भगवान् नाराज हो जाते हैं।"
'भगवान् नाराज होकर क्या दंड भी देते हैं, पिताजी ?" सुभद्रा ने बालसुलभ प्रश्न किया।
"वह वह।" ठाकुर साहब को कोई जवाब न सूझा तो वे पेड़ों की ओर देखने लगे।
"मुझे पता है।" सुभद्रा ने गंभीरता से कहा, "भगवान् विद्या की देवी सरस्वती को आज्ञा देते होंगे कि शरारती बच्चे से दूर रहो।" "हाँ हाँ, यही बात है।"
"फिर तो मैं कभी भगवान् के सामने शरारत नहीं करूँगी। मुझे तो पढ़ना है।
"मेरी अच्छी बिटिया! अच्छा, अब वह कविता तो सुना, जो तूने अभी अभी पढ़ी है। मैं भी देखूँ कि मेरी बिटिया की स्मृति कैसी है!"
सुभद्रा ने सस्वर बड़ी तन्मयता से महाकवि सूर का एक पद गाया, जिसे ने सुनकर ठाकुर साहब वाह-वाह कर उठे।
'अहा, बहुत सुंदर! देखना, एक दिन सब तुम्हारी प्रशंसा करेंगे। बस, तुम अपनी शरारत कम कर दो। फिर भगवान् सरस्वती देवी से कहेंगे कि इस नन्ही को ढेर सारी विद्या प्रदान करो।"
सुभद्रा ने सिर हिलाकर ऐसे संकेत दिया, जैसे आज उसे विद्या पाने का बहुत बड़ा रहस्य पता चल गया हो। "अब चलो। देखो, सब लोग रोशनी में पढ़ने बैठ गए हैं। "
रामनाथ सिंह ने यह नियम बनाया था कि पूजा के बाद भोजन और फिर सभी बच्चे पढ़ाई करेंगे। सभी बच्चों को पढ़ने के लिए घर में अलग अलग लालटेन थीं, जिन्हें एक नौकर प्रतिदिन साफ करता और उनमें तेल बत्ती आदि की व्यवस्था करता था। शिक्षा के महत्त्व को जानते हुए ठाकुर साहब अपने सभी बच्चों की शिक्षा संबंधी सभी आवश्यकताओं का पूरा-पूरा ध्यान रखते थे। एक दिन यही बच्ची राष्ट्रभक्त कवियत्री बनी|
{ नोट : सुभद्रा कुमारी के जीवन को गहराई से जानने MJ राजस्वी की किताब “राष्ट्रभक्त कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान” पढ़ें| प्रस्तुत अंश उपरोक्त किताब से "साभार" }
सामान्य परिचय
सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म 16 अगस्त 1904 को प्रयागराज में हुआ
मृत्यु 15 फरवरी 1948 को सिघनी मे हुई ।
सुभद्रा कुमारी राष्ट्रीय चेतना की एक सजक कवयित्री रही है।
सुभद्रा कुमारी ने दो कविता संग्रह तथा तीन कहानी संग्रह लिखे हैं|
सुभद्रा कुमारी की प्रसिद्धि का मूल कारण झाँसी की रानी कविता है ।
सम्मान
भारतीय तटरक्षक सेना ने 28 अप्रैल 2006 को सुभद्रा कुमारी चौहान की राष्ट्र प्रेम की भावना को सम्मानित करने के लिए नियुक्त तटरक्षक जहाज को सुभद्रा कुमारी चौहान का नाम दिया है । भारतीय डाक तर विभाग ने 6 अगस्त 1976 को सुभद्रा कुमारी चौहान के सम्मान मे 25 पैसे का एक टिकिट जारी किया है ।
1° कहानी संग्रह
बिखरे मोती (1932)
उन्मादिनी (1934)
सीधे सीधे चित्र (1947)
2° कविता संग्रह
मुकुल (1930)
त्रिधारा
3° जीवनी
मिला तेज से तेज
सुभद्रा कुमारी चौहान को उनकी कहानियों या हिन्दी साहित्य सॅम्मेलन का 'सिम्मरिया पुरस्कार' दो बार प्राप्त हुआ था।
कृतियां
सुभद्रा कुमारी चौहान की काव्य की विशेषताएँ
भारतेन्दु हरीशचंद ने जिस राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्य धारा को जन्म दिया था उसमे अपना सक्रिय योगदान देने वाले कवियों मे बदरीनारायण चौधरी प्रेमधन', राधा चरण गोस्वामी, प्रताप चरण मिश्र, मैथिली शरण गुप्त, बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन', माखन लाल चतुर्वेदी, सोहन लाल द्विवेदी, श्याम नारायण पाण्डेय, रामधारी सिंह दिनकर, जय शंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, नाथुराम शर्मा प्रमुख हैं।
इसी राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्य धारा मे सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपना विशिष्ट योगदान दिया है|
सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता के प्रमुख प्रत्यय है प्रेम एवं वात्सल्य
प्रेम के अंतर्गत देश प्रेम लौकिक प्रेम एवं आध्यात्मिक प्रेम को प्रमुखता दी है क्योकि वह भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम समय था।
इसीलिए उनकी कविता में समसामयिक विषयो को महत्व मिला है।
वात्सल्य के अंतर्गत भक्ति भावना भी दिखाई देती है।
डॉ रामकुमार वर्मा ने 'मुकुल कविता संग्रह की भूमिका मे स्पष्ट बताया है कि “सुभद्रा कुमारी चौहान के काव्य मे विविधता होते हुये भी उनकी कविताएँ राष्ट्रीय है। क्योंकि उनका जीवन ही राष्ट्रीय मानरूप है। सच्चे अनुभवों ने उनकी इन कविताओं को अधिक स्पष्ट और हृदयग्राही बना दिया है.....उन्होंने अपनी राष्ट्रीय कविताओ मे वीर भाव के काव्य भावुकता भी इस प्रकार भर दी है कि उन कविताओं का मूल्य वस्तुत: देश के मूल्य के बराबर हो जाता जाता है" ।
देश प्रेम
देशप्रेम एवं राष्ट्रियता की भावना से ओतप्रोत जालियावाल बाग, झाँसी की रानी, वीरों का कैसा हो बसंत आदि कविताएँ भारतीय नवयुवको को देश के प्रति प्रेम एवं कर्तव्य के प्रति जागरूक करती है।
देश प्रेम को उजागर करती हुई 'झाँसी की रानी' कविता की पंक्तिया "सिंहासन हिल उठे रजवशो में भृकुटी तानी थी.
बूढ़े भारत में भी आयी फिर से नयी जवानी थी।"
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी" के द्वारा अपनी पहचान बनाने वाली कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने सिर्फ कविता के क्षेत्र में ही अपना परचम लहराया बल्कि एक कथाकार के रूप में भी अपनी मिसाल कायम रखी है।
सुभद्रा जी का जन्म सन् 1905 में इलाहाबाद के निहालपुर गाँव में हुआ था। उनकी शादी लक्ष्मण सिंह के साथ हुई। लक्ष्मण सिंह भी साहित्य प्रेमी के साथ-साथ कांग्रेस के कुशल सेवी थे। उन्होंने कुछ दिनों तक कर्मवीर का संपादन भी किया था। शादी के उपरांत पति के इन गुणों ने सुभद्रा जी को अपने कर्मक्षेत्र में अग्रसर रखा। इसलिए गृहस्थ जीवन में प्रविष्ट होने के उपरान्त भी दो पुत्र और एक पुत्री के पालन-पोषण के साथ-साथ एक कुशल गृहिणी की भूमिका का निर्वहन करते हुए साहित्य एवं राष्ट्र दोनों की सेवा की। देश की आजादी के लिए वे कई बार जेल भी गई। सन् 1918 में अचानक देहावसान हो जाने के उपरान्त लंबी उमर तो नहीं वरण कर सकी फिर भी जो समय मिला साहित्य की सेवा में समर्पित किया।
सुभद्रा कुमारी जी ने 45 कहानियाँ लिखी हैं जो 'बिखरे मोती', 'उन्मादिनी' एवं 'सीधे-साधे चित्र' नामक संकलन में संकलित हैं। इनकी कहानियों की सूची इस प्रकार है- भग्नावशेष, होली, पापी पेट, मंझली रानी, परिवर्तन दृष्टिकोण, कदम्ब के फूल, विस्मृत, मछुए की बेटी, एकादशी, आहुति, थाती, अमराई, अनुरोध, ग्रामीणा, उन्मादिनी, असमंजस, अभियुक्ता, सोने की कंठी, नारी हृदय, पवित्र ईर्ष्या, अंगूठी की खोज, चढ़ा दिमाग, वेश्या की लड़की, गौरी, रूपा, तांगेवाला, कल्याणी, कैलाशीनानी, हींगवाला, राही, गुलाब सिंह, दो साथी, बिआहा, थाती, प्रोफेसर मित्रा, सुभागी, दुराचारी, मंगला, जम्बक की डिबिया, तीन बच्चे, बड़े घर की बात, कान के बुंदे, दो सखियां, देवदासी, एक्सीडेंट, दुनिया आदि|
निर्भीक और साहसिक अभिव्यक्ति से साहित्य और राजनीति में अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत करनेवाली सुभद्रा कुमारी चौहान जिक्र आने पर महादेवी वर्मा की ये पंक्तियां बरबस याद जाती हैं- "बहिन सुभद्रा का चित्र बनाना आसान नहीं है क्योंकि चित्र की साधारण जान पड़नेवाली प्रत्येक रेखा के लिए उनकी भावना की दीप्ति संचारिणी दीपशिखेव बनकर उसे असाधारण कर देती है।
बीसवीं सदी के हिंदी साहित्य के इतिहास में सुभद्रा कुमारी चौहान एक असाधारण और प्रेरणात्मक व्यक्तित्व के रूप में प्रतिष्ठित हैं। एक ऐसा व्यक्तित्व जिसमें लेखिका, राजनीतिक एवं सामाजिक कार्यकर्ता और वात्सल्यमयी मां का रूप इतना बुला मिला है कि कभी-कभी उन्हें अलगाना मुश्किल है। उनका समग्र जीवन और साहित्य यह सिद्ध करता है कि राष्ट्र भाव का तेबर कितना आक्रामक, कितना पैना और कितना सधा हुआ हो सकता है। कैसे वह अपने समय को लॉकर अपनी मूल्यवत्ता स्थापित कर लेता है।
सुभद्रा जी के लेखन और उनके संकल्पशील संघर्ष का दौर भारतीय राष्ट्रीय चेतना के विकास की श्रृंखला में एक युगांतकारी और क्रांतिकारी समय था राष्ट्रीयता की भावना प्रखर विस्तीर्ण और प्रबल हो जाती है। 1905 के बंग विभाजन ने जनांदोलन को तीव्रता प्रदान की समूचा देश 'खोए हुए स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए संकल्प दिखाई दिया। चंपारण और खेड़ा के सत्याग्रह आंदोलनों ने भारतीयों में आत्मविश्वास की भावना को सुदृढ़ किया। इस काल में राष्ट्रीयता गांधीजी की विचारधारा से पुष्ट और विकसित हुई। 1920 के पूर्व जलियांवाला बाग हत्याकांड तथा युद्ध के समय दिए गए आश्वासनी और वचनों की उपेक्षा के कारण प्रकट हुए शोषण की नीति एवं अंग्रेजों की निरकुंशता ने विद्रोह को जन्म दिया। गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन का मार्ग निर्दिष्ट किया गया। स्वामी रामतीर्थ ये पंक्तियां सबेरे-सबेरे प्रभात फेरी में उच्चारित होतीं गंगा उठो कि नींद में सदियां गुजर गई।" प्रेरणात्मक राष्ट्रीयता का उद्भासित स्वर इस युग में एक व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों से जुड़ गया। इस समय स्वातंत्र्य को पाने की दो पद्धतियां बिल्कुल स्पष्ट हो गई संकल्पशील मन का संघर्ष और कष्ट भोग की तत्परता। ये दो पद्धतियां ही स्वाधीनता का मार्ग प्रशस्त करेगी, यह धारणा बलवती हुई। इस परिदृश्य में माखनलाल चतुर्वेदी 'पुष्प की अभिलाषा' जैसी कविताएं रचकर और बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' "कथि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाए"। के उद्घोष द्वारा राष्ट्रीय स्वरों का उच्चारण कर रहे थे।
स्वाधीनता संग्राम की इन हलवतों के बीच सुभद्राजी के रचनात्मक व्यक्तित्व ने आकार ग्रहण किया। जब सुभद्राजी का विवाह स्वतंत्रता सेनानी ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान से हुआ तब उन्होंने व्यक्तिगत हितों की तिलांजलि देकर स्वाधीनता आंदोलन की डगर पर चुनौतियों को स्वीकार किया स्वतंत्रता के युद्ध के लिए सन्नद्ध पति को वे विवाह से पहले देख भी चुकी थीं और उनके विचारों से परिचित भी थीं। उनसे यह छिपा नहीं था कि नववधू के रूप में उनका जो प्राप्य है उसे देने का पति को न अवकाश है, न लेने का उन्हें वस्तुतः जिस विवाह में मंगल-कंकण ही रण-कंकण बन गया, उसकी गृहस्थी भी कारागार में ही बसाई जा सकती थी और उन्होंने बसाई भी वहीं पर इस साधना की मर्म व्यथा को वही नारी जान सकती है जिसने अपनी देहली पर खड़े होकर भीतर को मंगल चौक पर रखे कलश, तुलसी चौरे पर जलते हुए थी के दीपक और हर कोने से स्नेह भरी बाहें फैलाए अपने घर पर दृष्टि डाली हो और फिर बाहर के अँधकार, आँधी और तूफान को तोला हो, तब घर की सुरक्षित सीमा पार कर उसके सुंदर मधुर आवान की ओर से पीठ फेरकर अंधेरे रास्ते पर कांटों से उलझती चल पड़ी हो। उन्होंने हँसते-हँसते ही बताया था कि जेल जाते समय उन्हें इतनी अधिक फूल-मालाएं मिल जाती थीं कि वे उन्हीं का तकिया बना लेती थीं और लेटकर पुष्प शय्या के सुख का अनुभव करती थीं।" (महादेवी वर्मा, पथ के साथी', पृ. 11)