विनम्रता कोई हनुमानजी से सीखे
-दिनेश मालवीय
हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि नम्रता ही बलवान का आभूषण है. जिसके पास सचमुच अतुल बल होता है, वह स्वाभाविक रूप से विनम्र हो जाताहै. यदि उसे अपने बल पर घमंड हो जाए, तो वह रावण की तरह अहंकारी बनकर कुल सहित विनाश को प्राप्त हो जाता है. अगर अहंकार की जगह विनम्रता हो तो बलवान श्री हनुमानजी की तरह पूज्य बन जाता है. लोग छोटी-मोटी शक्ति प्राप्त कर लेने पर ही दर्प से भर जाते हैं. यह बात सिर्फ ताकत या बल पर ही लागू नहीं होती, बल्कि ज्ञान, विज्ञानया किसी भी क्षेत्र में यह प्रासंगिक है.
हमारे पौराणिक इतिहास और ग्रंथों में हनुमानजी के सामान बलशाली कोई नहीं है. वह सिर्फ बलशाली न होकर परम ज्ञानवान और सभी सिद्धियों के स्वामी भी हैं. लेकिन उनमें अहंकार लेश भी नहीं मिलता. यही कारण है कि उनकी घर-घर में पूजा होती है और भारत ही नहीं विदेशों में भी उनकी श्रेष्ठता को मान्य किया गया है. हिन्दू ही नहीं, बड़ी संख्या में अन्य धर्मों के लोग भी उनके प्रति अगाध श्रद्धा रखते हैं.
हनुमानजी की विनम्रता के कुछ उदाहरण हम श्रीरामचरितमानस से ही लेते हैं. यह पता लगने पर कि सीताजी समुद्र पार लंकानगरी में हैं, जाम्बवंत कहते हैं कि इतने बड़े समुद्र को लांघने की सामर्थ्य किसमें है? वह कहते हैं कि मैं तो बूढा हो गया हूँ, नहीं तो यह कार्य मै स्वयं कर लेता. अंगद कहता है कि मैं जा तो सकता हूँ, लेकिन मुझे लौटने में संशय है. हनुमानजी चुपचाप सब सुनते रहते हैं. कहते हैं कि ऋषियों के श्राप के कारण हनुमानजी को अपने बल की याद नहीं रहती. यह बात अपनी जगह सही हो सकती है, लेकिन इसका ऐसा मतलब भी है कि उनके पास इतना असीम बल है कि उन्हें इसका भान ही नहीं रहता.
हनुमानजी को चुपचाप बैठे देखकर जामवंत उन्हें याद दिलाते हुए कहते हैं कि-"अरे हनुमान! तुम क्या चुप साध कर बैठे हो. जग में ऐसा कौन सा कठिन कार्य है, जो तुम नहीं कर सकते. तुम्हारा अवतार तो प्रभु के कार्य सिद्ध करने के लिए ही हुआ है." यह सुनकर हनुमानजी तुरंत पर्वत के आकार के हो गए और गरजने-तरजने भी लगे, लेकिन ऐसा करते हुए भी उन्होंने अपनी विनम्रता को बनाए रखा.
इसी प्रकार, जब वह सीताजी का पता लगा कर लौटे तो भी विनम्रता की मूर्ति बने रहे. उन्होंने खुद सुग्रीव से आगे बढ़कर यह नहीं कहा कि मैं सीता माता का पता लगा आया हूँ. उन्होंने यही कहा कि श्रीराम की कृपा से विशेष कार्य हो गया है. यह सूचना भी श्रीराम को हनुमानजी ने नहीं बल्कि अंगद और सुग्रीव ने दी. हालाकि श्रीराम ने ही उन्हें अपना विशेष दूत बनाकर भेजा था और उन्हें पहचान के लिए अपनी अंगूठी भी दी थी. हनुमानजी प्रमाण के रूपमें सीताजी की चूड़ामणि भी लेकर आये थे. हनुमानजी को पूरा अधिकार था कि वह खुद जाकर श्रीराम से कहते कि प्रभु मैं आपका काम कर आया हूँ.
यह सूचना पाकर कि हनुमानजी सीता का पता लगा -आये हैं, श्री राम ने उन्हें अपने बगल में बैठा कर पूछा कि," हनुमान! तुमने परम शक्तिशाली रावण की लंका को कैसे विजित किया और उसे जला दिया?".
हनुमानजी का उत्तर ध्यान देने योग्य है. उन्होंने कहा- "भगवन! मैं किस योग्य हूँ. मैं तो एक साधारण वानर हूँ, जिसकी एक मात्र योग्यता यह है कि वह एक डाल से दूसरी डाल परछलांग लगा सकता है. मैंने जो समुद्र को लांघलिया,सोने की लंका को जला दिया और निशिचरों का वध कर दिया, वह तो सब आपके प्रताप से संभव हुआ. इसमें मेरी कोई बड़ाई नहीं है.
एक और उदाहरण देखते हैं. जब अशोक वाटिका में सीताजी हनुमानजी के छोटे और साधारण रूप को देखकर शंका प्रकट करती हैं की इतने प्रबल राक्षसों से तुम कैसे मुकाबला करोगे, तो वह अपना शरीर बढ़ाकर पर्वताकार कर लेते हैं. लेकिन कहते यही हैं कि "है! मातामैं तो एक वानर हूँ और मुझमें बहुत बल और बुद्धि नहीं है, लेकिन श्रीराम की कृपा से सर्प भी गरुण को खा सकता है."
लंका में विभीषण से भेंट के समय जब विभीषण कहते हैं कि मैं तो राक्षस कुल में जन्मा हूँ और मुझमें कोई गुण नहीं है, प्रभु मुझ पर कैसे कृपा करेंगे? तो हनुमानजी कहते हैं कि मैं कहाँ काबड़े कुल में जन्मा हूँ! एक चंचल वानर हूँ जिसमें कोई भी गुण नहीं है. अरे! वानरों का नाम कोई सुबह-सुबह ले ले तो उसे दिनभर भोजन तक नहीं मिलता. जब मुझ जैसे अधम पर प्रभुने कृपा की तो आप पर क्यों नहीं करेंगे.
किसी भी प्रकार की साधना में संलग्न व्यक्ति के लिए हनुमानजी सबसे बड़े आदर्श हो सकते हैं. हनुमानजी की अराधना करने वालों को उनके बल और बुद्धि के साथ ही उनकी विनम्रता को विशेष रूप से सदा याद रखना चाहिए. उनके इसी गुण के कारण श्रीराम हनुमानजी के इतने प्रशंसक है कि भरत से कहते हैं कि भाई मैं कपि (हनुमानजी) से कभी उऋण नहीं हो सकता. इस भजन को पंडित जसराज ने इतने भाव और श्रेष्ठता के साथ गाया है कि सुनकर मन में भक्ति की हिलोर उठने लगती है. यह भजन है- "भरत भाई, कपि सेउऋणहम नाहीं".