शिलालेखों से अभिव्यक्त होती राम की कथाएं
भारतीय संस्कृति का वर्चस्व पूरी दुनिया में अपने अलग-अलग स्वरूपों से अपने विस्तार की कहानी खुद बयां करता है|
प्रशांत महासागर(western coast) के पश्चिमी तट पर मौऊद मॉडर्न वियतनाम(Vietnam) का पुराना नाम चंपा था, जहाँ ईस्वी सन् के शुरुआती समय से ही भारतीय संस्कृति (Indian culture) का वर्चस्व था। वियनाम के बोचान नामक जगह से हासिल एक क्षतिग्रस्त/damaged शिलालेख/inscription के कुछ शब्द दिखाई देते हैं, 'लोकस्य गतागतिम्'। दूसरी या तीसरी शताब्दी में उकेरे गए यह उद्धरण(Citation) रामायण के अयोध्या कांड के एक श्लोक का अंतिम हिस्सा है।
क्रुद्धमाज्ञाय रामं तु वसिष्ठ: प्रत्युवाचह।
जाबालिरपि जानीते लोकस्यास्यगतागतिम्।।१
वियतनाम के त्रा-किउ नामक जगह से हासिल एक शिला लेख जगह जगह से क्षतिग्रस्त/damaged है, लेकिन इससे साबित होता है कि इसे चंपा के राजा प्रकाश धर्म (६५३-७९ई.) ने खुदवाया था इसमें आदिकवि वाल्मिकि का साफ-साफ उल्लेख है, 'कवेराधस्य महर्षे वाल्मीकि'। इससे यह भी पता चलता है कि प्रकाश धर्म ने उस मंदिर का पुनर्निमाण करवाया था,
'पूजा स्थानं पुनस्तस्यकृत:'।
अर्थ यह कि यह एक महर्षि वाल्मीकि का एक प्राचीन मंदिर था जिसका प्रकाश धर्म ने पुनर्निमाण/ रिकंस्ट्रक्शन करवाया।
कंपूचिया के बील कंतेल नामक जगत पर सम्राट भाव वर्मन का एक शिला लेख है जिसकी डेट ५९८ई. है। इसमें अंकित विवरणों के मुताबिक सोम शर्मा नामक एक ब्राह्मण को अर्क (सूर्य) सहित त्रिभुवनेश्वर की स्थापना करवाने के लिए खूब दक्षिणा मिली थी। इस पवित्र स्थल पर हर रोज रामायण और महाभारत का पाठ होता है।
द्विजेन्दुराकृति: स्वामी सामवेदविदग्रणी:।
श्री सोम शर्मार्कयुतं स श्रीत्रिभुवनेश्वरम्।।
अतिष्ठापन्महापूजामतिपुष्कल दक्षिणाम्।
रामायण पुराणाभ्यमशेषं भारत ददात्।।
अकृवान्वमच्धेद्यां स च तद्वाचना स्थितिम्।
कंबोज नरेश यशोवर्मन (८८९-९००ई.) के एक विस्तृत शिलालेख/inscription में एक जगह पर कहा गया है कि जिस तरह आदिकवि वाल्मीकि से सुनकर राघव पुत्रों ने अपने पिता का यश गान किया था, उसी तरह अन्य देशों की नारियों के मुंह से सम्राट यशोवर्मन का गुणानुवाद सुना जाता है।
भूभृन्सुखोदितं यस्य यशो गायन्ति तस्रिय:
वाल्मीकिज मुखोद्गीणर्ं स्वपुत्रो राघवस्यतु।।
हिंद चीन से हिंदेशिया की ओर अग्रसर होने पर सबसे पहले बोर्नियों के यूप अभिलेख पर ध्यान जाता है जिसमें मूल वर्मा की प्रशंसा इस तरह उत्कीर्ण है,
'जयति बल: श्रीमान् मूल वर्मा नृप:'।
इस उक्ति की तुलना वाल्मीकि रामायण के निम्नलिखित श्लोक से की जाती है|
जयति बलो रामो लक्ष्मणश्च महाबल:
राजा जयति सुग्रीवो राघवेणाभिपलित:।
मतलब यह कि शिलालेख/inscription की उपर्युक्त पंक्ति आदिकवि की उक्ति से प्रभावित है। बोर्नियों का यह शिलालेख/inscription चौथी शताब्दी ई. का है। इसकी अंतिम पंक्ति बहुत क्षतिग्रस्त/damaged है, फिर भी ऐसा लगता है कि इसमें मूल वर्मा की तुलना सगरकुल समुत्पन्न राजा भगीरथ से की गयी है।
सगरस्य यथा राज्ञ: समुत्पन्नो भगीरथ:।
... ... ... मूल वर्मा ... ... ... ... ... ।।
इन शिला लेखों की जुबानी ने तथ्य पता चलता है, उससे तो यही ज्ञात होता है कि दक्षिण-पूर्व एशिया में तीसरी शताब्दी से बहुत पहले ही रामकथा का अध्ययन/STUDY शुरू हो गया था जिसके नतीजे में आगे चलकर में उस क्षेत्र की विभिन्न भाषाओं में बहुत तरह के राम कथाकाव्यों की रचना हुई।
सच्चाई यह है कि यदि दक्षिण-पूर्व एशिया के शिल्प, कला और साहित्य से राम कथा को पृथक कर दिया जाए, तो उस स्थिति से पैदा हुई शून्यता की भरपाई करना किसी प्रकार मुमकिन नहीं है।
फिर तो, इस खालीपन से उस क्षेत्र का आधा-अधूरा साहित्य ही शेष रहेगा।